शहीद-ए-आज़म भगत सिंह : व्यक्तित्व, चिंतन, विरासत और वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता: पुनर्मूल्यांकन

          Dr Ramjilal

डॉ. रामजीलाल, पूर्व प्रिंसिपल, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा)
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(समाज वीकली)- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में शहीदे -आजम भगत सिंह का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा है. प्रत्येक भारतवासी को  उन पर गौरव था, है और  सदैव रहेगा .वह एक गंभीर अध्येता, मौलिक चिंतक, दार्शनिक, दूरदर्शी, युग दृष्टा क्रांतिकारी, युगपुरुष, तर्कशील यथार्थवादी, सामाजिक वैज्ञानिक एवं उत्कृष्ट श्रेणी के राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीयवाद एवं मानवता के प्रेमी थे. उनके चिंतन में त्याग, बलिदान, दृढ़ निश्चय ,जवाहरलाल नेहरू की भांति धर्मनिरपेक्षता, ईश्वर में अनास्था  इत्यादि  मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है. वह हिंदू -मुस्लिम एकता के समर्थक व संप्रदायिकता के विरूद्ध, डॉ बी.आर अम्बेकर की भांति छुआछूत व जातिवाद के उन्मूलन के समर्थक थे. उनके चिंतन में  किसानों और मजदूरों के संबंध में श्रृंखलाबद्ध विवरण मिलता  है. कार्ल मार्क्स, एंजेल व  लेनिन की भांति  उनका मूल उद्देश्य भारत में पूंजीवाद -विदेशी अथवा  भारतीय  का समूल उन्मूलन करके ऐसी व्यवस्था तथा समाजवादी सरकार की स्थापना करना था जिस पर किसानों और मजदूरों का नियंत्रण हो ताकि उनको शोषण से मुक्ति प्राप्त हो.

परंतु विद्वानों, शोधकर्ताओं एवं सर्व साधारण जनता का अधिकांश भाग यह नहीं जानता कि लाहौर षड्यंत्र अभियोग में गिरफ्तारी से फांसी लगने (सन 1929 -23 मार्च 1931)के चंद दिन पूर्व भगत सिंह के व्यक्तिक शौर्यवाद, अराजकतावाद, आतंकवाद तथा मध्यवर्गीय दुस्सहसवाद का परित्याग करके कर दिया था और वह कार्ल  मार्क्स  ,एंजेल तथा लेनिन के चिंतन से प्रभावित होकर समाजवादी क्रांतिकारी चिंतकों की श्रेणी के में अग्रणीय  हो गए थे.

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ तथा उनका शहीदी दिवस 23 मार्च 1931 है .23 मार्च 1931 को भगत सिंह की आयु 23 वर्ष 5 महीने, 27 दिन थी. इस अल्पायु में भगत सिंह 716 दिन जेल में रहे तथा उन्होंने 64 दिन निरंतर भूख हड़ताल की . भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो अध्ययन किया उसका चित्रण उसके द्वारा लिखी गई द्वारा लिखी गई जेल डायरी , जेल से लिखे पत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भगत सिंह गंभीर अध्येता, मौलिक चिंतक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री दूरदर्शी, विवेकशील, तर्कशील, यथार्थवादी, बुद्धिवादी, सामाजिक वैज्ञानिक थे. भगत सिंह की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था यदि एक और बहुत भगत सिंह सौंदर्य के उपवास, कला प्रेमी, मानवता प्रेमी , संगीत और फिल्म प्रेमी व शौकीन थे तो दूसरी ओर वह समाजवादी क्रांतिकारी ऐसे दार्शनिक थे जिनको भारत की जनता एवं विश्व को गर्व है क्योंकि ऐसे व्यक्ति विरले ही पैदा होते हैं. वास्तव में भगतसिंह एक “ध्रुव तारे” की भांति अथवा ‘उल्कापिंड’ की भांति आकाश में चमकते रहते हैं. भगत सिंह युवा वर्ग के ‘हृदय सम्राट’ और ