कृषि के नारीकरण का सिद्धांत : एक मूल्यांकन

Dr Ramji Lal

डॉ. रामजीलाल, पूर्व प्राचार्यदयाल सिंह कॉलेज ,करनाल (हरियाणा- भारत)
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(समाज वीकली)- महिला सशक्तिकरण अथवा नारीवाद के संबंध में सामाजिकआर्थिकसंस्कृतिकमनोवैज्ञानिक तथा राजनीतिक पहलुओं पर व्यापक वर्णन हमें विभिन्न लेखों अनुसंधानों तथा पुस्तकों में मिलता है.इस सम्बंध अनेक मॉडलों का सृजन भी किया गया है. परंतु महिला किसान और महिला कृषि श्रमिक का व्यापक वर्णन क्रमबद्ध तरीके से लगभग अदृश्य है. इस लेख में कृषि के नारीवादी सिद्धांत का सृजन और वर्णन करने का प्रयास किया गया है.

कृषि के नारीवादी सिद्धांत का अर्थ  

कृषि के नारीवादी सिद्धांत से हमारा अभिप्राय यह है कि कृषि क्षेत्र से संबंधित किसान महिलाओं एवं कृषक श्रमिक महिलाओं के जीवन के सामाजिक ,आर्थिकसांस्कृतिकशैक्षणिक,राजनीतिक व कृषि संबंधित कार्यों- कृषि कार्योंपशुपालन कार्यों व घरेलू कार्यों से संबंधित विषयों का व्यापक अध्ययन करना तथा सुझाव देना है ताकि वे एक सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें. इसके अतिरिक्त किसान महिलाओं एवं कृषक श्रमिक महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष समानता व स्वतंत्रता के अधिकार वास्तविक रूप में प्राप्त हों. महिलाओं को भूमि का अधिकार प्राप्त हो  ताकि वह अदृश्य से दृश्य किसान बन सके और गैर कृषक श्रमिक महिलाओं को समान काम के लिएसमान वेतन प्राप्त हो.यह सिद्धांत इस बात की वकालत भी करता है कि कृषि से जुड़ी महिलाओं को भूखकुपोषण और बेरोजगारी से मुक्ति प्राप्त हो तथा उनका किसी भी प्रकार का कोई शोषणन हो. 

इस सिद्धांत के मुख्य विशेषताएं

नारीवादी सिद्धांत के मुख्य विशेषताएं अग्रलिखित हैं:

प्रथमयह सिद्धांत कृषि क्षेत्र से संबंधित महिलाओं के सामाजिकआर्थिकराजनीतिकशैक्षिक और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों का अध्ययन करता है.

द्वितीययह सिद्धांत महिला किसानों को अदृश्य किसानों से दृश्य किसानों में बदलने पर जोर देता है.

तृतीय,यह ज़मीन समेत पैतृक संपत्ति और ससुराल में पति की संपत्ति में समान अधिकार की वकालत करता है.

चतुर्थ,समस्त भारत में उपलब्ध अतिरेक भूमिका वितरण करके कृषि श्रमिक महिलाओं को मालिकाना अधिकार दिया जाना चाहिए.समस्त भारत में पंचायतों के अंतर्गत आने वाली भूमि का वितरण कृषि श्रमिक महिलाओं में किया जाए  ताकि उनका कृषि योग्य भूमि पर मालिकाना हक स्थापित हो. उदाहरण के तौर पर हरियाणा के 12 जिलों में सरकारी सूचना के अनुसार लगभग 14,000 एकड़ जमीन ग्राम पंचायतों के अंतर्गत आती हैं .इस भूमि का वितरण  कृषि श्रमिक महिलाओं में करना चाहिए.

