क्या इस्लाम लोकतंत्र के खिलाफ है ?

क्या इस्लाम लोकतंत्र के खिलाफ है ?

Dr Abhay Kumar

अभय कुमार

(समाज वीकली)- ब्रिटिश-अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड लुईस ने इस्लाम के बारे में कई गलत धारणाएं पैदा की हैं। साल 2018 में उनका निधन एक सौ एक साल की उम्र में हुआ। अपने लंबे अकादमिक करियर के दौरान इस प्राच्यवादी लेखक ने अनगिनत किताबें लिखी हैं और उनके सैकड़ों लेख आज भी पढ़े जाते हैं। उनके लेखन को अमेरिकी सत्ता बहुत ध्यान से पढ़ती थी और मुस्लिम देशों में अपनी योजना बनाते वक्त उसका उपयोग करती थी। सरल शब्दों में, बर्नार्ड लुईस ने पश्चिमी देशों के सत्ता वर्ग के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व किया और उसी लेंस से इस्लाम का अध्ययन किया। यही कारण है कि उनके जैसा प्रतिभाशाली शोधकर्ता सच्चाई को उजागर करने में असमर्थ रहा है। उन्होंने दुनिया भर में इस्लाम के खिलाफ भ्रम और पूर्वाग्रह पैदा कर दिया है।

इसी पूर्वाग्रह के कारण बर्नार्ड लुईस ने उदारवादी लोकतंत्र और इस्लाम के बीच तकरार को दर्शाया है। फरवरी 1993 में, उन्होंने “द अटलांटिक मंथली” जर्नल में “इस्लाम एंड लिबरल डेमोक्रेसी” शीर्षक से एक लेख लिखा। लुईस ने अपने लेख के आरंभ में कहा कि राजनीतिक दृष्टि से तुर्की को छोड़कर शेष मुस्लिम देशों में उदार लोकतंत्र नहीं पाया जाता है। अपने तर्क को सिद्ध करने के लिए लुईस ने मुस्लिम समाज में इस्लामी चरमपंथियों को संपूर्ण समाज के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया और कहा कि ऐसे तत्वों का मानना है कि मुसलमानों को सभी प्रकार के पश्चिमी विचारों जैसे समाजवाद, राष्ट्रवाद और उदारवाद को अस्वीकार कर देना चाहिए और उन्हें गैर-मुसलमानों के कानूनों और संस्थानों को अपनाने से बचना चाहिए।

लुईस ने कहा कि ऐसे चरमपंथी लोकतंत्र को इस्लामी समाज के लिए उपयुक्त भी नहीं मानते। संभव है कि इस्लामी समाज में कुछ व्यक्ति या कुछ संगठन ऐसे हों जिनकी राय लोकतंत्र के खिलाफ हो, लेकिन हर समाज में ऐसे तत्व पाए जाते हैं, जो नहीं चाहते कि लोग सशक्त हों। पश्चिमी दुनिया में ही लोकतंत्र और समानता के विरोधी दक्षिणपंथी समूह मजबूत हो रहे हैं। लेकिन कोई भी ईमानदार विद्वान ऐसे तत्वों को पश्चिमी देशों या सभ्यता का प्रतिनिधि नहीं मानता। लेकिन बर्नार्ड लुईस और उनके शिष्यों ने इस्लामी समाज के सबसे चरम तत्वों को ही इस्लाम के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत किया है।

लुईस के तर्क की दूसरी बड़ी कमजोरी यह है कि वह लोकतंत्र के उदय के लिए केवल “यहूदी-ईसाई धर्म और ग्रीको-रोमन शासन व्यवस्था और कानून” को श्रेय देना चाहते हैं। सरल शब्दों में, दुनिया भर में जो कुछ भी विकसित हुआ है वह यहूदी, ईसाई, ग्रीक और रोमन समाज के भीतर से आया है। लेकिन ऐतिहासिक सत्य यह है कि मानव विकास में संपूर्ण विश्व का योगदान रहा है। चीन, अरब, भारत, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों से भी काफी सकारात्मक काम हुए हैं। बर्नार्ड लुईस की संकीर्ण मानसिकता यह है कि वह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के योगदानों की सराहना करने को तैयार नहीं हैं।

