जातिनिर्मूलन-वर्गनिर्मूलन गठबंधन सरकार की आहट!

(महत्वपूर्ण सूचना- मेरा हर रविवार का स्तंभ (कॉलम) डेली लोकमंथन इस मराठी दैनिक मे प्रकाशित होता है. इस रविवारका (19मे19) ‘बहुजननामा-71’ कुछ कार्यकर्ताओंको बहोत अच्छा लगा. उन्होने इसको हिंदी मे देने की जीद की है…. यह आर्टिकल हिंदी दोस्तों के लिए दे रहा हुं…)

इकहत्तरवीं किस्त……!  (दैनिक लोकमंथन, रविवार – 19 मई, 2019 के अंक मे प्रकाशित) बहुजननामा-71

  • जातिनिर्मूलनवर्गनिर्मूलन गठबंधन सरकार की आहट!
  • (Ascendant Caste conflict after 23rd May)

बहुजनों!

प्रधानमंत्री पद पर फिर से भाजपा का उम्मीदवार ही आसीन होंगा, इस बात की संभावना को देखते हुए कांग्रेस ने आज (17 मई को) घोषणा कर दी कि, कांग्रेस प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर होने के लिए तैयार है। इसका मतलब ये है कि कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती या ममता तो स्वीकार्य हैं, लेकिन मोदी या भाजपा का कोई अन्य व्यक्ति नहीं। इसके लिए कांग्रेस देश में एक भाजपा विरोधी गठबंधन सुनिश्चित करना चाहती है। अपना (Forwardness) मजबूत करने का भी कांग्रेस का यह एक प्रयास है। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। यहां तक कि आम जनता ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील और क्रांतिकारी कहे जाने वाले नेता भी बार-बार इतिहास को भूल जाते हैं और इसलिए इतिहास खुद अपने को बार-बार दोहराता रहता है। इससे जातिनिर्मूलन और वर्गनिर्मूलन की बात करने वाले नेताओं के हाथ कुछ नहीं लगता। सब अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं और हालात जस का तस रहता है। इस तरह सत्ता का खेल जारी रहता है।

भारतमे प्राचीन समयसे दो खेमे मे लढाई शुरू है. दो Warrior Camps है. एक जातीव्यवस्थाको बरकरार रखकर अपना जातीय वर्चस्व कायम रखना चाहता है या बढाना चाहता है. इस कॅम्प को ब्राह्मीण कॅम्प कहा जाता है. और दुसरा Warrior Camp है शूद्रअतिशूद्र जातीयोंका जीसको कहा जाता है- नॉन-ब्राह्मीण कॅम्प. कांग्रेस और जनसंघ-भाजपा पार्टी दोनों ही ब्राह्मणवादी खेमे के समर्थक रही हैं, लेकिन जनता के सामने वे एक-दूसरे के कट्टर विरोधी के रूप में खड़े रहते हैं। अर्थात गाँव-खेड़े में मराठा-जाट-ठाकूर (क्षत्रिय) घराने के सगे या चचेरे भाई भी कट्टर दुश्मन के तौर पर गाँव की राजनीति में सक्रिय रहते हैं। गांव में घूम-फिर कर उसी क्षत्रिय वंश की ही सत्ता बनी रहती है। इन दोनों भाइयों की हिंसक राजनीति में शूद्र जनता और अन्य सामान्य लोग भी बेवजह पिसते रहते हैं। इसका अपरिहार्य परिणाम यह होता है कि गाँव की राजनीति कभी भी जातिनिर्मूलन शक्तियों का वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाता, यानी राजनीति निर्णायक सफलता की ओर नहीं मुड़ पाती। क्षत्रिय परिवार के हिंसक प्रवृत्ति के कारण इस राजनीति में खून खराबा भी होता है। दूसरी ओर ब्राह्मण राजनीति अन्य जातियों के लिए तो हिंसक होती है लेकीन उनके आज के ब्राह्मणों के लिए मृदू होती है। यह एक उदाहरण देखो, गांधीजी के लिए उनकी राजनीति हिंसक थी, जबकि संघी-ब्राह्मणों के लिए यही राजनीति मृदु व अहिंसक और उनको जोड़नेवाली थी। नेहरूजी ने गांधी की हत्या के बाद उसमें संघ की संलिप्तता को देखते हुए संघ पर प्रतिबंध लगा दिया और कुछ ही महीनों के भीतर बिना किसी ठोस कारण के संघ पर से प्रतिबंध हटा भी लिया। गांधीजी की हत्या जैसी गंभीर घटना के बाद संघ को स्थायी रूप से प्रतिबंधित करने के पर्याप्त कारण थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। चूंकि ब्राह्मीण खेमे में शत्रुता सिर्फ जनता को दिखाने के लिए होती है, जबकि वास्तव में उनमें मित्र या सगे भाई की तरह प्रेम होता है। इसे ब्रेन-हेड पॉलिटिक्सकहते हैं! क्षत्रिय परिवारों में राजनीति घुटनों में होती है, इसलिए वे अपनों के ही दुश्मन होते हैं और एक दूसरे को ही मारते हैं।

ब्राह्मण खेमे की राजनीति वैचारिक स्तर पर होती है। हम इसे उदाहरण के माध्यम से सिद्ध करेंगे! 1977 में प्रचंड कांग्रेस विरोधी लहर में कांग्रेस गठबंधन ने 189 सीटें और जनता पार्टी गठबंधन की घटक जनसंघ ने 75 सीटें जीती थीं। यानी कुल 264 सीटें, जो 272 के काफी करीब था। इसके बावजूद कांग्रेस और जनसंघ ने मिलकर सरकार बनाने का प्रयत्न करना तो दूर, इस बारे में सोचा तक नहीं। इसके विपरीत जाति-निर्मूलन और वर्ग निर्मूलन शक्तियों के प्रभाव वाली जनता पार्टी को सत्ता स्थापित करने में मदद की। लेकिन ब्राह्मण खेमे को डर था कि कहीं मोरारजी सरकार कालेलकर आयोग को लागू करके जाति व्यवस्था में दरार डालने के फैसले ले सकती थी। नवगठित मंडल आयोग के गठन के जरिए टाइम पास करने का प्रयास किया गया। उसके कार्यकाल को विस्तार दे दीया गया। लेकिन अंत में मंडल कमीशन की रिपोर्ट पूरी तरह से तैयार हो गई। इसे सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले ही सरकार गिराना जरूरी था। सरकार को गिराने का मूल कारण मंडल आयोग ही था, लेकिन इसकी वजह बताई गई संघ की दोहरी सदस्यता। इस तरह देश के राजनीतिक स्पेक्ट्रम पर चर्चा किए बिना ही जातीविनाशी मंडल आयोग के मुद्दे को दबा दिया गया। परिणामस्वरूप, इसके बाद हुए मध्यावधि चुनाव (1981) में इंदिरा कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत के साथ विजयी हुई। इंदिरा सरकार ने पहला महत्वपूर्ण काम क्या किया? इंदिराजी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को चर्चा किये बीना कचरे के डिब्बे में डाल दिया। जाति-निर्मूलनकारी शक्तियों को दबाने का काम कांग्रेस सरकार ईमानदारी से कर रही है, यह देखने के बाद संघ ने कुछ वर्षों तक अपनी राजनीतिक तलवार (भाजपा) म्यान में ही रखी। संघ-भाजपा ने अपनी पूरी शक्ति का उपयोग आगे होनेवाले ‘मंडल-कमंडल’ युद्ध की तैयारियों के लिए करना शुरू किया। 1985 से राममंदिर वाला मुद्दा गली मोहल्ले में दुष्प्रचारित किया गया। चूंकि वह अनुभवी थे, इसलिए उन्हें पता था कि, 10 साल बाद उन्हें जाति-निर्मूलनकारी गैरब्राह्मणी खेमे के खिलाफ लड़ना होगा। नियति का खेल देखिए, दस साल के बाद फिर वही हालात बन गए। इस देश की जाति व्यवस्था की यह विशेषता रही है कि, हर दस या बारह साल बाद ये ब्राह्मण खेमे को जबरदस्त झटका देती रहती है। ब्राह्मणी खेमा अल्पसंख्यक है, लिहाजा, यह कुछ महीनों के लिए पीछे हट जाती है,  चंद महीने तक जाति-निर्मूलनकारी शक्तियों को राजनीतिक सत्ता में बैठने में भी मदद भी करती है, और फिर षड्यंत्र करके जाति-निर्मूलनकारी शक्तियों को सत्ता से बाहर कर देती है। फिर से दस साल के लिए ब्राह्मणवादी खेमे की मजबूत राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाती है। 1967, 1977 और बाद में 1989… 1989 में जो जनता दल पार्टी बनी वह ओबीसी-वर्चस्व वाली पार्टी थी। 1989 के चुनाव में कांग्रेस ने 197 सीटें और भाजपा ने 85 सीटें जीती थीं। उस समय भी कांग्रेस-भाजपा मिलकर 282 सांसदों की मजबूत सरकार बना सकते थे, लेकिन उस समय, उन्होंने ओबीसी वर्चस्व वाले जनता दल को सत्ता में आने में मदद की। उस समय जोखिम बहुत अधिक था। 1980 में ओबीसी प्रभाव वाली जनता पार्टी की सरकार को गिराना आसान था। 1989 में सत्ताधारी जनता दल के ओबीसी वर्चस्व वाली पार्टी होने के कारण वह ना तो मंडल आयोग को दबा सकती थी और ना ही  टाइमपास के लिए कोई षड्यंत्र कर सकती थी। बल्की उसका जात-स्वभाव  (Caste Nature) उसको मंडल कमिशन अमल मे लाने के लिए उतावला था. उस समय इस बात की गारंटी थी कि यह सरकार मंडल आयोग लागू करेगी ही और उसे सफलता भी मिली। इस Anti-caste संघर्ष का नेतृत्व उदारमतवादी, पूंजीवादी और लोकतंत्रवादी राजा वी. पी. सिंह और समाजवादी पार्टी के लालू-मुलायम जैसे ओबीसी नेताओं और मृणाल गोरे,लिमये, नाना गोरे जैसे ब्राह्मण नेताओं के हाथ में था। जनता दल के इस गैरब्राह्मणी खेमे में यदि कोई सच्चा फुलेवादी या अंबेडकरवादी नेता होता, तो उसे पहले ही पता चल जाता कि मंडल आयोग को बेअसर करने के लिए राम मंदिर आंदोलन शुरू किया जाएगा। ऐसे सच्चे फुले-अंबेडकरवादी नेता होते तो राम मंदिर आंदोलन को जवाब देने के लिए पहले से कोई रणनीति तैयार करके शूद्रादिअतिशूद्र शंबुक मोर्चे की स्थापना कर ली होती। प्रकांड विद्वान कॉमरेड शरद पाटिल ने राम मंदिर के सांस्कृतिक आंदोलन का शह देने के लिए, ‘‘आमची प्रतिके समतेची! ताटका सीता शुर्पणखेची!!’’ (हमारे आदर्श समता के! ताटका, सीता, शूर्पणखा के!!) यह क्रांतिकारी नारा देते हुए एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत की थी। उसी समय यदि यह आंदोलन वामपंथी, प्रगतिशील और फुले-अम्बेडकरवादी नेता दिल्ली तक ले गए होते, तो कमंडल की राम-राजनीति को रोका जा सकता था। वी. पी. सिंह न तो फुले-अम्बेडकरवादी थे, न ही वामपंथी-समाजवादी। इसलिए, वे कमंडल के राम मंदिर के जवाबी हमले को समझ ही नहीं पाए। इस जवाबी हमले को समझने का काम वाम-समाजवादी-प्रगतिशील नेता कर सकते थे, लेकिन वे तो पहले से ही अपने अंदर के ब्राह्मणवाद से झुके थे. मंडल आयोग को रोकने के लिए, ब्राह्मण खेमे की ओर से उठाया गया राम मंदिर का मुद्दा और इस मुद्दे को जवाब देने के लिए सीता ताड़का शूर्पनखाआंदोलन इन सभी को समझने की क्षमता केवल सच्चे फुलेवादी या सच्चे अम्बेडकरवादी में ही हो सकती थी। लेकिन उस अवधि के दौरान वी. पी. सिंह के सलाहकरी दरबार मे कोई सच्चा फुलेवादी या सच्चा अंबेडकरवादी नहीं था। जो एक-दो अम्बेडकरवादी, वी.पी. सिंह के आसपास थे, वो भी दिशाहीन, अनुभवहीन और लक्ष्यविहीन (Policy-less) थे। इस कारण से हम 1989-92 के दौरान मंडल-कमंडल की सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई हार गए।