पंचमभारत में भौगोलिक और सामाजिक मापदंडों में काफी भिन्नता हैअलग-अलग संस्कृतिरहन-सहनपहनावाखान-पान आदि के खर्च में अंतर पाया जाता है. परिणामस्वरूप इनकी आय में भी अंतर पाया जाता है.ऐसी स्थिति में सरकार को गरीबी की रेखाएं भी खींचनी होंगीउदाहरण के लिए गरीबी की दृष्टि से सबसे गरीबसर्वाधिक वंचितकृषि श्रमिक महिलाओं में कुपोषित तथा विकास के आधार परनारीवादी सिद्धांत में समग्र आवश्यकता पर बल दिया गया है

छठा,इस सिद्धांत के अनुसार सर्वाधिक योजनाबद्ध तरीके से आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी पुरुषों और आदिवासी महिलाओं के अच्छे दिन लाने हेतु जलजंगलऔर जमीन पर आदिवासी अधिनियमों के अंतर्गत उनको अधिकार प्रदान किया जाए .   उनके प्राकृतिक संसाधनों का  विकास के नाम पर  दोहन बंद करने की आवश्यकता है क्योंकि इससे उनके शोषण को बढ़ावा मिला है और हिंसात्मक घटनाओं में भी वृद्धि हुई है.आदिवासी महिलाएं निम्नलिखितकारणों से शोषित हो रही है:

प्रथम आदिवासी कबीलों में  पारस्परिक संघर्ष के कारण शोषण,

द्वितीयअपने ही के कबीलों के पुरुषों द्वारा शोषण,तृतीय, आतंकवादी एवं अतिवादी संगठनों के द्वारा शोषण,

चतुर्थ, पुलिस और पैरामिलिट्री संगठनों के द्वारा भी आतंकवादी एवं अतिवादी हिंसा के रोकने के नाम पर आदिवासी महिलाओं के शोषण के उदाहरण मिले हैं.

इस सिद्धांत के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर स्थानीय लोगों के द्वारा ,स्थानीय लोगों के लिए नीतियों का निर्माण किया जाए और केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के द्वारा उनको वित्तीय सहायता प्रदान की जाए.

सप्तम ,ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं के पलायन को रोकने के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जाए और सड़कपानीबिजलीसिंचाई ,स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी सेवाओं को शहरी तर्ज के आधार पर गांव में उपलब्ध कराया जाए ताकि युवा वर्ग अपने परिवार के साथ रहे और साथ-साथ महिलाओं के लिए लघु उद्योग धंधों पर भी बल दिया जाए ताकि उनकी आय में वृद्धि हो सके .

अष्टम.,जीडीपी का मूल्यांकन इस समय पाश्चात्य देशों के आधार पर किया जाता है .उसके स्थान पर नए आधार पर जीडीपी का मूल्यांकन किया जाए ताकि उसमें महिलाओं के द्वारा किए गए अवैतनिक कार्यों का मूल्यांकन करके जोड़ा जाए .(सोमपाल शास्त्री, ‘गांव बने विकास के पांव’, राष्ट्रीय सहारा( हस्तक्षेप),16 जून 2012, पृ.2)

नौवां महिलाओं को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में वर्णित सिद्धांतों- समानतास्वतंत्रतासामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय,व्यक्ति की गरिमा व संविधान में प्रदत समानता का अधिकार(धारा 14 ),स्वतंत्रता का अधिकार(धारा 19) ,समान काम के लिए, समान वेतन का अधिकार (धारा 39d)  इत्यादि का ज्ञान होना चाहिए. आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 1 अप्रैल 2019 को एक निर्णय में कहा कि यदि समान काम के लिए समान, वेतन न दिया जाए तो यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है.

दसवां,,महिलाओं को स्त्री उत्तराधिकार अधिनियम का ज्ञान होना भी जरूरी है .भारत में हिंदू उत्तराधिकार नियम 1956 के अनुसार महिलाओं को पैतृक चल और अचल संपत्ति का अधिकार प्राप्त है .यद्यपि इस अधिनियम में पुत्री को पैतृक संपत्ति में अधिकार को दे दिया गया था परंतु यह पुत्र के समान नहीं था .परिणाम स्वरूप इस 1956 के कानून को सन् 2005 में संशोधित किया गया अर्थात हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 का निर्माण किया गया. इसके उपरांत हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 को 11 अगस्त 2020 में  पुन:  संशोधन किया गया .11 अगस्त 2020 के संशोधन अधिनियम में यह स्पष्टीकरण किया गया कि यदि किसी पुत्री के पिता की मृत्यु 9 सितंबर 2005 से पूर्व हो  गई हो तो उसे संपत्ति में अब पुत्रों के बराबर अधिकार प्रदान है. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम( 2005) तथा संशोधित अधिनियम (अगस्त 2020 )के बावजूद भी कई राज्यों में संपत्ति का पैतृक अधिकार नहीं है है.  इस संबंध में कुछ कानून  संविधान की नौवीं अनुसूची में आते हैं .इस सूची में आने वाले कानूनों को न्यायपालिका की समीक्षा से बाहर रखा गया है. परिणाम स्वरूप महिलाएं पैतृक संपत्ति से वंचित रह जाती है .

