कृपया लोहिया के लिए भारत-रत्न नहीं!!

डॉ. राममनोहर लोहिया

– प्रेम सिंह

(समाज वीकली)- 23 मार्च डॉ. राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910-12 अक्तूबर 1967) का जन्मदिन होता है। इस अवसर पर होने वाले आयोजनों में कुछ लोग उन्हें भारत-रत्न देने की मांग सरकार से करते हैं। इस बार भी किसी कोने से यह मांग दोहराई जा सकती है। इस संबंध में मैंने मई 2018 में एक टिप्पणी लिखी थी, जो इस लेख के परिशिष्ट में दी गई है। संदर्भ था बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से लोहिया को भारत-रत्न देने का अनुरोध। केवल तीन साथियों – राजकिशोर (स्वर्गीय), कुर्बान अली और पुष्करराज ने टिप्पणी में व्यक्त मत – वर्तमान सरकार/शासक-वर्ग द्वारा लोहिया को भारत-रत्न देना उनकी अवमानना होगी – से सहमति जताई थी। उनके 111वें जन्मदिवस पर लिखी गई इस टिप्पणी में अपने इस मत के समर्थन में निम्नलिखित दो कारण रखना चाहता हूं।

पहला : लोहिया नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों के कड़े हिमायती थे; और वे नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों को देश और दुनिया में लोकतंत्र की समृद्धि एवं मजबूती का मूलाधार मानते थे। नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों को लेकर उनकी यह मान्यता राजनीतिक जीवन के शुरुआत से थी। साथ ही उनके लिए नागरिक अधिकारों का मामला सैद्धांतिक-भर नहीं था; उनकी राजनीतिक  सक्रियता का ज्यादातर हिस्सा लोगों के नागरिक व लोकतांत्रिक अधिकारों/मांगों से जुड़े आंदोलनों में शामिल होने और जेल जाने में बीता। लोहिया ऐसे नेता हैं जिन्हें स्वतंत्र भारत में पराधीन भारत की तुलना में ज्यादा बार गिरफ्तार किया गया। यह स्वाभाविक था कि उपनिवेशवादी सरकार लोहिया जैसे स्वतंत्रचेता व्यक्ति पर झूठे आरोप लगाए और जेल में हद दर्जे की प्रताड़ना दे, लेकिन स्वतंत्र भारत की सरकार के शीर्ष नेताओं, पुलिस और अदालतों ने भी लोहिया पर झूठे, बेबुनियाद मामले बनाने और अभद्र व्यवहार करने में कमी नहीं रखी। स्वतंत्रता आंदोलन, गोवा मुक्ति आंदोलन, नेपाल के लोकतंत्रवादी आंदोलन समेत उन्हें 25 बार गिरफ्तार किया गया। 1964 में अमेरिका-यात्रा के दौरान नस्ल-भेद के खिलाफ प्रतिरोध करने पर भी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था। उस प्रसंग का बारीक विश्लेषण प्रोफेसर चंदन गौड़ा ने अपनी टिप्पणी ‘एन एपिसोड इन सिविल डिसओबिडिएंस‘ (बेंगलोर मिरर, 11 अप्रैल 2016) में किया है। लोहिया के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ किसी नेता अथवा ऐक्टिविस्ट की व्यक्तिगत स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था। उनका लक्ष्य व्यक्ति-स्वातंत्र्य के मूल्य को पूरी मानवता के स्तर पर अर्थवान बनाने का था। वे उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्ति हर भारतीय का लोकतांत्रिक अधिकार मानते थे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुई गिरफ़्तारी के बाद लोहिया लाहौर फोर्ट जेल में बंद थे। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल पर रिहा करने की अनुमति दी। उन्होंने पैरोल पर रिहाई स्वीकार नहीं की क्योंकि वे अपनी गिरफ़्तारी को गलत मानते थे। उनके पिता का अंतिम संस्कार उनकी अनुपस्थिति में संपन्न हुआ। वे अपने माता-पिता की अकेली संतान थे।