हमें बस एक सफलता मिली। मंडल आयोग के मुद्दे को देश के राजनीतिक एजेंडे में शामिल होने से ओबीसी के राजनीतिक चेतना का सूचकांक उछला और दिल्ली को हिलाकर रख दिया। इसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण मुस्लिमों में उपजा असंतोष भी शामिल हो गया। परिणामस्वरूप कांग्रेस और बीजेपी जैसी दोनों ब्राह्मण पार्टियां पिछड़ गईं। कई राज्यों में राज्य-स्तरीय ओबीसी दलों का गठन किया गया और वे सत्ता पर आसीन भी हुए। अब ओबीसी नेतृत्व देश की राजधानी पर प्रहार करने लगा है। देवेगौड़ा सही अर्थों में इस देश के पहले ओबीसी प्रधानमंत्री बने थे (1996)। जाति व्यवस्था को जन्म देने वाले मूल पर प्रहार करने के लिए देवेगौड़ा सरकार ने जैसे ही ओबीसी जनगणना का फैसला लिया, वैसे ही ब्राह्मण खेमे वाली कांग्रेस ने उनको सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाकर उनकी जगह नॉन-ओबीसी इंद्रकुमार गुजराल को प्रधानमंत्री के पद पर बिठा दिया। 1977 के ओबीसी वर्चस्व वाली सरकार को भी समाजवादियों और भाजपाई ब्राह्मणों ने गिरा दिया था। 1989 की ओबीसी वर्चस्व वाली वी.पी. सिंह सरकार को भाजपा ने ही गिराया था और 1996 में पूर्ण ओबीसी नेता देवेगौड़ा की सरकार को कांग्रेस ने गिराया।