(लोक लहरनयी दिल्ली,भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का साप्ताहिक मुखपत्र ,वर्ष 44अंक 48 ,11नवंबर 2022–  27 नवंबर 2022पृ. 11). यद्यपि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा महिलाओं के उत्तराधिकार के संबंध में अनेक निर्णय दिए गए हैं .इन सभी निर्णयों कानूनों और नियमों का नारीवादी सिद्धांत के अनुसार महिलाओं को ज्ञान होना जरूरी है.  

ग्यारहवाँ,महिलाओं को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए महिला संगठन बनाकर  कृषक महिलाओं तथा कृषक श्रमिक  महिलाओं को जागरूक और आंदोलित करना चाहिए. इसके अतिरिक्त महिलाओं को किसान आंदोलनों में स्वतंत्र रूप से अथवा सामूहिक रूप से पुरूष किसानों के साथ मिल कर भागं लेना चाहिए और इतिहास में महिलाओं की  किसान आंदोलन में  क्या भूमिका रही है उसका ज्ञान होना भी जरूरी है.

कृषि भारतीय आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है  और किसान महिलाएं तथा कृषक श्रमिक महिलाएं कृषि की  रीढ़ की हड्डी है.यदि महिलाएं संपन्न होगी तो भारतीय अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व विकास होगा. परिणाम स्वरूप भारत आर्थिक दृष्टि से एक संपन्न देश होगा.

संक्षेप में इस सिद्धांत के अनुसार  किसान महिलाओं और कृषि श्रमिक महिलाओं के विकास कल्याण व गरिमा का यह एक समग्र सिद्धांत है .

महिलाओं को किसान क्यों नहीं माना जाता?

महिलाओं को किसान क्यों नहीं माना जाता?.यह एक यक्ष प्रश्न है .यद्यपि महिलाएं भारतीय कृषि व्यवस्था की रीड की हड्डी  हैं. विश्व में लगभग 900 मिलियन महिलाएं कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं . आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2019 -20 की रिपोर्ट के अनुसार  75. 7 प्रतिशत भारतीय ग्रामीण महिलाएं किसी न किसी रूप में कृषि कार्य करती हैं. कृषि समुदायों से संबंधित केवल 13. 87% महिलाओं का कृषि योग्य भूमि पर कानूनी अधिकार है . कृषि योग्य भूमि की स्थिति के मामले में गैर-कृषि समुदायों की महिलाओं की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है.क्योंकि केवल 2 %  कृषि श्रमिक महिलाओं के पास का भूमि का कानूनीअधिकार है या भूमि का मालिकाना हक है .अन्य शब्दों में कृषि समुदायों कीलगभग 86%  और कृषि श्रमिक समुदायों 98% महिलाओं के पास भूमि संबंधी कोई संपत्ति नहीं है.कृषि समुदायों कीमहिलाएं अधिकतर अपनी परिवारिक भूमि पर काम करती हैं. जबकि गैर-कृषि समुदायों की महिलाएं श्रमिक के रूप में ग्रामीण किसानों की भूमि पर श्रमिक के रूप में काम करती हैं. महिला किसान अधिकार मंच  की संस्थापक अध्यक्ष, डॉ. रुक्मिणी राव के अनुसार प्रत्येक एकड़ पर 70% कार्य महिलाओं के द्वारा किया जाता है.जबकिबिल्कुल विपरीत पुरुषों के द्वारा 30%कार्य किया जाता है.

एक अनुमान के अनुसार एक महिला किसान खेतों में एक वर्ष में 3485 घंटे काम करती है जबकि एक पुरूष किसान 1212 घंटे काम करता है. समस्त भारत के विभिन्न क्षेत्रों -पूर्वोत्तर से लेकर  दक्षिण पश्चिम भारत तक अथवा कश्मीर से कन्याकुमारी तक कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के कार्यों के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

प्रथमवह महिलाएं जो बिना किसी भूमि के अधिकार  के दिहाड़ी (वेतन) पर कृषि कार्य करती हैं,

द्वितीयवह महिलाएं जो स्वयं भूमिका मालिकाना अधिकार रखती हैं अथवा अपने परिवार की भूमि पर काम करती हैंतथा

तृतीय ,वह महिलाएं जो कृषि संबंधी प्रबंधन के लिए काम करती हैं.

