ऐसे थे आदिवासियों को बेगार प्रथा से मुक्ति दिलाने वाले, मामा बालेश्वर दयाल

(समाज वीकली)

26 दिसम्बर पुण्य तिथि पर विशेष

– रामस्वरूप मंत्री

आजाद भारत में शायद ही एसा कोई राज नेता हो जिसकी पुण्यतिथि पर हजारों आदिवासी जुटते हो और उन्हें भगवान की तरह पूजते हो ।मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के आदिवासी अंचल से हजारों की संख्या में 25 दिसम्बर से 27 दिसम्बर तक हरवर्ष जुटते है हजारों आदिवासी मामा जी के आश्रम बामनिया में । हालांकि इस वर्ष कोरोना महामारी के चलते अधिकृत रूप से कोई बड़ा आयोजन होने वाला नहीं है लेकिन फिर भी बांसवाड़ा गुजरात और झाबुआ के ग्रामीण अंचलों से हजारों की तादाद में आदिवासी फिर भी बामनिया पहुंचेंगे।

पूरे अंचल में उनकी सेकंडो मुर्तिया स्थापित है। जहां आदिवासियों को मानता करते देखा जा सकताहै। पश्चिम भारत के आदिवासी बहुल, झाबुआ, धार, रतलाम, दाहोद, बाॅंसवाड़ा, डूॅंगरपुर जि़लों के लाखों आदिवासियों की आज़ादी गाॅंधी से नहीं बल्कि, मामा जी की आंॅधी से आई। जिन्हे राजाओं के शोषण, वेठ बेगार, नशा खोरी, पुलिस, पटवारी और फ़ौरेस्ट की तानाशाही और दमन जैसी सैंकड़ों दैनिक समस्याओं से लड़ने का साहस दिया मामा जी नें। इज़्जत से जीने का ढंग दिया और इस पूरे क्षेत्र को एक अलग राजनैतिक पहचान दी। इस आॅंदोलन का लाल झण्डा पुलिस, पटवारी और फ़ाॅरेस्ट गार्ड को आदिवासियों के घरों से दूर रखता था।

मामा बालेश्वर दयाल का राजनैतिक जीवन इटावा (उत्तर प्रदेश) में स्कूल में पढ़ते समय ही गाॅंधी के अहिंसक आॅंदोलन की व्यापकता और का्रंतिकारी आॅंदोलन की उग्रता के बीच अंकुरित हुआ। 1923 में उन्हे स्कूल से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने अपने अंग्रेज़ अध्यापक को पीट दिया था जो गाॅंधी के खि़लाफ़ बोल रहा था। पिता की डांट के डर से उज्जैन के एक दोस्त के मामा के घर चले गये। कुछ दिन वहां एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी करी। केरल में गुरूवायुर मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलवाने के आंदोलन से प्रभावित होकर यहाॅं भी उन्होने एक मंदिर में दलितों से प्रशाद बॅंटवाने की कोशिष की। कुछ ही समय में यहाॅं से भी भागना पड़ा।

1931 में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के बाद उनकी माॅं से मिलने झाबुआ के भाबरा गाॅंव, यह सोचकर गये कि उनकी माॅं अकेली होगी। वहाॅं उनकी मुलाकात आज़ाद के एक बचपन के साथी – भीमा से हुईं। भीमा के साथ भाबरा में रहकर काम करने का निर्णय ले लिया। 1932 में झाबुआ जि़ले के थांदला के एक स्कूल में हैड मास्टर की नौकरी पाकर वहां आ गये। धीरे धीरे जिले के भीलों के बीच इतने रम गये कि यहीं अपना घर बना लिया और पूरा जीवन बिता दिया।

1939 में मामा जी पास के, इंदौर रियासत के गाॅंव, बामनिया आ गये – जो अॅंत तक उनका निवास स्थान और आंदोलनों का केन्द्र रहा। बामनिया में इन्होने एक डूंगर विद्यापीठ नामक स्कूल शुरू किया जिसमें आदिवासी बच्चों को अपने साथ रख कर पढ़ाना शुरू कर दिया। स्कूल में पन्द्रह बच्चे चुन चुन कर रखे थे – ष्जिनकी दाढ़ी मूछ अभी नहीं निकली थी, कुछ लड़कियों को भी रखाश्। इन्हे पढ़ने लिखने के साथ साथ राजनीति के क – ख की शिक्षा दी। अर्जियां लिखना सिखाया और सरकारी नियम कानूनों की जानकारी दी। लोगों से सम्पर्क कर उनकी समस्याओं को समझना सिखाया। जब ये पन्द्रह प्यारे कुछ बड़े हो गये तो इन्हे पूरे आदिवासी क्षेत्र में स्कूल खोल कर वहाॅं भेज दिया। झाबुआ, धार, रतलाम, बांसवाड़ा, डूंगरपुर आदि जि़लों में स्कूल खोले गये। इन्ही पन्द्रह शिक्षकों नें अपने छात्रों को साथ लेकर मामा जी के संदेश का पूरे इलाके में प्रचार किया। मामाजी नें इस काम को लंबे समय तक चलाने की दृष्टि से संसद से लेकर गाॅंव तक का संगठनात्मक ढांचा तैयार किया। इन पन्द्रह प्यारों में से अधिकांश, आगे चलकर विधायक और सांसद बने। आगे चलकर इन्होने ही मामा जी की जन जागृति की आग को सात आठ जि़लों में फैला दिया।