1936 में कांग्रेस द्वारा स्थापित इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन (आईसीएलयू), जिसके अध्यक्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर और कार्यकारी अध्यक्ष सरोजिनी नायडू थीं, के लिए लोहिया ने ‘द कांसेप्ट ऑफ सिविल लिबर्टीज’ नाम से एक पर्चा लिखा था। डॉ. कमल नयन चौबे ने इस पर्चे का कथ्य अपने लेख ‘नागरिक स्वतंत्रता, राज्य-दमन और डॉ. लोहिया‘ (‘युवा संवाद’, लोहिया विशेषांक, मार्च 2011) में सूत्रबद्ध किया है। हालांकि स्वतंत्रता के बाद खुद कांग्रेस उस पर्चे में उल्लिखित अपेक्षाओं और प्रतिज्ञाओं के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रही। लोहिया स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान और स्वतंत्र भारत में प्रतिरोध की गांधी द्वारा निर्दिष्ट अहिंसक कार्यप्रणाली (सिविल नाफरमानी) के प्रति अडिग थे और उसे मानव सभ्यता की अब तक की सबसे बड़ी क्रांति स्वीकार करते थे। केवल ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अथवा ‘अगस्त क्रांति’ के दौरान उन्होंने (जयप्रकाश नारायण के साथ) इस नीति में किंचित परिवर्द्धन किया था।

हिंसा का विकल्प सुरक्षित रख कर लोकतांत्रिक बनने का रास्ता लोहिया का नहीं था। वे शांतिपूर्ण प्रतिरोध में पारदर्शिता का भी कोई विकल्प नहीं स्वीकार करते थे। उनका समाजवादी क्रांति का विचार और उस दिशा में संघर्ष का तरीका लोकतंत्र की धमन-भट्ठी में ढल कर निकला था। लिहाजा, लोहिया का मानना था कि नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए संघर्ष अगर लोकतंत्र की चेतना और संस्थाओं को मजबूत करने की कला है, तो लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास रखना उसकी अनिवार्य शर्त है। क्योंकि इसी रास्ते संघर्ष करने वाले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता उस जनता के जीवन से जुड़े रह सकते हैं, जो लोकतंत्र का असली निकष है। लोहिया जनता पर थोपी जाने वाली अपरोक्ष तानाशाही के साथ जनता के नाम पर थोपी जाने वाली परोक्ष तानाशाही के भी खिलाफ थे।

लोहिया आजादी के लिए चलने वाले संघर्ष में क्रांतिकारी आंदोलन के विरोधी नहीं थे, क्योंकि क्रांतिकारी उसी रास्ते को सही मानते थे; और उसके लिए जीवन की कुर्बानी देने को तत्पर रहते थे। लेकिन लोहिया वीडी सावरकर जैसे ‘वीरों’ के हिमायती नहीं थे, जिनका चरित्र कायरता, कपट और षड्यन्त्र का समुच्चय था; सत्ता के दमन अथवा प्रलोभन के सामने जो शेर की खाल में छिपी भेड़ की तरह मिमियाने लगते थे। 23 मार्च भगत सिंह की शहादत का दिन है। इसीलिए लोहिया औपचारिक तौर पर अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे। जन्मदिन न मनाने का उनका फैसला क्रांतिकारी धारा के प्रति सम्मान का द्योतक है।

लोहिया की यह अलग विशेषता है कि वे नागरिक स्वतंत्रता के साथ व्यक्ति की  स्वतंत्रता के भी वैसे ही हिमायती थे। व्यक्ति की स्वतंत्रता चाहे सामंती ढांचे के तहत बाधित होती हो, या आधुनिक विचारधारा/व्यवस्था के तहत – लोहिया व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दमन स्वीकार नहीं करते थे। उनका मानना है कि मनुष्य का दिमाग हमेशा अन्वेषण की राह पर होता है। लिहाजा, कोई भी विचारधारा/संगठन परिपूर्ण नहीं हो सकते। वे विचारधाराओं और पार्टियों के आधार पर निश्चलता (स्टैगनेशन), गिरोह-बंदी और खुफियागीरी के खिलाफ थे। व्यक्ति-स्वातंत्र्य के मूल्य को उन्होंने अपनी सप्त-क्रांति की अवधारणा में स्थान दिया है। उनके चिंतन में खास तौर पर स्त्री की स्वतंत्रता पर बलाघात है। सप्त-क्रांति की अवधारणा में स्त्री-पुरुष समता के लक्ष्य को उन्होंने सबसे ऊपर रखा है। इस तरह लोहिया ने मनुष्य और नागरिक दोनों रूपों में स्त्री-पुरुष की सम्पूर्ण संभावनाओं को फलीभूत होने का अवसर प्रदान करने वाले आधुनिक राष्ट्र-राज्य, समाजवादी व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रणाली की परिकल्पना और वकालत की है। उनके द्वारा प्रस्तुत चौखंभा-राज्य की अवधारणा में भी केंद्रवादी वर्चस्ववाद के बरक्स विविध स्थानीयताओं/अस्मिताओं की स्वतंत्रता का विचार निहित है।

