(समाज वीकली)
– राम पुनियानी
भारत के वर्तमान सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता भले ही हमारे धर्मनिरपेक्ष-बहुवादी और संघात्मक संविधान के नाम पर शपथ लेते हों परन्तु सच यह है कि यह पार्टी देश को आरएसएस के एजेंडा में निर्धारित दिशा में ले जा रही है. हमारे धर्मनिरपेक्ष-बहुवादी संविधान और आरएसएस के हिन्दू राष्ट्रवाद के बीच जो गहरी खाई है वह समय-समय पर सामने आती रही है.
गत 19 फरवरी को केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने संघ के विचारधारात्मक मार्गदर्शक एमएस गोलवलकर को उनकी जयंती के अवसर पर याद करते हुए एक ट्वीट किया. इस ट्वीट में कहा गया, “एक महान चिन्तक, अध्येता और विलक्षण नेता एमएस गोलवलकर को उनकी जयंती पर याद करते हुए. उनके विचार आने वाले पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत और मार्गदर्शक बने रहेंगे.” कहने की जरुरत नहीं कि शासक दल के नेताओं को इसमें कुछ भी गलत नजर नहीं आएगा क्योंकि वे गोलवलकर की विचारधारा में प्रशिक्षित हैं.
गोलवलकर सन 1940 से लेकर 1973 तक आरएसएस के सरसंघचालक थे. उन्होंने संघ की विचारधारा का खाका खींचते हुए दो पुस्तकें लिखीं “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” (1940) और “बंच ऑफ थॉट्स” (1966). उनकी विचारधारा, स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों के एकदम विपरीत थी. स्वाधीनता आन्दोलन और उसके समानांतर राष्ट्र के रूप में भारत के निर्माण की कवायद, धार्मिक विविधता पर आधारित थे. मुसलमानों का स्वाधीनता आन्दोलन में बराबर का योगदान था. इसके विपरीत, गोलवलकर नाजी जर्मनी और यहूदियों के साथ उसके अमानवीय व्यवहार को अनुकरणीय मानते थे.
वे लिखते हैं, “…हिंदुस्तान के गैर-हिन्दुओं को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी. उन्हें हिन्दू धर्म का सम्मान करना और उस पर श्रद्धा रखना सीखना होगा, उन्हें हिन्दू राष्ट्र की स्तुति के सिवा कोई और विचार मन में न लाना होगा, अर्थात उन्हें न केवल इस भूमि और उसकी प्राचीन परम्पराओं के प्रति असहिष्णुता और कृतघ्नता का भाव त्यागना होगा वरन प्रेम और निष्ठा का सकारात्मक भाव भी विकसित करना होगा. कुल मिलाकर, उन्हें विदेशी नहीं बने रहना होगा. अन्यथा, वे इस देश में हिन्दू राष्ट्र के अधीन रह सकते हैं. उनका किसी चीज पर दावा न होगा, वे किसी विशेषाधिकार या वरीयता के पात्र नहीं होंगे, उन्हें नागरिक अधिकार भी उपलब्ध नहीं होंगे.” (वी ऑर अवर…, पृष्ठ 52).
“बंच ऑफ थॉट्स” में यही बात कुछ अधिक चतुराईपूर्ण शब्दों में कही गयी है. “यह भ्रम पालना कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद वे रातों-रात देशभक्त बन गए हैं हमारे लिए आत्मघाती होगा. उलटे, पाकिस्तान के निर्माण से मुसलमानों का खतरा सौ गुना बढ़ गया है क्योंकि पाकिस्तान हमारे देश पर आक्रामक नजरें गड़ाने का अड्डा बन गया है.” (बंच ऑफ थॉट्स, बैंगलोर, 1996, पृष्ठ 177-78).
अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता आन्दोलन से आरएसएस पूरी तरह विलग रहा. इसका औचित्य समझाते हुए गुरूजी लिखते हैं, “भू-राष्ट्रवाद और सभी के लिए एक ही चीज खतरा होने के सिद्धांतों, जो राष्ट्र की हमारी अवधारणा का आधार हैं, ने हमें हमारे असली हिन्दू राष्ट्रवाद के सकारात्मक और प्रेरक तत्वों से वंचित कर दिया है और हमारे स्वाधीनता आंदोलनों को केवल ब्रिटिश-विरोधी बना दिया है. अंग्रेजों के विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पर्याय मान लिया गया है. इस प्रतिक्रियावादी सोच ने स्वाधीनता आन्दोलन पर घातक प्रभाव डाला है” (बंच ऑफ थॉट्स, 1996, पृष्ठ 138). उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के इच्छुक संघ के कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित किया और संघ के पदाधिकारियों को अपना रोजमर्रा का काम वैसे ही करते रहने का निर्देश जारी किया.