इस इलाके के भील स्थानीय राजाओं की वेठ बेगार से बहुत त्रस्त थे। राजा का नियम था कि चोखियार – उच्च जाति के लोग – को बेगार माफ़ थी। मामा जी नें तिकड़म लगाई और पुरी के शंकराचार्य से मिलकर आदिवासियों को जनेउ पहनाने की अनुमति ले ली। शंकराचार्य का आदेश आया कि दारू मास छोड़ो और जनेउ पहनो। बस मामा जी ने इंदौर के कृष्ण कांत व्यास से कहकर इस बात के तीन लाख परचे छपवाये। गांॅव गाॅंव में खबर पहुंॅचाई। प्रचार का ज़बरदस्त असर हुआ और हज़ारों की संख्या में आदिवासी दूर दूर से बामनिया आने लगे। जनेउ पहन कर आदिवासियों को राजा की बेगार नहीं करनी पड़ती थी हालाॅंकि इसके लिये लोगों को गांव गांव में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। बेगार विराधी आॅंदोलन इस भील क्षेत्र की बारह रियासतों में फैल गया। बेगार के साथ साथ अकाल के समय में जबरन कर वसूली के विरोध में भी आंदोलन छेड़ा।

राजाओं व कर्मचारियों की दमनकारी नीतियों का विरोध करने के साथ मामा जी ने सामाजिक मुद्दों पर भी काम किया। भीलों में नशाबंदी का लंबा आॅंदोलन चला। शराब पीने में आई कमी के चलते राजा की शराब के ठेकों से आमदनी बहुत कम हो गई। मामा जी की इन हरकतों के कारण राजाओं और पादरियों नें मिलकर मामा जी की शिकायतें करीं जिसके फल स्वरूप 1942 में महू के रेसीडेन्ट नें उन्हे इस क्षेत्र की नौ रियासतों से देश निकाला करने का आदेश दे दिया। कुछ दिन मामाजी को इंदौर की छावनी जेल में रखा गया। बाद में अहमदाबाद के एक होटल में पुलिस पहरे में रखा गया। मामा जी को जब पता चला कि सरकारी खर्च पर उन्हे होटल में रखा गया है तो उन्होने बामनिया बांसवाड़ा और कुशलगढ़ के लोगों को मिलने के लिये बुला लिया। बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आने लगे। होटल का खर्च इतना बढ़ गया कि सरकार नें उन्हे छोड़ दिया। छूटने के बाद वे दाहोद में रहने लगे।

माताजी ने जागीरी प्रथा और राजाओं की वेठ बेगार के खि़लाफ़ ज़ोरदार आंदोलन छेड़ दिया। कश्मीर में हुई – देशी राज्य परिषद बैठक में नेहरू नें इन्हे बुलाया। वहांॅ मामाजी नें जागीरी प्रथा के कारण आदिवासियों की बर्बादी की कहानी नेहरू को सुनाई। उनकी बातें सुनकर नेहरू नें कहा – .‘‘स्वतंत्रता की पहली किरण के साथ ही जागीरें ख़त्म की जायेंगी’’। इस कथन अनुसार मामाजी नें सारे इलाके में पर्चे छपवा कर बंटवा दिये। परन्तु देश आज़ाद होने के बाद सारे जागीरदार काॅन्ग्रेस में शामिल हो गये। और जागीरें ख़त्म करने की बात को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।

