(समाज वीकली)
दलित आरक्षण मे धर्म का प्रश्न
विद्या भूषण रावत
आरक्षण का प्रश्न आज इतना संवेदनात्मक हो गया है कि इसके फलस्वरूप रिश्तों मे दरार पैदा हो जा रही है और एक दूसरे को गलत साबित करने के लिए तमाम तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हैं। वैसे इस पर राजनीति भी भरपूर हो रही है और इन सब ‘वैचारिक’ लड़ाई मे दरअसल हसिए के समाज ही सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रश्न पर भी येही सवाल व्यापक एकता को प्रभावित करता है हालांकि दक्षिण के राज्यों विशेषकर तमिलनाडु ने इसमे भी आनुपातिक व्यवस्था डाल कर इसे ठीक से संभाला है। उत्तर के राज्यों मे केटेगराईजेशन के सवालों को समाज को विभाजित करने का या ‘दुश्मन’ की चाल बताकर उसका लगातार विरोध किया जाता रहा है जिसके फलवसरूप एक ही प्रश्न पर सहमति होते हुए भी राजनैतिक परिणाम भिन्न होता है। पिछड़ी जातियों मे मुस्लिम और ईसाइयों को भी शामिल कर लिया गया है और दक्षिण के सभी राज्यों मे उनके लिए ओ बी सी आरक्षण के तहत पृथक आरक्षण दिया गया है।
अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित 17% आरक्षण मे अब दलित मुस्लिम और दलित क्रिश्चियन का मामला सामने आने से एक प्रकार का तनाव पैदा हो गया है। बहुत से लोग कह रहे हैं कि जातिव्यवस्था दक्षिण एशिया मे सभी धर्मों मे विद्यमान है चाहे सिद्धांत के तौर पर वे जाति को न मानते हों। दूसरे लोग ये तर्क दे रहे हैं कि 1950 का जो शासकीय आदेश मे उसमे दलितों के आरक्षण मे हिन्दू और सिखों ही नाम था। बाद मे 1990 मे इसमे बुद्धिस्ट लोगों का नाम भी जुड़ा। 1990 मे जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बड़े लंबे समय से चली आ रही नव बौद्धों की मांग को स्वीकारते हुए उनको इस आरक्षण सूची मे डाला तो तभी से ये बात चली कि दलित क्रिश्चियन को ये क्यों न मिले। उसके बाद मुसलमानों मे भी पसामंदाओ का सवाल उठाने वाले ऐक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों ने ये प्रश्न उठाया।
इस बात से कोई इनकार नहीं है कि संविधान सभा मे दलित और छुआछूत के प्रश्नों को हिन्दुओ तक ही देखा गया क्योंकि ये माना गया कि यह वर्ण व्यवस्था से उपजी हुई है जिसके कारण दलितों का सदियों से शोषण हुआ है। संविधान सभा के मुस्लिम, ईसाई सांसदों ने इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहा। सिखों मे भी एक दो सदस्य ऐसे थे जिन्होंने इस प्रश्न को उठाया। बाबा साहब इस बात को जानते थे और उनकी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ के प्रश्न पर उन्होंने बहुत कुछ कहा भी है। भारत की संविधान सभा मे बाबा साहब अंबेडकर ने इस संदर्भ मे बहुत बड़ी भूमिका निभाई और काँग्रेस मे भी पूना पैक्ट के बाद से ही इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार हो रहा था हालांकि पूना पैक्ट के संदर्भ मे ही बाबा साहब ने गांधी जी पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि उन्होंने हर बात के लिए आंदोलन किए, चाहे सर्व धर्म के नाम पर, मुसलमानों की सुरक्षा के लिए या किसानों के लिए लेकिन दलितों के लिए उन्होंने केवल रोड ही लगाए। अंबेडकर जानते थे कि डिप्रेस्ड क्लासेस के सवाल पर कोई इसलिए बात नहीं करेगा क्योंकि मुसलमानों का सामंती वर्ग भी ये बात नहीं मानता और धार्मिक अस्मिता के सवाल पर ही अधिक फोकस करता है। मुसलमान और ईसाइयों मे जाति के सवाल को स्वीकार करने का मतलब था वैचारिकी या धार्मिक तौर पर ये बात स्वीकार करना होता कि उनके समाजों मे भी समस्या है। ये बात भी एक हकीकत है क्रिश्चियानिटी और इस्लाम दोनों ही