पिछले इन तमाम अनुभवों को देखते हुए यही कहा जा सकता हैं कि, कांग्रेस अब चाहे जितनी प्रगतिशील भूमिका के साथ आगे आए, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। ब्राह्मणवादी कांग्रेस के भरोसे पर जाति-निर्मूलन सरकार बन तो जाएगी, लेकिन वह स्थायी नहीं रहेगी, यह पत्थर पर खिंची लकीर की तरह सही बात है। ब्राह्मण खेमे की कांग्रेस-भाजपा ने अब तक तीन बार (1977, 1989, 1966) Anti-caste राजनीतिक गठबंधन को सत्ता में बिठाया और हर बार 10-12 महीने के भीतर ही उनकी सरकार को गिरा भी दिया। अब भी, उसी परंपरा की पुनरावृत्ति करने के लिए ब्राह्मण खेमे की कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के पद का दावा छोड़ दिया है और बाहरी या अंदर से समर्थन देकर जाति-निर्मूलक शक्तियों को सत्ता सौंपने का संकेत दिया है। पिछले तीनों बार कांग्रेस-भाजपा एक साथ आकर सरकार बना सकती थी और 2019 में भी कांग्रेस-भाजपा को कुल मिलाकर कम से कम 300 सीटें जरूर मिलेंगी। लेकिन जिस तरह उन्होंने पिछले तीन बार कांग्रेस-भाजपा की संयुक्त सरकार नहीं बनाई, उसी तरह चौथी बार भी वे ब्राह्मण खेमे की संयुक्त सरकार नहीं बनाएंगे। वे बार बार इतिहास दोहराते रहते हैं और कुछ समय के लिए जाति-निर्मूलक राजनीतिक ताकतों को सत्ता पर बिठाते हैं और फिर वे ही सरकार को गिरकर जाति-निर्मूलक शक्तियों को कमज़ोर बनाते हैं। इसके बाद ब्राह्मण-शक्ति एक नई मजबूती के साथ फिर से सत्ता में आती है।