नेहरू को याद दिलाने पर भी, कुछ न होता देख मामाजी ने काॅन्ग्रेस से स्तीफ़ा दे दिया और जागीरदारों को लगान न देने का आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन में आदिवासी भारी संख्या में उमड़ पड़े। छः महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा। 1949 में इसी संबंध में एक मीटिंग करके उदयपुर से लौटते समय मामाजी को रेल रोक कर गिरफ़तार कर लिया गया। साढ़े आठ महीने उन्हे टोंक जेल में रखा गया। बाहर लोगों का आंदोलन ज़ोर पर था। आंदोलन की खबरें अखबारों में छप रहीं थीं। यह अनूठा उदाहरण है जहाॅं एक स्वतंत्रता सेनानी आज़ादी के बाद भी जेल में था।

खबर पढ़कर समाजवादी पार्टी के जयप्रकाश नारायण ने बामनिया आकर मीटिंग की। उनकी मीटिंग से इस क्षेत्र में इस पार्टी का प्रचार हो गया और लोगों नें इसकी निशानी स्वरूप लाल टोपी पहननी शुरू कर दी। धीरे धीरे यह लाल टोपी मामा जी के आंदोलन की पर्याय बन गई। सरकारी कर्मचारी व शहरवासी, मामा जी से जुड़े लोगों को लाल टूपिया कहने लगे और इन्हे अब काॅंग्रेस की सफ़ेद टोपी का विरोधी के रूप में देखा जाने लगा।

खैर, इस तरह मामा जी की बात भारत के प्रथम वाइसराॅय श्री राजागोपालचारी तक पहंुची और उन्होने इस क्षेत्र की रियासतों को खारिज करने का एक आदेश जारी कर दिया और मामा जी को भी रिहा करवा दिया।

आदिवासियों में आई इस जन जागृति को मामा जी ने मुख्यधारा की राजनीती से जोड़ा जिसके फलस्वरूप आज़ादी के बाद के पहले आम चुनावों में इस पूरे क्षेत्र में मामा जी से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ता विधायक और सांसद चुने गये। 1952 के पहले मध्य प्रदश विधान सभा चुनाव में झाबुआ की पाॅंचों सीटों से समाजवादी कार्यकर्ता जीते। इनमें जमना देवी भी थीं जो बाद में उप मुख्य मंत्री भी बनीं। राजस्थान में जसोदा बहन विधान सभा में जाने वाली पहली महिला विधायक थीं। सन् 71 में जब पूरे देष में इंदिरा गाॅंधी की लहर थी, बाॅसवाड़ा में मामा जी के सहयोगी 45 हज़ार वोट से जीते थे। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि मामा जी नें समाजवादी पार्टी को देश के इस आदिवासी क्षेत्र में पहचान दिलाई।

पश्चिम भारत के इन जि़लों की खासियत यह है कि यहाॅं अधिकांॅश आदिवासी रहते हैं और थोड़े बहुत अन्य जातियों के लोग गाॅंवों से घिरे छोटे छोटे बाज़ारों में रहते हैं। इसीलिये आदिवासी इन्हे बज़ारिया या शहरिया भी कहते हैं। आदिवासी बहुल इलाके होने के बावजूद यहाॅं चलती इन्ही गिने चुने बज़ारियों की थी जो कि अधिकतर दुकानदार, साहूकार, वकील या सरकारी कर्मचारी या सरकारी दलाल होते थे। ये बाज़ार पूरी तरह आदिवासियों के शोषण पर पनपते हैं। इसीलिये आदिवासियों में जागृति कि ज़रा सी गंध आते ही ये लोग इसे कुचलने में लग जाते हैं। आदिवासियों को तोड़ने में शराब की ऐतिहासिक भूमिका रही है।

इसी बात को समझते हुए मामाजी ने शराब बंदी को बहुत महत्व दिया। 1954 में दारू बंदी आंदोलन फिर से ज़ोर शोर से शुरू हुआ। मामा जी को फिर से देश निकाला हो गया और उन्हे गुजरात जाकर रहना पड़ा। इस आंदोलन में महिलाओं नें बहुत सक्रिय भूमिका निभाई। महिला विधायकों ने इस मुद्दे को उठाया। रैली और सत्याग्रह हुए। धीरे धीरे सत्याग्रह जेल भरो आंदोलन में परिवर्तित हो गया। आदमी जेल जाने के लिये स्वैच्छा से तैयार होते थे और महिलाएॅं उन्हे गीत गाते हुए जेल तक छोड़ने जाती थीं। झाबुआ से इंदौर तक पदयात्रा कर, वहाॅं भी सत्याग्रह किया गया। आंदोलन सफ़ल हुआ और शराब की दुकाने बंद कर दी गईं।

