कोरोना से ज्यादा डर, पत्थर दिल हाकिमों से है…..

अभय कुमार

(समाज वीकली)

हम आज किस वक्त से गुजर रहे हैं? कभी सोचा न था कि मौत का इतना डर दिल में भर जाएगा। रात को नींद नहीं आती। कभी कभी सोने से भी डर लगता है। मोबाइल न खोलने का जितनी कसम खाता हूं, उतनी ही ज्यादा कसम टूट जाती है। रूम में पड़े पड़े कर भी क्या सकता हूं?

बार बार यह डर सताता है कि कहीं एक छोटा सा वायरस न जाने मुंह, नाक और आंख से अंदर चला जाए। वायरस क्या है, वह जिंदा होता है या मुर्दा, वह कब तक प्लास्टिक या किसी चीज पर सटे हुए जिंदा रह सकता है – इन सवालों का खुद से हल पाने के लिए मोबाइल पर रिसर्च करता हूं। उलझन सुलझने के बजाय और उलझती जाती है।

खौफ इस कदर बढ़ता जा रहा है कि बिस्कुट का पैकेट खोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं। कई बार उलझन में पड़ जाता हूं कि कहीं बिस्कुट को बेचते वक्त कहीं जाने अनजाने में वायरस चिपक तो नहीं गया है? भूख लगी है, लेकिन सोच रहा हूं कि बिस्कुट को कुछ दिन बाद ओपन करूं। तब तक वायरस खत्म हो गया होगा। बिस्कुट का रैपर प्लास्टिक का बना है। क्या वायरस प्लास्टिक के “सर्फेस” पर तीन दिन बाद मर जाता है? फिर नेट और सर्च करता हूं। कहीं इसे तीन दिन तो कहीं सात दिन बतलाया गया है। क्या मुझे बिस्कुट का रैपर सात दिन बाद फाड़ना चाहिए? इनसब उधेड़बुन में अभी भी मुबतला हूं। मुझ से कुछ ही मीटर दूर बिस्कुट का पैकेट भी पड़ा है। मगर अभी तक खोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं। हूं न मैं डरपोक?

आप में से बहुत सारे लोग मेरे बारे में यह कहेंगे। आप मुझे बुजदिल कह सकते हैं, मगर मेरे अंदर ऐसी ही कैफियत तारी है।रात को नींद नहीं आती। बीच बीच में काली चाय बना लेता हूं। वैसे दूध की चाय मुझे पसंद है। मगर दूध लेने के लिए बाहर जाना होगा। अभी हिम्मत नहीं है कि हर रोज घर से बाहर निकलूं। सब्जी और “ग्रॉक्सरी” का जरूरी सामान लेने के लिए चार रोज बाद घर से निकलता हूं। कोशिश होती है कि कम से कम बाहर निकला जाए और ज्यादा वक्त रूम में रहा जाए।

मगर जब बाहर जाता हूं तो सब्जीफरोश के बारे में सोचता हूं। मेरे किराए के कमरे से कुछ दूर एक अधेड़ उम्र का इंसान ठेले पर सब्जी बेचता है। उसका रंग सावला है। उसका कद लम्बा है और सेहत मंद दिखता है। बीड़ी भी पीता रहता है। मैं सब्जी के ठेले से दूर खड़ा रहता हूं। मास्क के ऊपर सूती का टॉवल भी लपेट लेता हूं। मुझे क्यों अपनी जान का इतनी डर है?

सब्जीफरोश भी तो इंसान है, वह क्यों दिन भर अपनी जान पर खेल कर बाहर रहने को मजबूर है? जब कहा यह जा रहा है कि महामारी अब हवा से भी फैल रही है, तो उसे क्या इसका खतरा नहीं है? ऐसे सवाल मेरे दिमाग में आते हैं, मगर इन का जवाब मेरे पास नहीं। लगता है “सिस्टम” ने गरीबी इंसान को मरने के लिए छोड़ दिया है।

सब्जीफरोश के साथ साथ घर घर “बॉटल्ड वाटर” पहुंचाने वाला शख्स भी खतरे से खेल रहा है। सुना है 20 लीटर पानी का जार रूम तक पहुंचने के लिए उसे दुकानदार सिर्फ 10 रुपया देता है। मेरे जैसे ग्राहक से वही दुकानदार 90 रुपया लेता है। मालूम नहीं पानी को फिल्टर करने वाली कंपनी को कितना बड़ा शेयर जाता होगा। मेरे कमरे तक पहुंचने में उसे कई दर्जन सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। 20 लीटर का बोझ लेकर ऊपर चढ़ना कोई आसान काम नहीं है। जब हमें खाली हाथ ऊपर चढ़ने में थकावट होती है और हमारी सांस फूल जाती है, तो सोचिए पानी का इतना बड़ा जार कंधे पर रखे इस मजदूर का क्या हाल होगा? क्या वह इंसान नहीं है? जानवर भी जो काम न कर पाए उसे हमारा सिस्टम एक इंसान से करवा रहा है।