धर्म परिवर्तन वाले विचार रहे हैं। हिन्दुओ मे सामूहिक तौर पर या व्यक्तिगत तौर पर धर्म परिवर्तन के उदाहरण नहीं मिलते क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि यदि कोई दूसरे धर्म से हिन्दू बनेगा तो उसे किस जाति मे रखा जाएगा। हिंदूइज़्म मूलतः वर्णवाद पर आधारित व्यवस्था है लेकिन इस्लाम और क्रिश्चियानिटी मे ऐसा नहीं है और इन दोनों ही धर्मों की धार्मिक नेतृत्व इस आधार पर अपने को ‘बेहतर’ भी साबित करता था ताकि दोनों ही धर्मों को दलितों के लिए एक विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। जब बाबा साहब ने येवला मे 1932 मे ये घोषणा की थी कि मै पैदा जरूर हिन्दू हुआ हूँ जो मेरे बस मे नहीं था लेकिन हिन्दू रहकर नहीं मरूँगा’। इस घोषणा के बाद से ही बाबा साहब को अपने अपने धर्मों मे लाने के लिए बहुत प्रयास किए गए हालांकि बाबा साहब का बुद्ध धम्म के प्रति आकर्षण 1930 से ही था क्योंकि उनका परिवार भी कबीरपंथी परंपरा से आता था।
दरअसल भारत विभाजन के बाद बाबा साहब के निकट सहयोगी और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के टिकट पर उनको बंगाल से संविधान सभा मे लाने वाले श्री जोगेन्द्रनाथ मण्डल मुस्लिम लीग के समर्थन मे आ गए थे और स्वतंत्र पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष और वहा के कानून मंत्री बने। वह इस उम्मीद मे पाकिस्तान गए क्योंकि उन्हे लगा कि मुसलमानों का व्यवहार दलितों के प्रति शायद हिन्दूओ से अच्छा होगा। कायदे आजम जिन्नाह उन्हे बहुत मानते थे इसलिए उन्हे पाकिस्तान की संविधान सभा मे इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी दी गई लेकिन पाकिस्तान की मुस्लिम ऐलीट दलितों को पृथक और स्वतंत्र रूप से स्वीकार करने को तैयार नहीं था। नया राष्ट्र चाहे कितने भी वादे करता लेकिन उसकी बुनियाद ही धर्म के आधार पर थी तो उसमे अल्प संख्यकों के लिए तो बहुत कुछ नहीं हो सकता था। दरअसल पाकिस्तान का सामंती मुस्लिम नेतृत्व भारत के साथ बातचीत मे दलितों को एक कवच के तौर पर इस्तेमाल कर रहा था और वह दलितों को एक अलग केटेगोरी के रूप मे नहीं देख रहा था। दलितों का प्रश्न हिन्दुओ के साथ ही जोड़ा गया। पाकिस्तान मे आज भी पसमन्दा मुसलमान के सवाल पर कोई चर्चा नहीं है। आज पाकिस्तान मे बहुत से लोग अंबेडकर जयंती मनाते हैं लेकिन बहुत शातिरपने मे ये बात छुपा देते हैं कि पाकिस्तान ने दलित प्रश्न पर क्या किया और सबसे महत्वपूर्ण ये कि जोगेन्द्रनाथ मण्डल के साथ उनका व्यवहार ऐसा क्यों रहा कि उन्हे तीन वर्ष के अंदर ही देश छोड़ना पडा। ये सवाल भी जानना जरूरी है कि जब भारत मे दलितों को ये बताया जा रहा है कि इस्लाम मे उनके लिए ‘आजादी’ है तो ये पाकिस्तान के चूड़ा समाज के लोगों को क्यों नहीं नसीब हुई जो आज वहा ‘ईसाई’ कहे जाते है। ये कैसे संभव है के एक इस्लामिक देश मे दलितों को लिबरैशन ढूँढने ले लिए ईसाइयत की और जाना पड़ा और इसके पीछे का कारण है जातिवादी मानसिकता। पाकिस्तान के सामंती मुसलमान नहीं चाहते थे के चूड़ा लोगों के इस्लाम मे आने के बाद उन्हे कम से कम मस्जिद मे एक साथ नमाज़ पढ़नी पड़ेगी इसलिए उन्होंने सभी को ईसाई बने रहने दिया और उनके साथ हर स्तर पर भेदभाव और छुआछूत आज भी जारी है। पाकिस्तान मे ईसाई शब्द का मतलब ही चूड़ा है और उन्ही का सबसे अधिक शोषण है और आज भी सफाई पेशे मे उनके लिए सौ फीसदी आरक्षण है।