हाई स्कूल के बच्चे भी जानते हैं कि एशिया यहूदी धर्म और ईसाई धर्म का जन्मस्थान था। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के बीच ज़्यादा समानताएं और अंतर कम हैं। जो मतभेद उभरे हैं उनका संबंध राजनीति से ज्यादा और धर्म से कम है। निष्पक्ष इतिहासकारों का यह भी कहना है कि पश्चिमी सभ्यता का उद्गम स्थल कहा जाने वाला ग्रीस कभी अफ्रीका का हिस्सा माना जाता था और उसके रिश्ते एशिया के देशों से ज़्यादा रहे हैं। नवजागरण, जिसे यूरोप के आधुनिकीकरण और विकास का पहला अध्याय माना जाता है, उसमें भी मुस्लिम लेखकों की बड़ी भूमिका है। उन्होंने ही यूनानी दार्शनिकों की रचनाओं का अरबी में अनुवाद करके उन्हें संरक्षित किया। इसी अरबी में महफूज रचना को पश्चिम के लेखकों ने पढ़ा और बाद में उनका अनुवाद यूरोपियन भाषाओं में किया जा सका।

मेरी यह हरगिज़ भी दलील नहीं है कि दुनिया का सारा विकास मुस्लिम देशों में ही हुआ है, या फिर सब कुछ सकारात्मक एशिया में हुआ। मेरी बर्नार्ड लुईस के शिष्यों से यही असहमति है कि वे एक ख़ास राजनीति के प्रभाव में आकर, विश्व के एक हिस्से को सभ्य, लोकतांत्रिक, उदार और प्रबुद्ध के रूप में चित्रित करते हैं और शेष विश्व को असभ्य और कट्टर कहकर बदनाम करते हैं।

स्मरण रहे कि “सभ्यताओं के बीच टकराव” की परिकल्पना सैमुअल पी. हंटिंगटन ने दी थी, लेकिन इसके पीछे बर्नार्ड लुईस की नकारात्मक सोच भी काम कर रही थी। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया में जिस तरह से इस्लाम को निशाना बनाया गया और उसे हिंसा और आतंकवाद से जोड़ा गया, उसमें बर्नार्ड लुईस और उनके शिष्य लेखकों की प्रमुख भूमिका रही है। बर्नार्ड लुईस के लेखन ने भी इस्लाम को उदारवादी लोकतंत्र के विरुद्ध खड़ा कर दिया है और मुस्लिम समाज के प्रतिक्रियावादी तत्वों को इस समाज का प्रवक्ता बना दिया है।

गहराई से देखें तो बर्नार्ड लुईस और उनके जैसे अन्य प्राच्यवादियों के लेखन की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे इस्लाम को एक बहुत ही अलग से धर्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं, ऐसा मानो जैसे इस्लाम का दुनिया के दूसरे धर्मों से कोई संबंध नहीं रहा हो। यह कोई अजीब सा धर्म हो। इसके मानने वाले सिर्फ़ और सिर्फ़ कट्टरवादी हो सकते हैं। उनके लिए इस्लाम की सच्चाई से बढ़ कर और कुछ नहीं है।

बर्नार्ड लुईस की लेखनी की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे मुस्लिम समाज के अंदर चल रहे मंथन को नज़रअंदाज़ करते हैं। वे इस बात को भी छुपा देना चाहते हैं कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के मूल सिद्धांत बहुत हद तक समान हैं। कौन नहीं जानता है कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम समाज में प्रबुद्ध और प्रतिक्रियावादी दोनों समूह हैं। लेकिन बर्नार्ड लुईस को मुस्लिम समाज में धार्मिक कट्टरता के अलावा कुछ नहीं दिखता। उन्हें वहां के मजदूरों, किसानों और महिलाओं के संघर्ष नज़र नहीं आते।

