(समाज वीकली)
प्रेम सिंह
‘इंडियन एक्स्प्रेस’ (30 मार्च 2023) में एम राजीव लोचन का लेख ‘एन अटैक ओन सिविलिटी’ (शिष्टता पर हमला) छपा है। यह लेख उन्होंने अखबार के 25 मार्च 2023 के प्रथम संपादकीय (लीड एडिटोरियल) ‘डिस्कवालीफाइड’ के जवाब में लिखा है। संपादकीय कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को सूरत न्यायालय द्वारा सुनाई गई सजा के बाद रद्द की गई उनकी संसद की सदस्यता के विषय में था। अखबार की राय में राहुल गांधी पर तुरत-फुरत कार्रवाई प्रतिशोध की राजनीति का एक और नमूना है। अखबार ने यह भी कहा है कि यह कार्रवाई लोकतंत्र के लिए एक और बुरा संकेत है। और यह भी कि सरकार का प्रचार माध्यमों और भाषणों में लोकतंत्र का गुणगान अंदर के खोंखलेपन को ढांपने के लिए है। संपादकीय से असहमत राजीव लोचन का सुझाव है कि संपादकीय का बेहतर शीर्षक ‘डिज़र्व्डली डिस्कवालीफाइड’ होता। यानि कटघरे में सरकार को नहीं, राहुल गांधी को किया जाना चाहिए था।
संपादकीय से असहमति दर्ज करते हुए लेखक ने राजनीति, न्याय-प्रणाली और सभ्य समाज के बारे में कुछ ऐसी मान्यताएं परोस दी हैं, जिन पर आश्चर्य ही किया जा सकता है। आगे बढ़ने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि एक नागरिक के नाते संविधान की कसौटी पर और एक राजनीतिक कार्यकर्ता के नाते समाजवादी विचारधारा की कसौटी पर मैं राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति का विरोधी हूं। बल्कि मैं केजरीवाल को राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं मानता हूं। मैं राहुल गांधी और केजरीवाल को एक साथ नत्थी करने, जैसा कि राजीव लोचन ने किया है, का भी कोई आधार नहीं देखता। मेरी राजनीतिक मान्यता है कि आरएसएस/भाजपा, कांग्रेस और सत्ता के खेल में संलग्न ज्यादातर पार्टियों का संलाक्षणिक घराना (सिमिओलाजिकल यूनीवर्स) एक ही है। यह घराना कारपोरेट-कम्यूनल-क्रिमिनैलिटी के गठजोड़ से बनता है। भले ही पार्टियों और नेताओं के बीच कमोबेशी का अंतर रहता हो।
राजीव लोचन का अपने लेख में कहना है, “यह लगता है कि अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी जान-बूझकर झूठ का आधार लेकर लोगों पर उनके सम्मान और गरिमा को चोट पहुंचाने की नीयत से खास तरह के आरोप लगाते हैं।” लेख राहुल गांधी के बारे में है। संपादकीय भी राहुल गांधी की सजा और उससे जनित अयोग्यता के सवाल को लेकर लिखा गया था। लेकिन राजीव लोचन ने अपने लेख के उत्तर भाग में अरविंद केजरीवाल को शामिल कर लिया है, ताकि ऐसा न लगे कि “जान-बूझकर” झूठ बोलने वाले राहुल गांधी को अकेले निशाना बनाया गया है। लेखक आगे कहता है कि देश में कोई अन्य नेता ऐसा नहीं करता; कम से कम वे किसी ऐसे नेता को नहीं जानते। लेखक की इस मान्यता के मुताबिक देश की बाकी राजनीति और नेताओं को दूध के धुले मान लिया जाना चाहिए। भारत की मौजूदा राजनीति के पतन से विषाद-ग्रस्त लोगों के लिए लेखक ने यह बड़ी खुशखबरी दी है!
