(समाज वीकली)- नानक जैसे संतों की राह ब्राह्मणवाद से संघर्ष की राह मानी जाती है। गुरु ग्रंथ साहब में दलित-मुस्लिम संतों की वाणी शामिल है। शुद्धतावादी हिंदुत्व का आग्रही दयानन्द अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश में नानक और दलित संतों को घृणा की नज़र से देखता है। पंजाब में सिखों के जनांदोलन बार-बार ब्राह्मणवादी सत्ताओं की आँखों की किरकिरी बनते रहे हैं।
ये सारी बातें सही हैं पर यह क्या कि हिन्दी के बुद्धिजीवी चरनजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री घोषित हो जाने के बाद उनके बारे में प्रसारित ख़बरों पर हैरत जताएं कि सिखों में भी दलित होते हैं।
जी। सिख हो जाने वाली ताक़तवर जातियाँ अपनी जगह कहाँ छोड़ती हैं? मजहबी, रामदासिये, सिकलीगर, कबीरपंथी आदि सिख पंजाब के जाट (जट्ट) सिख और ग़ैर जाट सिख के बाहर की अछूत जातियों के समुदाय रहे हैं। जिन डेरों को पंजाब की कमज़ोर जातियों का माना जाता है, उनमें से भी कई पर ताक़तवर जाति के ही गुरु/बाब्बे काबिज हैं।
बहरहाल, यह भी सच है कि सिख धर्म अपने मूल में ब्राह्मणवाद विरोधी है। उसकी यह ख़ासियत ब्राह्मणवाद को कभी बर्दाश्त नहीं हुई। लाला जगतनारायण परिवार और उनके पंजाब केसरी की बात छोड़िए, हिन्दी वालों के पुरोधा व प्रातः स्मरणीय राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी यूँ ही सिखों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक अभियान नहीं चला रहे थे। एक ताक़तवर ब्राह्मणवादी सत्ता की उपस्थिति के बावजूद पंजाब से किसान आंदोलन खड़ा हो पाने की एक वजह वहाँ ब्राह्मणवादी संस्थाओं का वैसा प्रभाव नहीं होना और इस वजह से दूसरे राज्यों की तरह हिन्दू-मुसलमान खेल हावी न होना भी मानी जाती है।
बेशक़, कुछ ऐतिहासिक टकराव और देश के बँटवारे के दौरान के हालात सिखों में एंटी-मुस्लिम सेंटीमेंट्स की जगह बनाते हैं और इन सेंटीमेंट्स का साम्प्रदायिक इस्तेमाल भी होता रहा है पर कोई एक चीज़ है कि यह हिन्दी पट्टी के भीतर जैसी नफरत में तब्दील नहीं हो पाती। सिखों के लंगर एनआरसी-सीएए विरोधी आंदोलन में भी चलते हैं। भाजपा से आया नवजोत सिद्धु तक पाकिस्तान से दोस्ती की मशाल उठा सकता है। यह विडम्बना तो है ही कि कैप्टन अमरिंदर अचानक आरएसएस की भाषा बोलने लगे या बादल परिवार अकाली राजनीति करते हुए हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा का लम्बे समय तक हमराह बना रहे।
महमूद ओ अयाज़ के एक सफ़ में खड़े होने पर बंदा और बंदानवाज़ का फ़र्क़ मिट जाने की ख़ूबसूरत बात के बावजूद जाति आधारित बड़ा-छोटा तो इस्लाम नहीं मिटा सका। बौद्ध या ईसाई होकर भी यह एक चीज़ यहाँ मिटने की तरह मिटती नहीं है।
जहाँ तक हिन्दी पट्टी के निर्दोष बुद्धिजीवियों की हैरत की बात है तो उन्हें यह भी नही पता कि लिबरल या प्रगतिशील होकर भी वे सवर्ण हिन्दू बुद्धिजीवी ही बने रहते हैं।
साभार – धीरेश सैनी
नोट – अंतिम पैरा उन तमाम बुद्धिजीवियों के लिए जो लिबरल दिखने का प्रयत्न करते हैं।