रूम में बैठा मैं इन बातों को सोच रहा था। रात गुजर चुकी थी। जब कमरे की खिड़की से रोशनी आनी शुरू हुई तो लैंप को ऑफ कर दिया। एक इत्तेफाक यह है कि इन दिनों में एंजेल्स की किताब “फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी और ओरिजिन आफ स्टेट” पढ़ रहा हूं। आज सुबह तक तकरीबन 80 पेज से ज्यादा पढ़ चुका हूं। किताब की दलील एक हद तक सामने आ चुकी है। इस किताब में एंजेल्स यह कहना चाहते हैं कि सभ्यता यानी “सिविलाइजेशन” के आते आते महिलाओं के ऊपर मर्द का वर्चस्व स्थापित हो गया। यह “मोनोगोमस मैरिज”, दासता और निजी संपत्ति के साथ हुआ। सभ्यता के उभार के साथ, महिलाओं की यौनिक आज़ादी पर पाबंदी लगा दी गई। कामों का बंटवारा हुआ। महिलाएं अब उत्पादन के कामों से दूर कर दी गईं और उनके घरेलू कामों के बोझ से दबा दिया गया।

वहीं, मर्द अपनी सेक्सुअल जरूरत के लिए दीगर रास्ते अपनाते रहे और “प्रॉस्टिट्यूशन” उनकी जरूरत को पूरा करता रहा। मगर औरत अगर अपनी इस तरह की ख्वाहिश जाहिर करे, तो उसे दंड मिलता। इस तरह औरत की “सेक्सुअलिटी” पर पूरा कंट्रोल मर्दवादी समाज ने कर दिया। समाज पितृसत्तात्मक बन गया। निजी संपत्ति की खातिर महिलाओं को शोषण का शिकार बनाया गया, जो आज भी चल रहा है। हालांकि एक ज़माने में जब निजी संपत्ति की उत्पति नहीं हुई थी, जब दासता सामने नहीं आई थी, तब “कम्यूनल मैरिज” होती थी, जिस में बहुत सारे मर्द और औरत एक दूसरे से शादी करते थे और ईर्ष्या नाम की कोई चीज़ नहीं होती थी। सब कुछ औरत से मंसूब होता था। औरत बाद के दिनों की तरह गुलाम नहीं थी।

किताब पढ़ते वक्त फेसबुक पर किसी से मई दिवस का पोस्ट भी शेयर किया। मुझे लगता है कि समाज को बदलने में मार्क्सवाद हमें कई इनसाइट देता है। मार्सवाद की खूबी यह है कि यह बातों को इतिहास और उत्पादन के संदर्भ में देखता है। यहां कभी यह नहीं कहा जाता कि यह बात आप को आंख मूंद कर बात मान लेनी चाहिए। मगर यह भी हकीकत है मार्क्सवाद के बहुत सारे ठेकेदारों ने मार्क्सवाद को अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया है। कोई मार्क्सवाद को पढ़ कर राष्ट्रवाद को बचा रहा है, तो कोई मार्क्सवाद का झंडा थामकर देश की “रूलिंग क्लास” की सभा में जगह पाने को आतुर है।

इस बीच बिहार के एक बाहुबली नेता के निधन की खबर आई। फिर कुछ लोग उनको खिराजे अकीदत पेश करने लगे, तो दूसरे उनको कातिल कहने लगे। दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई हुई। तभी खबर आई कि नेता जी अभी जिंदा है।

यह सब देखकर मुझे काफी दुख हुआ। लोग किसी के मरने की खबर बगैर पुष्टि के कैसे आगे बढ़ा देते हैं? कुछ दिन पहले जेएनयू के एक पुराने स्टूडेंट के बारे में मौत की अफवाह उड़ गई। लोगों ने उनको सोशल मीडिया पर इतनी श्रद्धांजलि दी कि और उन्हें मरहूम का खिताब दिया कि उन्हें खुद अपनी मौत की खबर को नकारना पड़ा। एक पोस्ट फेसबुक पर डाल कर, उन्होंने ने कहा कि वह अपने परिवार से साथ कुशल हैं। इसी बीच मेरे एक दोस्त ने फेसबुक पर एक अच्छा पोस्ट डाला और नसीहत की “श्रद्धांजलि देने में लोग कुछ जायदा ही जल्दबाजी न दिखाएं”।

इनसब के बीच, में सोने की कोशिश कर रहा था। नींद आई जब जब दुनिया जाग चुकी थी। कुछ घंटे सोने के बाद दोपहर बाद नींद खुली। मोबाइल खोलने से पहले यही सोच रहा था कि इस बार लोगों की मौत की खबर न दिखे।

कल के मुकाबले आज मौत की खबर कम दिखी। अंदर से थोड़ी राहत मिली। मगर इसी बीच एक बड़ा ही मनसूस और दिल के टुकड़े टुकड़े कर देने वाली खबर पर नजर रुकी। खबर यह है कि दिल्ली के एक अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं होने की वजह से कई लोग मर गए, जिनमें एक डॉक्टर भी शामिल था।

दुख मौत से हुई। और इस बात से भी कि देश की राजधानी में ऑक्सीजन के बगैर कैसे जान जा सकती है? दूसरी तरफ, देश के बड़े नेता टीवी पर बोल रहे हैं कि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। यह बड़े शर्म की बात है कि बुलेट ट्रेन चलाने की बात करने वाला भारत के हाकिम अपने नागरिकों को उचित मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध कराने में नाकाम दिख रहे हैं। ऑक्सीजन पाने के लिए स्वर्ग जाने की जरूरत नहीं है, बल्कि कुछ कुछ करोड़ रुपए के कारखाने से पैदा किया जा सकता है। मगर यह भी नहीं हो पा रहा है। शायद देश के गरीब लोगों को कोरोना से ज्यादा डर, बेहिस और पत्थर दिल हाकिमों से है।

– अभय कुमार
जेएनयू
1 मई, 2021

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