कृषि संबंधी कार्यों में महिलाओं के तीन प्रकार के कार्य हैं.

कृषि संबंधी कार्य:

महिलाएं भारतीय कृषि की हड्डी है और कृषि विकास में अहम भूमिका है .महिलाओं द्वारा किए गए कृषि कार्यों में  बुवाई के लिए जमीन तैयार करने में सहयोग देना,बुवाई करना ,रोपाई करनासिंचाई करना,  छंटाई करना,उर्वरकों का प्रयोग करना,बंधाई करना,  भराई करना,  प्लांट संरक्षण करनाभंडारण करना, खेत में काम करने वाले पुरुषों एवं कृषि श्रमिकों के लिए चाय तथा भोजन लेकर जाना व पुरुषों की अनुपस्थिति में महिलाएंखेतों की सुरक्षा करने का काम भी करती हैं. वर्तमान युग में आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं खेतों में ट्रैक्टर तथा आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करती हैंऔर उधर दूसरी ओर गरीब महिलाएं खेतों में बैल जोत कर हल चलाने ,झोटा बुग्गी  व  बैल गाडी चलाने का काम करती है. महिलाओं के द्वारा प्रयोग किए गए किए जाने वाले कृषि उपकरण स्थानीय कारीगरोंलोहार व बढ़ई के द्वारा तैयार किए जाते हैं. जबकि पुरुषों के द्वारा प्रयोग कीजिए वाले अधिकांश उपकरण आधुनिक तकनीक के अनुसार कारखानों में तैयार होते हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण 2017 -18 के अनुसार पुरुषों के काम की तलाश में गांव घर और गांव से  पलायन करके शहरों में अथवा दूसरे राज्यों में रोजगार हेतु जाने के पश्चात कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका में और अधिक वृद्धि हुई हैपरंतु इसके बावजूद भी भूमि ,कृषि ,ऋणबीज और बाजार जैसे समस्त संसाधनों में लैंगिक भेद भाव बढ़ रहा है. परिणाम स्वरूप महिलाएं सरकार की योजनाओं और नीतियों का न तो पूरा लाभ उठा सकती हैं और न ही उनके लिए बदलाव के लिए निरंतर दबाव बना सकती हैं. यह कृषि  नायिकाएं (एग्रीकल्चरल हीरोइंस) महिलाएं लगभग अदृश्य हैं.समाचार पत्रोंपत्रिकाओं,  पुस्तकों मास मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से कृषि वीरांगनाए गायब नजर आती हैं. महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों  में महिलाअध्धयन केंद्रों की स्थापना की गई है. महिला सशक्तिकरण के नाम पर सेमिनारों  व भाषणों का आयोजन किया जाता है . हर रोज राजनेताओं के द्वारा महिला सशक्तिकरण का ढिंढोरा भी पीटा जाता है. परंतु कृषक महिलाएं और खेतिहर श्रमिक महिलाएं यहां भी गायब हैं.

राष्ट्रीय मेंस्ट्रीम मीडिया ,प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और मास मीडिया ,सेमिनारों  व भाषणों में किसान महिलाओं तथा कृषि श्रमिक महिलाओं की समस्याओं के संबंध में विशेष चर्चा नहीं होती. यही कारण है कि राजनेताओं ,अधिकारियोंशिक्षकों और शोधार्थियों के द्वारा इनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है.

शिक्षण संस्थाओं में शोध कार्य करने वाले विद्वानों के द्वारा महिला सशक्तिकरण के नाम पर उन महिलाओं पर शोध किया जाता है जो पहले से ही शक्तिशाली हैं.अन्य शब्दों में  महिला किसान और महिला श्रमिक किसान को ढूंढते रह जाओगे .ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महिला किसानों और महिला कृषि श्रमिकों का राष्ट्रीय विकास में कोई योगदान नहीं है.