अब तक जनमत को अपने विरोध में जाते देख कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता में आने का इरादा त्यागकर अन्य दलों को सत्ता पर बैठने का अवसर देती रही है। इस बार सत्ता छोड़ने की बारी भाजपा की है। लेकिन केवल एक बड़ी पार्टी के रूप में सत्ता से चिपके रहने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। चूंकि आजके राष्ट्रपति भाजपा के ब्रह्मपूजक हैं, इसलिए भाजपा और सबसे बड़े गठबंधन एनडीए को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे। विश्वास प्रस्ताव के लिए, शक्ति का दुरुपयोग करेंगे, पानी की तरह पैसे बहाएंगे और तमाम जोड़तोड़ करके सत्ता में बने रहेंगे। विरोधी नेताओं को जेल में डालने की धमकी देंगे और बहुमत हासिल करने की कोशिश करेंगे। लेकिन दूसरी ओर, किसी भी शर्त पर अब मायावती, अखिलेश, तेजस्वी, चंद्राबाबू, चंद्रशेखर राव, स्टालिन जैसे नेता भाजपा की धमकियों के आगे झुकेंगे नहीं। इन हालात में राष्ट्रपति द्वारा बलजबरी में बनाई गई भाजपा सरकार बस 20-25 दिनों की ही होगी। इसके बाद बहन मायावती, ममताजी या चंद्रबाबू इनमें से किसी एक के नेतृत्व में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बन जाएगी। अगर अखिलेश अटल रहे, तो मायावतीजी ही प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन इस Anti-caste सरकार को वर्ग-निर्मूलन Anti-class सरकार बनाने के लिए सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को भी इस सरकार में शामिल होना चाहिए। संक्षेप में कहे तो गैरब्राह्मण खेमे की यह नई सरकार सही मायने में जाति-वर्ग निर्मूलनकारी सरकार होगी। इसके लिए कम्युनिस्टों को ब्राह्मणवादी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस ’जैसी सामंती पार्टियों का साथ छोड़ देना चाहिए।

पिछले अनुभवों को देखते हुए अब और सतर्क होने की जरूरत है। मायावती, अखिलेश, तेजस्वी, कुमारस्वामी और स्टालिन जैसे गैर-ब्राह्मण खेमे के नेता कांग्रेस के समर्थन पर सरकार बना लेंगे, फिर भी कांग्रेस 8-10 महीनों के भीतर आपका एनकाउंटर करेगी ही, इस संभावना को देखते हुए वी.पी. सिंह सरकार की तरह शीघ्र ही निम्नलिखित निर्णय लेना आवश्यक है। पिछली किसी भी गैर-ब्राह्मणी सरकार की तुलना में इस बार की सरकार पूरी तरह से गैर-ब्राह्मणी शक्तियों द्वारा नियंत्रित होने जा रही है। इसलिए, प्रधानमंत्री चाहे मायावतीजी हों, ममताजी हों या चंद्राबाबू हों, लेकिन निर्णय लेने का अधिकार केवल और केवल पूर्ण रूप से और दृढ़ता से गैर-ब्राह्मणी Anti-caste शक्तियों के हाथों में ही होगा। इसलिए कुछ जाति-निर्मूलन संबंधी निर्णय शीघ्रता से लेने होंगे और अपने गैर-ब्राह्मणी खेमे को मजबूत बनाना होगा। उदाहरण के लिए कुछ निर्णय निम्नलिखित—-

1) ओबीसी और क्षत्रिय-ब्राह्मणों सहित सभी जातियों, जनजातियों और उप-जातियों की जनगणना हर दस साल बाद होनी ही चाहिए, इसके लिए संविधान में संशोधन करके सम्बंधित कानून बनाया जाना चाहिए। यानी 1921 से जनगणना में जातिआधारित जनगणनाकानूनन शुरू होनी चाहिए।

2) नीति आयोग को बर्खास्त करके योजना आयोग को पुनर्जीवित करना चाहिए और सभी कमजोर वर्ग, जैसे एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक को उनकी आबादी के आधार पर निधि आवंटित करनी चाहिए। कोई और सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं करे, इसके लिए योजना आयोग द्वारा संशोधन और अधिनियमित किया जाना चाहिए।