मुस्लिम समाज के भीतर समानता के लिए चल रही लड़ाइयों से भी उनका कोई खास मतलब नहीं है। औपनिवेशिक शक्तियों ने किस हद तक मुस्लिम देशों का शोषण किया है और लोकतांत्रिक मूल्यों को ठेस पहुंचाई है, यह बात बर्नार्ड लुईस के लेखन से पूरी तरह नदारद है।

बर्नार्ड लुईस और उनके जैसे अन्य प्राच्यविदों का लक्ष्य मुस्लिम समाज को यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता के ‘बिगाड़” के रूप में प्रस्तुत करना और उनके बीच राई जैसे मतभेदों को एक पहाड़ के रूप में प्रस्तुत करना है। किसी खास एजेंडे पर काम करने वाले लेखक कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के बीच संघर्ष का इतिहास बहुत छोटा है, जबकि उनके बीच सहयोग, सद्भाव का इतिहास बहुत लंबा है।

दुख की बात यह है कि फिलिस्तीन में जहां यहूदी शासक मुसलमानों को अपना दुश्मन मानकर उन पर हमला कर रहे हैं, वहीं वे यह नहीं समझना चाहते कि मुसलमानों ने हमेशा उनके साथ मित्रवत व्यवहार किया है और उन्हें मुस्लिम देशों में संरक्षण मिला है, जबकि उनके खिलाफ अत्याचार पश्चिमी देशों में होते रहे हैं। ऐसी ही नकारात्मक सोच लोकतंत्र को पश्चिम के देशों की इजारेदारी समझती है।

इतिहास गवाह है कि समय के साथ लोकतंत्र में बदलाव आया है। दो हजार साल पहले यूनान में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, वह आज के अमेरिकी और ब्रिटिश लोकतंत्र से काफी अलग है। भारत जैसा देश, जो दो सौ वर्षों तक उपनिवेशवाद का शिकार रहा, ने भी लोकतंत्र के तजुर्बे में सफलता हासिल की है। बहुत सारी कमियों के बावजूद, भारतीय लोकतंत्र ने यह साबित किया है कि औद्योगिक विकास और उच्च साक्षरता दर लोकतंत्र के लिए पूर्व शर्त नहीं हैं, बल्कि समानता के लिए आंदोलन लोकतंत्र की सफलता के पीछे असली ताकत है। यही वजह है कि भारत में वोट देने में सबसे ज़्यादा आगे इस देश का दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज रहता है। यह सवर्णों के मुकाबले में कम पढ़ा लिखा है और वह ज़्यादा गरीब भी है, मगर उसे बखूबी मालूम है कि लोकतंत्र उनके लिए मुक्ति का दरवाज़ा खोले हुए है।

श्रमिक और महिला आंदोलनों ने लोकतंत्र को मजबूत किया है। उनकी लड़ाइयों की वजह से ही मतदान का अधिकार सब को मिल पाया है, जो कल तक सिर्फ़ अमीरों तक ही सीमित था। आज भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। अमीर और ऊंची जाति के लोग इसके सिर पर बैठे हुए हैं, जिसके कारण कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यकों का हक मारा जा रहा है।

अन्य समाजों की तरह मुस्लिम समाज में भी लोकतांत्रिक शक्तियां बहुत मजबूत हैं, लेकिन दुनिया की औपनिवेशिक शक्तियां नहीं चाहतीं कि मुस्लिम समाज से कोई लोकप्रिय और ज़मीनी नेता उभरे। यही कारण है कि पश्चिम की प्रमुख शक्तियां हमेशा अपने हितों की पूर्ति के लिए सत्तावादी शक्तियों को परदे के पीछे से समर्थन देती रहती हैं और लोकतांत्रिक आंदोलनों को कमजोर करना चाहती हैं। इतिहासकार बर्नार्ड लुईस और उनके शिष्यों की संकीर्ण मानसिकता इन तथ्यों को बताना नहीं चाहती और इस्लाम के सिर पर लोकतंत्र की नाकामी का ठीकरा फोड़ना चाहती हैं।

(डॉ. अभय कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनकी पी.एच.डी. जेएनयू के इतिहास विभाग से मुस्लिम पर्सनल लॉ के विषय पर है। ईमेल: [email protected])

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