परिणाम स्वरूप  कृषि महिलाओं व कृषि श्रमिक महिलाओं की समस्याओं और उनके समाधान पर बहुत कम शोध कार्य हुए हैं. महिलाओं के द्वारा कृषि कार्य करते हुए उनके शरीर पर बहुत अधिक को प्रभाव पड़ता है. उनकी मांसल सख्त हो जाती है. चिलचिलाती धूप ,कप कंपाती सर्दी और बारिश मेंकाम करने के कारणअनेक समस्याएं और बीमारियां भी होती है. आज तक यह शोध कार्य नहीं किया गया कि कृषि कार्यों से जुड़ी महिलाओं के  कितने गर्भपात हुए हैं.

पशुपालन संबंधी कार्य:

महिलाएं पशुओं के लिए खेतों और जंगलों से चारा /घास काट कर लाना और उसे मशीन से काटना चारा/ घासखानेकेलिए पशुओं को डालना , दूध निकालनादूध का प्रसंस्करण करनापशुओं का गोबर उठाना,  उपले बनानापशुओं को विशेष तौर से भैंसों को नहलाना पशु बीमार होने पर सरकारी पशु अस्पताल में इलाज कराने के लिए पति से सहयोग करना अथवा परंपरागत घरेलू इलाज करना, पशुओं केशिशुओं की देखरेख करना और जब पति अथवा घर के पुरुष बाहर गए हुए होंपशुओं की सुरक्षा करनाइत्यादि मुख्य कार्य हैं .संक्षेप मेंपशुपालन की गतिविधियों में महिलाओं की भूमिका अति महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय है.

(https://vikaspedia.in/agriculture/women-and-agriculture/role-of-women-in-agriculture-and-its-allied-fields)

घरेलू कार्य

कृषि कार्य तथा पशुपालन के अतिरिक्त महिलाओं के द्वारा घरेलू कार्य भी किए जाते हैं .प्राय यह धारणा है कि घरेलू कार्यों का शत- प्रतिशत दायित्वमहिलाओं का है.  घरेलू कार्य करने के लिए महिलाएं सुबह  सबसे पहले उठती हैं और रात को सब से बाद सोती हैं. दूसरे शब्दों में घरेलू कार्य महिला केंद्रित हैं. घरेलू कार्यों में घर व आंगन साफ करनाभोजन बनाना ,बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, पानी लाना ( पोखरों,कुओं और तालाबों से पानी लाना) ,बच्चों का पालन पोषण करनाबच्चों को तैयार करके स्कूल भेजनाउनकी शिक्षा का ध्यान रखना ,जंगलों से इंधन लानापरिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य की देखरेख करना ,परिवार में आने वाले मेहमानों और रिश्तेदारों की विशेष सेवा करनाविवाह शादियों के लिए पुरुषों के साथ मिलकर खरीदो फरोख्त करना इत्यादि सभी कार्य महिला केंद्रित हैं. इसके बावजूद भी अगर कोई गृह स्वामी से पूछे कि उसकी पत्नी क्या काम कर रही है तो उसका उत्तर होगा कोई काम नहीं करती’.बस घर का काम करती है .अन्य शब्दों में घरेलू कार्य को कार्य नहीं समझा जाता और महिलाओं के उन कार्यों को जो पशुपालन और कृषि जुड़े हुए हैं उनका कहीं कोई वर्णन नहीं होता. इतना अधिक कार्यों का बोझ उठाने के बावजूद भी महिलाओं की परिवार के सदस्यों से के द्वारा प्रताड़ना की जाती है और वह घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं.  ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे महिलांए घर के अंदर गृह स्वामिनी नहीं अपितु कोई शत्रु हैं. महिलाएं अपने ही घर में पराई हो जाती हैं . परिणाम स्वरूप वे मनोवैज्ञानिकमानसिक और शारीरिक बीमारियों का शिकार हो जाती हैं और जीवन से तंग आकर आत्महत्याएं भी करती है.अफसोस की बात है.

महिलाओं के कार्यों को समस्त विश्व में वेतन के साथ नहीं जोड़ा जाता. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ )की रिपोर्ट( 2022) के अनुसार विश्व के 64 देशों में महिलाएं 1640 करोड़ घंटे बिना वेतन के काम करती हैं जिसका मूल्य का विश्व की जीडीपी के 9% (11 ट्रिलियन डॉलर) केलगभगहै.(https://www.livehindustan.com/business/story-women-are-working-1640-crore-hours-daily-without-pay-7848381.)