ईसाई समुदाय के बहुत से धार्मिक नेताओ ने 1990 के बाद से इस बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया था कि दलित क्रिश्चियन के प्रति चर्च मे भी भेदभाव है लेकिन मुसलमानों के ऊंची जातियों का नेतृत्व इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं करना चाहता था। दूसरी और सेक्यलर कही जाने वाली पार्टिया भी मुस्लिम नेतृत्व को नाराज नहीं करना चाहते थे इसलिए सभी इस मामले मे चुप रहे जब कि ये बात अब अनेकों सर्वेक्षणों मे साबित हो चुकी है कि मुस्लिम समुदाय मे बहुत विविधता है और कोई भी धर्म इस देश के अंदर होमोजिनस नहीं है। क्या किसी भी देश मे नागरिकता के आधार पर लोगों को समान सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। क्या केवल किसी बात को इसलिए बहस नहीं की जा सकती क्योंकि संविधान सभा मे उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। क्या संविधान और धर्म की पुस्तकों के बेसिक अंतर को हम नहीं समझते ? धर्म की तथाकथित हजारों साल पूर्व लिखी हुई किताबों मे से एक शब्द नहीं बदला जा सकता लेकिन संविधान लोगों की आवश्यकताओ के अनुसार संशोधित होता रहा है। हो सकता है कि स्वाधीनता के समय दूसरे धर्मों मे दलितों के सवाल उतनी मजबूती से न उठे हो क्योंकि विभाजन का मूल आधार तो धर्माधारित ही था हालांकि ये सब जानते हैं कि धर्म मे जातियों की सत्ता थी।
अक्सर हम ये शिकायत करते हैं कि जाति का मसला अन्तराष्ट्रिय स्तर पर वैसे क्यों नहीं उठ पाया जैसे रंग भेद या नस्लभेद का प्रश्न उठता है। दुनिया के दूसरे हिस्सों मे लोग जातिभेद के सवाल पर वैसी रिएक्शन क्यों नहीं देते जैसे नस्ल भेद के सवाल पर। इस प्रश्न पर अगस्त सितंबर 2001 मे दक्षिण अफ्रीका के शहर डरबन मे अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसमे भाग लेने वाले केवल भारत के ही संगठन नहीं थे अपितु दुनिया भर के देशों मनावधिकार कार्यकरता, दलितों के प्रश्न पर काम करने वाले आए और सभी ने एक सुर मे ये बात रखी कि जातिभेद और छुआछूत पूरे दक्षिण एशिया की समस्या है और यह विद्यमान सभी धर्मों मे मौजूद है। ये बात भी रखी गई कि क्योंकि अब दक्षिण एशिया के लोग दुनिया के अलग अलग हिस्सों मे बस चुके हैं और एक बड़ी आबादी अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप मे रह रही है और अपने साथ अपनी अपनी जाति के कुनबों मे रहती है इसलिए जाति का प्रश्न केवल भारत या हिन्दुओ के अंदर का मामला नहीं है। यह मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों मे भी व्याप्त है और इसे स्वीकार करना पड़ेगा तभी अन्तराष्ट्रिय स्तर पर कोई कानून बन पाएगा।
इंग्लैंड मे 2010 के इक्वालिटी ऐक्ट मे रेस यानि नस्ल के साथ जाति को रखने के मामले मे तत्कालीन सरकार ने 2013 मे स्वीकृति दे दी और 2015 मे इसे कानून बन जाना चाहिए था। लेकिन क्या आप जानते है कि इस कानून के खिलाफ इंग्लैंड के अंदर हिन्दुओ से अधिक बड़ी जाति के सिखों ने विरोध किया। इंग्लैंड मे जातिभेद मे जाट सिखों का व्यवहार कैसे रहा है ये हमारे अम्बेडकरवादी मित्र श्री बिशन दास बेन्स से बातचीत कर पता चलता है। श्री बेन्स 1985 मे वॉल्वरहैम्पटन के पहले अम्बेडकारी मेयर बने और उन्हे अफ्रीकी, श्रीलंकान, पाकिस्तानी, नेपाली और बांग्लादेशी मूल के लोगो ने भरपूर समर्थन दिया लेकिन पंजाब के जाटों ने उन्हे किसी भी तरीके से हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि एक दलित अम्बेडकरवादी कैसे उनका नेतृत्व कर सकता है ये जातिवादी जाटों को पसंद नहीं था।