आजादी के समय से ही नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करने वाले कुछ ब्रिटिश-कालीन और कुछ नए कानून चले आ रहे थे। 1991 में नई आर्थिक नीतियां लागू किए जाने के बाद से देश में इस तरह के कानूनों का निर्माण और इस्तेमाल तेजी से बढ़ता गया है। वर्तमान मोदी सरकार के कार्यकाल में न केवल नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करने वाले कानूनों के निर्माण/संशोधन और इस्तेमाल में अभूतपूर्व तेजी आई है, सरकार ने नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए अथवा उनके तहत संघर्ष करने वाले संगठनों/लोगों पर दमनात्मक कार्रवाई की जैसे मुहिम छेड़ दी है। लोगों को गिरफ्तार कर देशद्रोह के मुकदमे दायर करना आम बात हो गई है। इस संबंध में नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि 2014 के बाद नागरिकों और संगठनों पर कायम किए गए देशद्रोह के मामलों में पहले के मुकबले खासी तेजी आई है। सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि लोकतांत्रिक प्रतिरोध के दमन में सीधे उच्च पदस्थ राजनैतिक नेतृत्व शामिल है।

लोहिया जैसे व्यक्ति के लिए, जिसने 1954 में प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाए जाने की एक घटना पर केरल की अपनी सरकार का इस्तीफा मांग लिया था (विस्तृत विवरण के लिए मेरा लेख ‘इंडिया टूवर्ड्स ए पुलिस स्टेट’ (काउन्टरकरेंटसडॉटऑर्ग, 7 अगस्त 2020) देखा जा सकता है), मौजूदा सरकार से भारत-रत्न की मांग करना; अथवा सरकार का उन्हें भारत-रत्न देना, लोहिया के सम्पूर्ण राजनीतिक चिंतन और कर्म की अवमानना कहा जाएगा।

दूसरा : यह कारपोरेट राजनीति का दौर है। यह राजनीति पार्टी चलाने से लेकर चुनाव लड़ने तक धन्ना सेठों के दान पर पलती है। अब दान का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की जरूरत कानूनन समाप्त कर दी गई है। सभी जानते हैं दान का यह धन उस अकूत मुनाफे से आता है, जो धन्ना सेठ सरकारों द्वारा औने-पौने दामों पर बेची जाने वाली राष्ट्रीय परिसंपत्तियों/संसाधनों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की खरीद और सरकार द्वारा बनाई जाने वाली उनकी हित-साधक नीतियों के चलते कमाते हैं। कारपोरेट राजनीति का यह करिश्मा गौरतलब है कि अब पदासीन प्रधानमंत्री तक कारपोरेट घरानों के मालिकों के साथ यारी और उनके सौजन्य से उपलब्ध सुविधाओं के इस्तेमाल को शान की बात समझते हैं। सरकार संसद में खुले आम सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर निजी क्षेत्र की वकालत करती है, और उसे जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाने की कोशिश में लगी है।

लोहिया आजाद भारत में राजनीति के ऐसे रूप की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उनका कोई बैंक खाता नहीं था। उनकी पार्टी समाजवादी क्रांति अथवा आंदोलनों के नाम पर विदेशी सरकारों/संस्थाओं से धन नहीं लेती थी। कहने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद और साम्यवाद के बरक्स समाजवाद के नए विचार की प्रस्तावना करने वाले लोहिया को याराना पूंजीवाद की धुर ताबेदार सरकार की तरफ से दिया गया भारत-रत्न उनके प्रति अन्याय ही होगा।

दरअसल, मौजूदा के अलावा किसी अन्य सरकार द्वारा भी लोहिया को भारत-रत्न देने का औचित्य नहीं बनता। अगर प्रतिरोध प्रदर्शन के समकालीन परिदृश पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्रदर्शन-स्थल पर लगाई जाने वाली अथवा आंदोलनकारियों द्वारा हाथों में उठाई जाने वाली तस्वीरों में गांधी, भगत सिंह और अंबेडकर आदि प्रतीक-पुरुष होते हैं; अपवाद स्वरूप भी लोहिया का शुमार उनमें नहीं होता है। इस संदर्भ में एक वाकये का जिक्र करना मुनासिब होगा। मैं नवंबर 2016 में सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में थिरुअनंतपुरम गया था। अधिवेशन के बाद कोचीन पहुंचा तो देखा डेमक्रैटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (डीवाईएफआई) के किसी आगामी जलसे के विज्ञापन के लिए कदम-कदम पर दूर-दूर तक अनेक प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध देशी-विदेशी नेताओं/विचारकों की बहुरंगी तस्वीरों के होर्डिंग लगे थे। महंगी तस्वीरों से पटे उस रंगारंग मेले में शायद ही कोई नेता या विचारक छूटा हो। मैंने अलपुजा तक सफर करके उन सभी तस्वीरों को गौर से देखा। स्वतंत्रता आंदोलन के दो महत्वपूर्ण नेताओं – आचार्य नरेंद्रदेव, लोहिया – की तस्वीरें उनमें नहीं थी। प्रदर्शन स्थलों पर होने वाले वक्ताओं के भाषणों/नारों में भी लोहिया का हवाला नहीं होता है।

