भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर में निहित नीडोनॉमिस्ट: 134वीं जयंती पर एक चिंतनशील श्रद्धांजलि

समाज वीकली यू के

prof. M M Goel

प्रो. मदन मोहन गोयल*

जब विश्व 14 अप्रैल 2025 को भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर की 134वीं जयंती मना रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम उनके उस कम चर्चित पक्ष को उजागर करें, जिसमें वे एक प्रखर अर्थशास्त्री थे, जिन्हें हम ‘नीडोनॉमिस्ट’ के रूप में पहचान सकते हैं। अनुसूचित जातियों के सशक्त समर्थक और भारत के संविधान के प्रमुख निर्माता के रूप में उनकी ख्याति सर्वविदित है, परंतु वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में उनकी आर्थिक सूझबूझ, विशेषकर बटरफ्लाई इफ़ेक्ट (एक जटिल प्रणाली में किसी स्थान पर हुआ छोटा परिवर्तन कहीं और बड़े प्रभाव ला सकता है) की प्रासंगिकता के संदर्भ में, आज अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है।

डॉ. अंबेडकर को एक महान अर्थशास्त्री के रूप में वैश्विक मान्यता मिलनी चाहिए, जो किसी नोबेल पुरस्कार से भी अधिक सम्मानजनक हो। सरकार को समय-समय पर प्रस्तुत किए गए उनके विभिन्न ज्ञापन और वक्तव्य यह सिद्ध करते हैं कि उन्होंने अर्थशास्त्र विषय को गहराई से आत्मसात किया था।

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करना उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रमाण है, जो उन्हें नीडोनॉमिस्ट के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उनकी आर्थिक सोच सीमाओं और विचारधाराओं से परे जाकर ऐसी सार्वभौमिक समझ देती है, जो आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।

किसी भी आर्थिक संकट के समय भय और दहशत को कम करने के लिए डॉ. अंबेडकर द्वारा प्रतिपादित सार्वजनिक व्यय के सिद्धांतों को अपनाना अत्यंत आवश्यक है। 1949 में उन्होंने कहा था कि प्रत्येक सरकार को जनता से एकत्र किए गए संसाधनों का उपयोग केवल नियमों, कानूनों और विनियमों के अनुसार ही नहीं, बल्कि ‘निष्ठा, बुद्धिमत्ता और मितव्ययिता’ के आधार पर करना चाहिए।

सार्वजनिक व्यय के उनके ये सिद्धांत नीडोनॉमिक्स (आवश्यकताओं की अर्थव्यवस्था) की अवधारणा में समाहित हैं और नीति निर्माताओं के लिए दिशा-निर्देशक का कार्य करते हैं। इन सिद्धांतों की सबसे विशेष बात यह है कि ये किसी विचारधारा (ism) के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते। कोई भी देश छोटा या बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र रखे, ये सिद्धांत समान रूप से लागू होते हैं।

पहला सिद्धांत है निष्ठा (Faithfulness) – यह उस विश्वास की बात करता है जिसे जनता अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपती है। यह सिद्धांत शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करता है, जो केवल ‘अच्छे शासन’ का दावा नहीं बल्कि नीडो-गवर्नेंस के रूप में सामने आता है।

दूसरा सिद्धांत है मितव्ययिता (Economy) – इसका अर्थ केवल किफायत नहीं है, बल्कि संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से है जिससे समाज का अधिकतम कल्याण हो। हर एक रुपया अपनी गिरती क्रय-शक्ति के बावजूद सार्थक हो, यही इसकी आत्मा है।

तीसरा सिद्धांत है बुद्धिमत्ता (Wisdom) – इसका तात्पर्य है व्यय निर्णयों में दूरदर्शिता और सामान्य ज्ञान का समावेश, केवल नियमों का पालन पर्याप्त नहीं। डॉ. अंबेडकर का मानना था कि दिल्ली दरबार के बाहर के आर्थिक विशेषज्ञों की भूमिका भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है।

सिर्फ निष्ठा और बुद्धिमत्ता पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि उनके साथ व्यावहारिक निर्णय और निष्पक्ष कार्यान्वयन भी आवश्यक है। इन सिद्धांतों के माध्यम से सार्वजनिक व्यय के उद्देश्य, साधनों और उपयोग के बीच संतुलन सुनिश्चित किया जा सकता है।

आज जब विश्व आर्थिक अनिश्चितताओं से जूझ रहा है, तब अंबेडकर के सिद्धांत विवेक और विवेकशीलता के प्रकाशस्तंभ के रूप में उभरते हैं। ये नीतिगत पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए एक कसौटी प्रदान करते हैं।

डॉ. अंबेडकर को केवल एक समाज सुधारक और संविधान निर्माता के रूप में ही नहीं, बल्कि एक अद्वितीय आर्थिक चिंतक के रूप में भी याद किया जाना चाहिए। वे आर्थिक चिंतन के ऐसे अनसुने नायक हैं, जिन्हें उनकी वैश्विक भूमिका के अनुरूप मान्यता मिलनी चाहिए।

जब हम उन्हें एक नीडोनॉमिस्ट के रूप में सम्मान देते हैं—जिसे नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट के प्रवर्तक प्रोफेसर मदन मोहन गोयल ने प्रतिपादित किया है—तब हम उनकी बौद्धिक विरासत का न केवल सम्मान करते हैं, बल्कि उनकी विचारधारा को वैश्विक आर्थिक विमर्श का हिस्सा भी बनाते हैं। आइए, उनकी जयंती पर उनके अमूल्य सिद्धांतों को अपनाकर एक सतत और समृद्ध भविष्य की ओर बढ़ें।

*लेखक तीन बार कुलपति रह चुके हैं (स्टेरेक्‍स यूनिवर्सिटी, जगन्नाथ यूनिवर्सिटी, राजीव गांधी राष्ट्रीय युवा विकास संस्थान, भारत सरकार) तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के सुपरएनुएटेड प्रोफेसर हैं। वे नीडोनॉमिक्स स्कूल ऑफ थॉट के प्रवर्तक हैं।

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