अभी एक दो वर्ष पूर्व जम्मू कश्मीर मे वाल्मीकि लोगों की कहानी बहुत आई क्योंकि बताया गया कि धार 370 के खत्म होने से उन्हे वहा जमीन खरीदने का अधिकार मिलेगा। क्या हम जानते हैं कि ये वाल्मीकि समाज जम्मू कश्मीर मे कैसे पहुंचा ? 1957 जम्मू कश्मीर के सफाई कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर हड़ताल की थी। कश्मीर घाटी से लेकर जम्मू तक हा हा कर मच गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री बक्शी गुलाम मोहम्मद ने पंजाब से वाल्मीकियों को वहा बुलाकर और उन्हे सफाई का कम देकर हड़ताल तोड़ी थी। क्या आप जानते हैं कि जिन सफाई कर्मचारियों ने कश्मीर घाटी मे अपनी मांगों को लेकर हड़ताल की थी वे कौन थे ? वे सभी वतल समुदाय के थे जो जम्मू कश्मीर मे मैला ढोने और सफाई का काम करते थे, सभी इस्लाम को मानने वाले थे लेकिन सबके साथ भेदभाव होता रहा है। कश्मीर घाटी मे वतल या वाल्मीकि कभी भी डिग्री होने के बावजूद भी सफाई कर्मचारी के अलावा किसी और पेशे मे नहीं आ सके। क्या ये शर्मनाक बात नहीं है लेकिन मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वालों ने उनके प्रश्नों को कभी नहीं उठाया। वाल्मीकि लोग भी वहा रह गए, उनके मलमूत्र धोए लेकिन घर खरीदने और गैर सफाई पेशों मे उन्हे कोई नौकरी नहीं मिलती थी क्योंकि फिर धारा 370 का हवाला दिया जाता था।
लगभग 15 वर्ष पूर्व मै उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले मे एक कार्यक्रम के सिलसले मे गया था। वहा मेरी मुलाकात कुछ मुस्लिम सफाई कर्मियों से हुई जो अपनी परेशानियों को मेरे साथ साझा कर रहे थे। उनका कहना था कि नगर पालिका मे सफाई कर्मचारी के तौर पर भी उन्हे नियुक्ति नहीं मिलती हालांकि वह सुबह शाम वही काम कर रहे हैं। वे कहते हैं के हिन्दू सफाई कर्मचारियों को सुविधा है लेकिन उन्हे नहीं जबकि दोनों का काम एक सा है।
यही स्थिति ईसाई दलितों की है। उनके साथ चर्च मे भेदभाव होता है और वे अपने अलग चर्चों मे पूजा करते हैं। पंजाब मे दलित सिखों के गुरुद्वारे अलग हैं और जातिप्रथा को लेकर सिख भी दुनिया के दूसरे देशों मे चले गए। एक बार अफ्रीका के देश युगांडा मे मुझे तीन अलग अलग प्रकार के गुरुद्वारा देख आश्चर्य हुआ। यहा मै जाटों, राम गढ़ियों के गुरुद्वारे मे गया और मैंने सवाल किया कि क्या उनका गुरुद्वारा एक नहीं हो सकता।
सरकार ने तो साफ कह दिया है कि वो दलित क्रिश्चियन और दलित मुस्लिम को आरक्षण नहीं देना चाहती और उसके पीछे कारण साफ हैं। वो ये कि हिन्दुत्व की लाबी ये मानती है कि यदि धर्म के आधार पर आरक्षण हो गया तो धर्मांतरण की प्रक्रिया और मजबूत होगी। उनका कहना है कि यदि ये धर्म जाति को नहीं मानते तो जातिभेद के प्रश्न क्यों उठा रहे हैं। सवाल वाजिब है। ये बिल्कुल सही बात है कि दलितों या उत्पीड़ित समूहों मे बदलाव धर्म परिवर्तन से नहीं आना। वो सांविधानिक मूल्यों को आत्मसात करके ही आएंगे लेकिन आधुनिक लोकतंत्र नागरिकता के आधार पर बनते हैं, यानि नागरिकों मे एक ही बात को लेकर भेदभाव नहीं किया जा सकता। ये बात सिद्ध हो चुकी है कि भारत मे सभी धर्मों मे जाति का गहरा असर पड़ा है और जातिभेद के कारण लोगो की आर्थिक सामाजिक स्थिति और भी बदतर हुई है। संविधान आपके साथ इसलिए भेदभाव नहीं कर सकता क्योंकि आप किसी जातिविशेष के हैं। सवाल है कि जब बुद्धिस्ट और सिख दलितों को आरक्षण की सुविधा मिल सकती है तो मुस्लिम और ईसाई दलितों को क्यों नहीं ? इसमे जो दिल जल रहे हैं वो नौकरियों की कमी और आरक्षण पर चौतरफा हमले की वजह से हो रहे हैं। शायद इस प्रश्न का उत्तर इस बात मे है कि सरकार मुस्लिम दलितों और ईसाइयों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करे लेकिन उस स्थिति मे उनके लिए उसी अनुपात मे अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित 17% आरक्षण के अतिरिक्त आरक्षण की व्यवस्था की जाए।