3) ओबीसी वर्ग में घुसपैठ करनेवाले मराठा-जाट जैसे सभी क्षत्रियों को ’10 प्रतिशत आरक्षण के सवर्ण श्रेणीमें वर्गीकृत करना चाहिए और घुसपैठविरोधी घटनाओं को दुरुस्त करके कड़ा कानून बनाया जाना चाहिए। आदिवासी वर्ग में घुसपैठ करने की कोशिश करने वाले फर्जी आदिवासी जातियों और जनजातियों को कानून बनाकर रोका जाना चाहिए।

4) ओबीसी को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाना चाहिए और जाति-आधारित जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ओबीसी के चार उप-वर्गों को उनकी आबादी के अनुसार आरक्षण वितरित किया जाना चाहिए।

5) देश के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे चुनाव आयोग, संरक्षण, न्याय, आईबी, सीबीआई, निजी उद्योग, शिक्षा में सभी संवर्गों और सभी पदों पर आरक्षण लागू करना चाहिए और उन्हें 200 पॉइंट रोस्टर पद्धति से लागू किया जाना चाहिए। माइक्रो-रिजर्वेशन रद्द किया जाना चाहिए।

6) 200 पॉइंट रोस्टर प्रणाली को स्थायी रूप से वैध करनेवाले और माइक्रो- रिजर्वेशन पद्धति को स्थायी रूप से रद्द करने वाले संशोधन संविधान मे किए जाने चाहिए।

7) देश और राज्य के सभी विभागों में रिक्त पदों को ‘स्पेशल ड्राइव’ प्रोग्राम से तुरंत भरना चाहिए और एससी, एसटी और ओबीसी बैकलॉग पूरा होने तक खुली (Open) श्रेणी की भर्ती को पूरी तरह से बंद रखी जानी चाहिए।

8) सीबीआई, ईडी, आईबी, एनआईए, रॉ, सैन्य, Election Commission और न्यायालयों में मौजूद संघी-ब्राह्मणों को बाहर करके उन्हें सामान्य क्षेत्रों के दूसरे विभागों में स्थानांतरित करना चाहिए।

9) संघी-भाजपा सरकार द्वारा लिए गए श्रमिक-किसानों संबंधी जनविरोधी निर्णय को जाति-निर्मूलन  गठबंधन सरकार के गठन के बाद तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए और सरकार द्वारा इसे संशोधित करके स्थायी नए प्रगतीशिल रूप मे लागू किया जाना चाहिए।

10) स्वामीनाथन आयोग, मंडल आयोग, नचियप्पन समिति की रिपोर्ट और सच्चर आयोग का कार्यान्वयन पूरी तरह से शुरू करना चाहिए।

11) आदिवासीबहुल भागों में छोटे-छोटे स्वायत्त आदिवासी राज्य की स्थापना करनी चाहिए।

12) सभी राज्यों को स्वायत्तता और कुछ पिछड़े राज्यों को विशेष दर्जा दिया जाना चाहिए।

13) जाति-वर्ग निर्मूलन के लिए जन-जागरण अभियान शुरू करने के लिए हर राज्य में बौद्ध विश्वविद्यालय की तर्ज पर समानांतर मार्क्सफुलेआंबेडकर विश्वविद्यालयकी स्थापना करनी चाहिए।

14) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘भंडारकर संशोधन संस्था’ की तर्ज पर प्रत्येक राज्य में एक ‘जाति-निर्मूलन संशोधन संस्थान’ स्थापित होना चाहिए। इस शोध पर आधारित वैचारिक ग्रंथ और स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों की पाठ्यपुस्तकें सरकार द्वारा प्रकाशित की जानी चाहिए।

15) गैर-ब्रह्मण संस्कृति के प्रति जन-जागरण लाने और उसे मजबूत करने के लिए सरकार को भाद्रपद माह के पितृपक्ष में ‘बलिराजा महोत्सव’ मनाने की परंपरा शुरू करनी चाहिए। इसी तरह मातृसत्तात्मक और कृषि संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बैलपोला, कानबाई, नवरात्र महौत्सव और आदिवासियों के डोंगरदेव, दिवाली जैसे त्योहारों को मनाने के लिए सांस्कृतिक मंत्रालय को मंजूरी देने का प्रावधान करना चाहिए। इन सभी परंपराओं और उत्सवों को स्कूल और कॉलेज में मनाया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। क्योंकि ये तमाम त्योहार समानता के मूल्य को मजबूत करते रहे हैं।