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया  के आर्थिक अनुसंधान विभाग (इकोनामिक रिसर्च डिपार्टमेंट )की रिपोर्ट के अनुसार भारत में घर पर कार्य करने वाली महिलाओं का भारतीय जीडीपी में 22.7 लाख करोड रुपए का योगदान है. महिलाओं के अवैतनिक काम का वैज्ञानिक आधार पर आंकलन किया जाए तो भारतीय रिजर्व बैंक( आरबीआई) की रिपोर्ट( 2023) के अनुसार काम करने वाली महिलाओं को यदि वेतन मिले तो यह भारतीय जीडीपी का 7.5%  है.

इसके बावजूद भी महिलाएं किसान की श्रेणी से अदृश्य हैं.परिणाम स्वरूप उन्हें सरकारी नीतियों व योजनाओं- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि ,फसल बीमा योजना ,कर्जक्रेडिट ,तकनीकीसहायतानिवेशबीजसब्सिडी यूरिया तथा  कृषि इनपुटस से वंचित रहना पड़ता है .महिला किसान अधिकार मंच की संस्थापक अध्यक्षडॉ. रुक्मिणी राव ने श्वेता के द्वारा लिये गये साक्षात्कारमें कहाकि हमारा सिस्टम महिलाओं को अदृश्य और अस्तित्वहीन’‘मानता है

(https://feminisminindia.com/2016/04/0 the-farmers-movement-in-india

4/we-talked-to-rukmini-rao-about-the-national-convention-of-women-farmers/)

(https://feminisminindia.com/2019/08/14/the-forgotten-female-farmers-of-india-narratives-from-bihar)

भारत में किसानों को स्वामीनाथन रिपोर्ट (2006 ) में समर्थन मूल्य (सीटू +50%)फार्मूले के आधार परसंस्तुति की गई है . सरकारों के द्वारा इस फार्मूले को लागू नहीं दिया गया. परिणाम स्वरूप किसानों का शोषण जारी है और उन्हे  प्रति एकड़ लगभग 8000रूपए से 1000 रूपए का नुकसान है. बाढ़ ,अकालसूखा पड़ना, ओलावृष्टिफसल में बीमारी,    ऋण का भुगतान न होनाघर का खर्च चलाने में कठिनाई होना तथा अन्य समस्याओं के कारण पुरुषों की भांति महिलाएं  हताश होती हैं और जब उनके सामने कोई  वैकल्पिक दृष्टिगोचर नहीं होता तो वह भी किसान पुरुषों की भांति आत्महत्या करती हैं.

किसान आत्महत्या समस्त विश्व में करते हैं.भारत कोई अपवाद नहीं है. 2011 में विश्व स्वास्थ्य संगठन  रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिकसमृद्ध व विकसित देशों अमेरिका( यूएसए)इंग्लैंड,,रूस, दक्षिण कोरिया ,जापान , ऑस्ट्रेलियाइत्यादि देशों में भी किसान आत्महत्या करते हैं .परंतु इन देशों में एक लाख जनसंख्या के पीछे किसानों की आत्महत्या की दर अपेक्षाकृत भारत से कम है.

भारत के केंद्रीय सरकार के गृह मंत्रालय की राष्ट्रीयअपराधरिकॉर्डब्यूरो (एनसीआरबीकीरिपोर्ट (सन् 2019)के अनुसार सन् 1995 से सन्2018 के अंतराल में लगभग 400,000 किसानों ने आत्महत्या की है..अथार्तहररोजलगभग 48 किसान आत्महत्या करते हैं.  (https://scroll.in/article/1003219/nearly-400000-farmers-committed-suicide-in-india-between-1995-and-2018-why)

 राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबीकी रिपोर्ट के अनुसारकृषि क्षेत्र में सन् 2014 में12,360(5,650 किसान+6710खेतिहरमजदूर).सन्2015 में12,602(8,007 किसानों +3595 खेतिहर मजदूरों), सन् 2016 में 11,379 (6,270 किसान +5,109 खेतिहर मजदूर), सन् 2017 में 10,655(5,955 किसान +4,700 खेतिहर मजदूर ) , सन् 2018 में 10,349(5,763 किसान +4,586 कृषि मजदूर ), सन् 2019 में 10,281(5,957 किसान +4,324 खेतिहर मजदूर) आत्महत्याएँकिसानों और कृषक मजदूरों कीथीं

संक्षेप में भारत के केंद्रीय सरकार के गृह मंत्रालय की राष्ट्रीयअपराधरिकॉर्डब्यूरो (एनसीआरबीकीरिपोर्टके अनुसारसन् 2014 से सन् 2020  के अंतराल में 78,303(43,181 किसान 35122 कृषक मजदूर) आत्महत्याओं के आंकड़े दर्ज किए गए हैं .