यह ट्रेंड दर्शाता है कि नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों के आंदोलन चलाने वाले नागरिक समाज ऐक्टिविस्ट/राजनीतिक पार्टियां/संगठन इस विषय पर लोहिया के विचारों और नजरिए को प्रासंगिक नहीं मानते। ऐसा नहीं है कि वे लोहिया के विचारों और नजरिए को ज्यादा क्रांतिकारी मान कर अस्वीकार करते हैं। शासक-वर्ग सत्ता, चाहे वह ज्ञान की हो या राजनीति की, के तंत्र से लोहिया को बेदखल रखना चाहता है। क्योंकि वह न सामंतवाद-ब्राह्मणवाद के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़ना चाहता है, न पूंजीवाद के खिलाफ।

इस चर्चा को ज्यादा न बढ़ाते हुए यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि क्या लोहिया को भारत-रत्न देने की पात्रता रखने वाली सरकार कभी संभव होगी? यानि ऐसी सरकार जो कम से कम नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों के मामले में लोहिया के विचारों और नजरिए को काफी हद तक मानती हो। लोहिया की अपनी पार्टी – सोशलिस्ट पार्टी – का चार दशकों के उतार-चढ़ावों के बाद 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया था। 2011 में हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना का अत्यंत देरी से किया गया आधा-अधूरा प्रयास सफल नहीं हो पाया। तब तक भारत के सार्वजनिक जीवन में कारपोरेट राजनीति अपने पांव ही नहीं जमा चुकी थी, दांत भी गड़ा चुकी थी। ज्यादातर समाजवादी कारपोरेट राजनीति का हिस्सा बन चुके थे। इस सब के मद्देनजर सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि लोहिया मौजूदा ही नहीं, किसी भी सरकार में भारत-रत्न के लिए एक अयोग्य प्रतीक-पुरुष हैं।

परिशिष्ट: लोहिया, भारत-रत्न और सौदेबाज़ समाजवादी

  किसी क्षेत्र में विशिष्ट भूमिका निभाने वाले व्यक्ति के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए अक्सर कहा जाता है कि वह अपने विचारों और कार्यों के रूप में दुनिया में जीवित रहेगा. यह भी कहा जाता है कि उसके विचारों और कार्यों को समझ कर उन्हें आगे बढ़ाना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी. कहने में यह भली बात लगती है. लेकिन, विशेषकर सक्रिय राजनीति में, दिवंगत व्यक्ति का अक्सर सत्ता-स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होता है. अनुयायी प्रतिमा-पूजा करते हुए और और विरोधी प्रतिमा-ध्वंस करते हुए दिवंगत नेता के विचारों और कार्यों को अनेकश: विकृत करते हैं. यह भी होता है कि विचारधारा में बिल्कुल उलट प्रतीक-पुरुषों को सत्ता-स्वार्थ के लिए बंधक बना लिया जाता है. प्रतीक-पुरुषों की चोर-बाज़ारी भी चलती है. इस तरह प्रतीक-पुरुषों के अवमूल्यन की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है, जो बाजारवाद के दौर में परवान चढ़ी हुई है. अफसोस की बात है कि दिवंगत व्यक्ति अपना इस्तेमाल किये जाने, विकृत किये जाने, बंधक बनाए जाने या चोर-बाजारी की कवायदों को लेकर कुछ नहीं कर सकता. शायद यही समझ कर डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी नेता के निधन के 100 साल तक उसकी प्रतिमा नहीं बनाई जानी चाहिए. ज़ाहिर है, लोहिया की इस मान्यता में प्रतिमा पद प्रतीकार्थक भी है.   