जन्म-आधारित जातिगत और लैंगिक पदक्रम की समाप्ति, भारत के राष्ट्र के रूप में उभार की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा थी. गोलवलकर जाति-वर्ण व्यवस्था के पूर्ण समर्थक थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था ने हमारे समुदाय का बहुत भला किया है. “बंच ऑफ थॉट्स” में वे लिखते हैं, “प्राचीन काल में भी जातियां थीं और हजारों सालों तक वे हमारे महान राष्ट्र के जीवन का भाग बनीं रहीं. ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जब उनसे हमारी प्रगति बाधित हुई हो या समाज की एकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा हो. सच तो यह है कि उन्होंने समाज को एकजुट रखने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.” इसी तरह, वे भगवान मनु को महानतम विधि निर्माता मानते थे. इसके विपरीत, अम्बेडकर ने ‘जाति के विनाश’ के अपने एजेंडा के अंतर्गत नुस्मृति का दहन किया था.
एक चिन्तक बतौर, गोलवलकर प्राचीन सामाजिक रिश्तों को फिर से बहाल करना चाहते थे. वे महिलाओं को पुरुषों के अधीन रखने के पैरोकार थे. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में, महिलाओं की बेहतरी के लिए सकारात्मक नीतियों के सन्दर्भ में वे लिखते हैं, ”अब महिलाओं की समानता और पुरुषों के वर्चस्व से उनकी मुक्ति को लेकर होहल्ला हो रहा है. शक्तिशाली पदों पर लिंग के आधार पर आरक्षण की बात हो रही है. जातिवाद, साम्प्रदायिकतावाद और भाषावाद की सूची में एक और वाद जुड़ गया है – लिंगवाद”.
अपनी विचारधारा के चलते वे देश के संघीय ढांचे के विरोधी थे. संघीय ढांचा, प्रजातंत्र को जड़ों तक ले जाने का उपक्रम होने के साथ-साथ स्थानीय विविधताओं को सम्मान देना का प्रयास भी है. वे एकात्मक राज्य के समर्थक थे. इन दिनों हम जो देख रहे हैं – केंद्र सरकार के हाथों में शक्तियों का केन्द्रीयकरण और एक सर्वोच्च नेता का उदय – वह उनके विचारों को अमली जामा पहनाये जाने के उदाहरण हैं.
उनकी पुस्तक ”वी ऑर अवर…” से किनारा करने के प्रयास भी हो रहे हैं क्योंकि उसमें जो बातें कहीं गयीं हैं वे सत्ताधारी दल के चुनावी हितों के खिलाफ हैं. परन्तु यहाँ हम यह याद दिलाना चाहेंगे कि आरएसएस के एक पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह ने अपने शपथपत्र में कहा था कि यह पुस्तक आरएसएस की विचारधारा को प्रस्तुत करती है. इस विचार – कि भारत हमेशा से एक हिन्दू राष्ट्र रहा है – को वैज्ञानिक आधार देने के लिए श्री एम.एस. गोलवलकर ने ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ शीर्षक पुस्तक लिखी थी, जिसका प्रकाशन 1938 में हुआ था (इस्लाम, अनडूइंग इंडिया द आरएसएस वे में उदृत).
हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के कितने बुरे दिन आ गए हैं कि हमारे देश पर शासन कर रहा दल एक ऐसे व्यक्ति के विचारों से प्रेरणा ले रहा है जो सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का मसीहा, जाति प्रथा और महिलाओं के दोयम दर्जे का समर्थक और ईसाईयों और मुसलमानों को विदेशी बताने वाला था. संस्कृति मंत्रालय के ट्वीट का सबसे उपयुक्त जवाब इसी मंत्रालय के एक पूर्व सचिव ने दिया. जवाहर सरकार ने लिखा, “भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा आरएसएस के मुखिया गोलवलकर की प्रशंसा को पढ़कर एक पूर्व संस्कृति सचिव बतौर मेरे सिर शर्म से झुक गया. गोलवलकर और आरएसएस ने गाँधी के स्वाधीनता संग्राम का विरोध किया था. अपनी बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर ने तिरंगे की भी खिलाफत की थी. सरदार पटेल ने उन्हें जेल में डाला था और आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया था.”
अगर हमें भारतीय संविधान के मूल्यों को जीवित रखना है, अगर हमें एक राष्ट्र के रूप में प्रगति करनी है तो हमें हर हाल में सांप्रदायिक चिंतकों को त्यागना ही होगा. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)