सन् 2020में 10677  (5579किसान+ 5098 कृषक मजदूर)कृषिक्षेत्रमेंआत्महत्याएँकीथीं .सन् 2020 में सन् 2019 की अपेक्षा 18% अधिक कृषि मजदूरों की आत्महत्याओं का आंकड़ा है. सन् 2021 मेंकृषि क्षेत्र से जुड़े कुल 10,881 लोगों (5,318 किसानों —5,107 पुरुष किसानऔर 211 महिलाकिसान +5,563 खेतिहर मजदूर) ने आत्महत्या  की हैआधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2021 में हर दिन लगभग 15 किसानों और 15 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या करके अपनी जीवन लीला समाप्त की थी.( https://www.news18.com/news/india/every-day-15-farmers-died-by-suicide-in-india-in-2021-biggest-spike-in-5-years-govt-data-6160171.html)सन्2021 में किसानों और कृषि मजदूरों के द्वारा की जाने वाले आत्महत्याओं की संख्या सन् 2016 केपश्चात सबसे अधिक थी.(https://timesofindia.indiatimes.com/india/suicides-of-agricultural-labourers-rise-by-18-ncrb-report/articleshow/87344897.cms)

वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ के अनुसार राज्यों के द्वारा किसानों और कृषि श्रमिकों की आत्महत्या के  मामलों की संख्या में गिरावट दिखाई जाती है. हमारा मानना है कि राज्य सरकारें किसानों और कृषि श्रमिकों की आत्महत्याओं की केंद्रीय सरकार को शून्य लिखकर रिपोर्ट करती हैं. उदाहरण के तौर पर राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण शाखा के अनुसार सन् 2021 में अनेक राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों —पश्चिम बंगालबिहारझारखंडओडिशात्रिपुरामणिपुरअरुणाचल प्रदेशउत्तराखंडचंडीगढ़लक्षद्वीप और पुडुचेरी शून्य लिखकर रिपोर्ट जैसे कुछ राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में किसानों/किसानों के साथ-साथ खेतिहर मजदूरों की शून्य आत्महत्या की केंद्रीय सरकार को रिपोर्ट भेजी.

(https://www.downtoearth.org.in/news/agriculture/an-agricultural-labourer-died-by-suicide-every-2-hours-in-2021-ncrb-84616#:~:text=Overall%20picture,2020%20and%205%2C957%20in%202019.)

हमारा अभिमत है कि राज्य सरकारों को किसानों , कृषि किसान महिलाओं और कृषि श्रमिकों की आत्महत्याओं की सूचना ठीक देनी चाहिए .शून्य रिपोर्ट भेजने वाले राज्य किसी भी रूप में न तो किसान हितैषी हैं और न ही किसान व श्रमिक के पक्ष में हैं. किसानों को अपनी मांगों में सही रिपोर्ट भेजने के संबंध में सरकारों को लिखना चाहिए. संभवत राज्य सरकारें इसलिए हमारा अभिमत है कि शून्य रिपोर्ट लिखती हैं. ताकि उनको उनको कहीं आत्महत्या करने वाले किसानों और कृषि श्रमिकों के परिवारों को मुआवजा ना देना पड़े . आत्महत्याओं के संबंध में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के द्वारा मुआवजे की राशि निर्धारित करनी चाहिए.

जीवन की समस्याओं से हताश होकर कृषक महिलाएं व कृषक श्रमिक महिलाएं भी आत्महत्या करती हैं.भारत में सन्1995 से सन् 2018 के बीच राष्ट्रीय  गृह मंत्रालय की राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण शाखा( एनसीआरबी )के द्वारा संग्रहित आंकड़ों के अनुसार 50,188 महिलाओं ने आत्महत्या की है. यह कुल किसानों की आत्म हत्याओं का 14.82  प्रतिशत है.