यह कोई भी नहीं कहेगा कि संघी-सनातनी उपरोक्त 15 बिंदु कार्यक्रमों को लागू होता देखकर शांत बैठेंगे। पिछले 5 वर्षों के दौरान उन्होंने संपूर्ण प्रशासन को संघमय बना दिया है। मनमाने ढंग से नौकरी में भरती करते हुए पूरे प्रशासन को कट्टर ब्राह्मणवादी बना दिया है। ऐसे में यह गौर करने वाली बात होगी कि अगर विधि का शासन स्थापित करने और आदेश देने वाली सरकार जब Anti-caste नेतृत्व के हाथ में आ भी जाती है, तो भी, इसे लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र ब्राह्मणी खेमे का है। दूसरी बात यह है कि गोरक्षकों के नाम पर उन्होंने हर जिले और तालुका में गुंडो की निजी फौज खड़ी कर ली है।

उन्होंने अभी से हथियार और अन्य गोला-बारूद देकर रखे हैं। अब तक महाराष्ट्र पुलिस ने दो स्थानों से इस हथियारोंको जब्त किया है। तीसरा मुद्दा राम मंदिर का है। मंदिर के निर्माण में लगने वाले खंबे, दरवाजे, खिड़कियां, दीवार, छत, मूर्ति आदि सभी तैयार हैं। केवल उनको एसेंबल करके रातोंरात राम मंदिर खड़ा किया जा सकता हैं। इसके लिए वे पूरे देश में फिर से दंगे पैदा करके अस्थिरता पैदा करेंगे और इस अवसर को भुनाने के बाद कांग्रेस पार्टी Anti-caste सरकार से समर्थन वापस ले लेगी। इस तरह इतिहास की पुनरावृत्ति होने जा रहा है। यदि इस पुनरावृत्ति से बचना है, तो अगले राजनीतिक फॉर्मूले पर अमल करना चाहिए।

इस राजनीतिक फॉर्मूले के अनुसार, सबसे पहले जाति-निर्मूलक गठबंधन सरकार को एक विशेष राजनीतिक कार्यक्रम को लागू करना होगा। इसका मतलब यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के खिलाफ कई मामले दर्ज करके उसकी जांच शुरू करनी चाहिए जो उन्हें गिरफ्तारी की साया लाएंगे। मोदी-शाह गिरफ्तारी से बचने के लिए भाजपा को तोड़ेंगे और 50-60 सांसद लेकर स्वतंत्र दल बनाएंगे। उन्हें गिरफ्तार न करने की शर्त पर, वे जाति-निर्मूलक गठबंधन सरकार का समर्थन करेंगे और इस तरह पांच साल तक जाति-निर्मूलक गठबंधन सरकार सत्ता में बनी रहेगी। बदला लेना जरूरी नहीं है, लेकिन देश के कल्याण के लिए और जाति-निर्मूलक गठबंधन सरकार की स्थिरता के लिए मोदी-दमछाक पुराणअमलमे लाना आवश्यक है। देश का इतिहास कहता है कि जब-जब भी कांग्रेस में विभाजन हुआ, तब-तब गैरब्रह्मणी खेमे को बड़ा लाभ मिला। उदाहरण के लिए, कांग्रेस-वी.पी. सिंह-मंडल आयोग। अब भाजपा में विभाजन की बारी है।

इस तरहकी घटना हो ना हो. लेकीन Anti-caste सरकार इस तरह का काम करती है तो, उसके बाद होने वाले चुनाव मे कांग्रेस-भाजपा सफाया हो सकता है। यही नियति की दिशा है। नियति की लाथ पिछवाडेपर बैठनेसे पहलेही Anti-caste गठबंधन के नेता प्रयत्नपूर्वक कुछ ठोस काम करेंगे, इसी अपेक्षा सहित जयज्योती जयभीम…. सत्य की जय हो!

            प्रा. श्रावण देवरे

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