 डॉ. राममनोहर लोहिया को गुजरे अभी 50 साल हुए हैं. ऊपर जिन प्रवृत्तियों का ज़िक्र किया गया है, कमोबेस लोहिया भी उनका शिकार हैं. इधर उन्हें भारत-रत्न देने की मांग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की है. 2011-12 में लोहिया के जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर भी कुछ लोगों ने उन्हें भारत-रत्न देने की मांग रखी थी. लोहिया के विचारों, संघर्ष और व्यक्तित्व का ज़रा भी लिहाज़ किया जाए तो उनके लिए सरकारों से किसी पुरस्कार की मांग करना, या उनके नाम पर पुरस्कार देना पूरी तरह अनुचित है. लोहिया आजीवन राजनीति में रहते हुए भी राज-पुरुषनहीं थे. दो जोड़ी कपड़ा और कुछ किताबों के अलावा उनका कोई सरमाया नहीं था. कहने की ज़रुरत नहीं कि उनका चिंतन और संघर्ष किसी पद या पुरस्कार के लिए नहीं था. सौदेबाज़ समाजवादी नव-साम्राज्यवाद की गुलाम सरकार से लोहिया को भारत-रत्न देने की मांग करके मृत्योपरांत उनका अपमान कर रहे हैं.

 देश में बहुतायत में सौदेबाज़ समाजवादी हैं. ये लोग भारतीय समाजवाद के प्रतीक-पुरुषों का जहां -तहां सौदा करते हैं. एनजीओ से लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और सरकारों तक इनकी आवा-जाही रहती है. नीतीश कुमार उनमें से एक हैं. पिछले दिनों वे मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में लोहिया स्मृति व्याख्यान में शामिल हुए थे. यह स्मृति व्याख्यान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दिया था. पिछले साल गृहमंत्री राजनाथ सिंह यह व्याख्यान दे चुके थे. हो सकता है नीतीश कुमार ने उस अवसर पर राष्ट्रपति महोदय से लोहिया को भारत-रत्न दिलवाने के बारे चर्चा की हो. और हो सकता है राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें यह मांग प्रधानमंत्री से करने की सलाह दी हो.

 गांधी और अंबेडकर के विचारों और कार्यों से आरएसएस/भाजपा का कोई जुड़ाव नहीं है. लेकिन नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार सत्ता के लिए उनका निरंतर इस्तेमाल कर रहे हैं. लोहिया ने आरएसएस को भारतीय संस्कृति के पिछवाड़े पड़े घूरे पर पलने वाला कीड़ा कहा है. अंबेडकर लोहिया से बीस वर्ष बड़े थे. लोहिया के अंबेडकर विषयक उल्लेखों से यह ध्वनि निकलती प्रतीत होती है कि वे उन्हें कुछ मायनों में गांधी के बाद भारत का सबसे बड़ा आदमी मानते थे और सांगठनिक एवं विचारधारात्मक दोनों स्तरों पर उनके साथ एका कायम करना चाहते थे. (संदर्भ: अंबेडकर के निधन के बाद लोहिया का मधु लिमये को लिखा गया ‘कास्ट सिस्टम’ में संकलित पत्र) लोहिया की यह भी इच्छा थी कि अंबेडकर पूरे भारतीय समाज का नेतृत्व करें. ध्यान दिया जा सकता है कि लोहिया के अंबेडकर के बारे में ये विचार उस समय के हैं जब वे वोट बैंक की चाबी नहीं बने थे, और इस नाते उन पर कब्जे की जंग नहीं छिड़ी थी. बहरहाल, आगामी 12 अक्तूबर को संभव है भारत-रत्न देकर लोहिया को नई साम्राज्यशाही की ताबेदारी में बड़ा आदमीबना दिया जाए! सौदेबाज़ समाजवादी इसे अपनी बड़ी उपलब्धि बताएँगे. गांधी और अंबेडकर अगर नरेंद्र मोदी के महल में बंधक पड़े हैं, तो इसमें सौदेबाज़ गांधीवादियों और सौदेबाज़ अंबेडकरवादियों की कम भूमिका नहीं है.    

 कई बार लगता है इंसान साधारण जीवन जीकर ही दुनिया से विदा ले तो बेहतर है. मानवता के लिए जीने वाले लोग अक्सर दुर्भाग्यशाली साबित हुए हैं. वे जीवनपर्यंत कष्ट पाते हैं, और मृत्यु के बाद भी उनकी मिट्टी खराब होती है! बाजारवाद के इस भयानक दौर में पुरखों की खाक के सौदागर गली-गली घूमते है!! वे पुरखों की खाक के साथ राष्ट्रीय धरोहरों का सौदा भी कर रहे हैं!!!

 (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)

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