महिला विधवाओं के मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पति की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार में भूमि का अधिकार प्राप्त होता है या अधिकार प्राप्त नहीं होता है.किसान महिला किसान अधिकार मंच की रिपोर्ट(सन् 2012  सन् 2018) के अनुसार भारत में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है. पति की मृत्यु के पश्चात विधवा का जीवन अचानक और अपरिवर्तनीय रूप में अंधेरे में चला जाता है. विधवा किसान  महिलाओं की  मार्मिक स्थिति का वर्णन कोटा नीलिमा ने अपनी पुस्तक( कोटा नीलिमा ,वि़डोज ऑफ विदर्भ :मेकिंग ऑफ शैडोज , ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेससन् 2018) में किया है .

विधवा महिलाओं के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण  कठिनाई यह है कि पति की मृत्यु के पश्चात उनको उत्तराधिकारी के रूप में भूमि का अधिकार प्राप्त होने में कठिनाई आती है अथवा अधिकार प्राप्त नहीं होता.  महिला किसान अधिकार मंच  की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2012 – सन्  2018 के अंतराल में 40%विधवा महिलाओं को भूमि का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ. उनके लिए पटवारी से लेकर रेवेन्यू विभाग के उच्च अधिकारी तक चक्कर लगाना बहुत अधिक कठिन कार्य है. क्योंकि पति की मृत्यु के पश्चात उनको कृषि कार्यों,पशुपालन कार्योंव घरेलू कार्यों के साथ-साथ अन्य जिम्मेदारियां भी वहन करनी पड़ती है. केवल यही नहीं जब विधवा महिलाएं घर से बाहर निकलती हैं तो उनको लोगों के घटिया किस्म के शब्द भी सुनने को मिलते हैं.इसके अतिरिक्त  कोर्ट में जाने के लिए भी  अनेक भी कठिनाइयां सामने आती हैं. सबसे पहले वकील की फीस और बार-बार कोर्ट में जाना शामिल हैं.

यद्यपि संपत्ति के उत्तराधिकार संबंधी अधिनियमों और न्यायिक निर्णयों के द्वारा महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बेटों के बराबर अधिकार है .परंतु व्यावहारिक तौर पर यह कानून और निर्णय लागू न होने के अनेक कारण है:

संपत्ति के अधिकारों संबंधित उत्तराधिकार के कानूनों व सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के बारे में महिलाओं को उचित जानकारी का अभावमहिलाओं द्वारा माता- पिता अथवा भाइयों अथवा  पैतृक परिवारों के विरुद्ध संपत्ति के अधिकार की सुरक्षा के लिए मुकदमा दर्ज कराने में संकोच होना,अधिकारों के लिए मुकदमा करना कठिन व जोखिम भरा कार्य होना ,पैतृक परिवार के सदस्यों द्वारा लड़कियों की  भावनाओं का शोषण करना,अधिकार मांगने पर हमेशा के लिए संबंध खराब होनायदि ससुराल में  अनबन हो जाए और कोई मुसीबत आ पड़े अथवा विवाह – विच्छेद तक बात पहुंच जाए तो ऐसी स्थिति में पैतृक परिवारों से   कोई सहायता न मिलना,तीज-त्योहारोंविवाह -शादियों में बहिष्कार का भय,  सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का अभाव होनाभावनाओं का शोषण करके लड़की से समझौते(डीड)पर हस्ताक्षर करवाना ,पुत्रों अथवा पौत्रों के नाम वसीयत करके पुत्री अथवा पौत्री को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना इत्यदि मुख्य़ कारण हैं.
सारांशतः वास्तव में महिलाओं को पैतृक संपत्ति के अधिकार से वंचित करने की मुख्य जड़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था है. हमारा समाज आज भी पूर्णतया पुरुष प्रधान समाज है. परिणाम स्वरूप पुत्रियों को पैतृक संपत्ति से वंचित अथवा हक आउट कर दिया जाता है . महिलाओं को  पैतृक संपत्ति के अधिकार प्राप्त करने के लिए अभी हजारों मील चलना है और यह एक लंबा और कठिन मार्ग है,

यद्यपि नारीवादी सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है. परंतु इसकी कामयाबी के लिए महिलाओं और पुरुषों की मानसिकता में परिवर्तन होना बहुत जरूरी है अन्यथा सिद्धांत और व्यवहार में हमेशा अंतर रहेगा.

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