झाबुआ और पड़ोस के जि़लों की एक और चुनौती थी वहां की चोरी चकारी। चोरी के लिये भील बहुत बदनाम थे। हालाॅकि यह काम राजनैतिक व पुलिस संरक्षण में होता था, उनका मानना था कि धंधे के अभाव में हीं चोरियां होती हैं। मामा जी नें इनके लिये धंधों की एक सूचि बनवाई जिसमें 712 छोटे मोटे धंधे निकले जो यहां किये जा सकते थे परन्तु यह काम बहुत आगे नहीं जा सका। रोज़गार की तलाश में उन्होने जंगल पर आदिवासियों के हक की मुहीम छेड़ी। आदिवासी इलाकों में वन विभाग का बहुत आतंक रहता है। इसके विरोध के लिये उन्होने लोगों को तैयार किया। पुराने लोगों से बहुत किस्से हमने सुने जहाॅं वे वनकर्मियों से भिड़ गये क्योंकि लाल टोपी का नियम था कि कर्मचारी के साथ दोस्ती नहीं करना, उन्हे रिश्वत नहीं देना। एक बुज़ुर्ग ने तो हमें अपनी टाॅंग और पीठ में अब तक गड़े छर्रे भी दिखाए जो वनकर्मियों की बंदूक से उसे लगे थे। इस मुहीम के चलते आदिवासी ठेकेदारों द्वारा साफ़ की गई जंगल ज़मीन पर खेती कर सके, दैनिक ज़रूरतों के लिये लकड़ी ला सके और वनोपज भी इकठ्ठा करने लगे।

साठ के दशक तक मामा जी ने राजस्थान, म.प्र. व गुजरात के सीमावर्ती इलाकों के भीलों के लिये एक पूज्य गुरू का रूप धारण कर लिया था। लोग उनसे अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलवाने लाते थे। सम्मेलनों में एक एक रूप्या चंदा करते थे।

अपने समय के समाजवादी नेताओं से परे मामाजी का ज़ोर लोगों के बीच रहकर उनकी समस्याओं के लिये संघर्ष करना था। बुद्धिजीवत्व में उनका बहुत विश्वास नहीं था परन्तु विचारों के फैलाव का महत्व वे बखूबी समझते थे। एक समय वे समाजवादी पत्रिका, चौखम्बा के सम्पादक मण्डल के अध्यक्ष भी रहे। उन्होने, गोबर नाम की एक पत्रिका भीली भाषा में भी निकाली।
196में डा लोहिया के कहने पर मामा जी को समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। इमरजेन्सी के दौरान जेल गये और 1978 में राज्य सभा सदस्य रहे।

अपने जीवन में मामाजी नें सैंकड़ों आंदोलन छेड़े जो लोगों की जि़न्दगी के दैनिक मुद्दों से जुड़े थे। उस समय के सारे नेताओं से उन्हे यही बात अलग करती है कि वे पूरी तरह लोगों के दिलों से जुड़े हुए थे। और देश आज़ाद होने के बाद जब सब कुर्सी की होड़ में थे तब मामाजी सत्ता से बहुत दूर लोगों के मुददों को लेकर आंदोलनरत थे।

इतने बड़े इलाके में, इतने लम्बे समय तक आंदोलन चलाने वाले मामा बालेश्वर दयाल ने कुछ निजी सम्पत्ती इकठ्ठी नहीं की। बामनिया में एक भील आश्रम बनाया गया चंदे से जहाॅं वे रहते थे। सादे सूती कपड़े। सादा रहन सहन और बहुत ही आत्मीय और सरल व्यवहार। अंतिम समय में मित्रों ने बहुत कहा कि दिल्ली के बड़े अस्पताल में इलाज के लिये आ जाइये परन्तु वे नहीं माने। उनका आग्रह था कि जो स्वास्थ्य सुविधा अन्य आदिवासियों को मिल रही हैं वे उसी के भरोसे इलाज करवायेंगे। अंत तक उन्होने अपना क्षेत्र नहीं छोड़ा।

मामा जी को भीलों का गाॅंधी कहा जाये तो कुुछ गलत न होगा। जिस तरह गाॅंधी, स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिये जाने गये उसी तरह भीलों के लिये तो राजाओं और कर्मचारियों की तानाशाही से आज़ादी इस लाल टोपी आंदोलन से ही आई। 26 दिसम्बर 1998 को इन्होने अपनी 86 वर्ष की लम्बी पारी समाप्त की।
आज के इस दौर में जहाॅं आम आदमी के नाम पर बहुत कुछ कहा सुना जा रहा,मामाजी की याद रह रह के आती है।
(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सोशलिस्ट पार्टी मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हैं)

रामस्वरूप मंत्री
प्रदेश अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी मध्यप्रदेश
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