यह सब कहने के पहले वे लेख में यह भी कह चुके हैं कि भारत में नेताओं के भाषणों में आरोप-प्रत्यारोप आम बात रही है। उनके श्रोता इसका लुत्फ उठाते हैं। “वाइल्ड टीवी न्यूज चैनल्स” के जमाने में ना-ना करते हुए लोगों का यह लुत्फ पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। मतलब यह कि राहुल गांधी आरोप-प्रत्यारोपों के ‘निर्दोष चलन’ का फायदा उठा कर लोगों के सम्मान और गरिमा को नीचा गिराने का समझा-बूझा ‘अपराध’ करते हैं। ऐसे ‘अहंकारी’ व्यक्ति को न्यायालय ने सजा देकर और सरकार ने संसद की सदस्यता से बेदखल करके सही काम किया है। कहना न होगा कि राहुल गांधी के बारे में यह आरएसएस/भाजपा की लाइन है।
राजीव लोचन शायद नरेंद्र मोदी को नेता नहीं, बहुत से लोगों की तरह मसीहा मानते हैं। लिहाजा, मोदी दूसरों के बारे में जो कहते हैं, लेखक के लिए वह सब सवाल से परे है। वरना क्या लेखक ने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण नहीं सुने हैं? दिवंगत एवं जीवित व्यक्तियों अथवा समुदायों के बारे में उनके वक्तव्यों का पिटारा न खोल कर केवल दो बातों का उल्लेख करें। एक, ‘पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ’, यह बार-बार कह कर बार-बार स्वतंत्र भारत की उपलब्धियों को लांछित किया गया है। और जिन नागरिकों ने निष्ठा और दयानतदारी से राष्ट्र-निर्माण की दिशा में अपना काम किया उन्हें अपमानित। दो, ‘अब से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात मानी जाती थी’, विदेशों में जाकर ऐसा कहना जननी-जन्मभूमि के सम्मान और गरिमा पर सीधी चोट है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुआ प्रचार कि ‘देश को वास्तव में आजादी अब मिली है’, अभी तक थमा नहीं है। भले ही इससे देश की स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष के दौरान कुर्बानियां देने वाले अनगिनत भारतीयों का अपमान होता है।
यह अच्छी बात है कि लेखक को देश की न्याय-प्रणाली पर, उसके फैसलों की ‘रहस्यमयता’ के बावजूद, पूरा विश्वास है। उसकी मान्यता है कि न्यायालय के फैसले को नहीं मानना न्याय के उस ताने-बाने को कमजोर करना है, जिसके चलते समाज में सिविलिटी कायम रहती है। लेखक की चेतावनी है कि न्यायालय का फैसला नहीं मानने की स्थिति में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के खुले खेल के लिए दरवाजे खुल जाएंगे। क्या लेखक को सचमुच पता नहीं है कि समाज में सिविलिटी कब की ‘फ्री फॉर ऑल’ का शिकार हो चुकी है! क्या वह इस सच्चाई से सचमुच अनभिज्ञ है कि समाज से सिविलिटी का सफाया करने में जुटे तत्व कौन से हैं!
ध्यान दिया जा सकता है कि सिविलिटी पर होने वाले लगातार हमलों के लिए आरएसएस/भाजपा के समर्थक भले लोग गौण तत्वों (फ्रिन्ज एलिमेंट्स) को जिम्मेदार ठहरा कर तसल्ली पा लेते हैं। वे मान लेते हैं कि गौण तत्वों से सिविलिटी को वास्तविक खतरा नहीं है। लेख में सिविलिटी पर हमले के प्रति चिंता जताने वाले राजीव लोचन भी यही मानते प्रतीत होते हैं। राहुल गांधी को सिविलिटी का एकमात्र खलनायक सिद्ध करके क्या वे यह भी सिद्ध करना चाहते हैं कि ‘गौण तत्वों’ के तार भी आरएसएस/भाजपा से नहीं, राहुल गांधी से जुड़े हैं!
यह अफसोस की बात है कि इतिहास और राजनीति-शास्त्र के विद्वान भी अक्सर गंभीर समझदारी नहीं दिखा पाते। समाचारों के नाम पर दिन-रात उत्तेजना परोसने वाले चैनलों ने ही राजनीतिक विमर्श के स्तर को नहीं गिराया है; इस विषय में विद्वान भी अपनी भूमिका का समुचित निर्वाह नहीं कर रहे हैं। राजीव लोचन का यह लेख उसी चिंताजनक परिघटना की एक बानगी है।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)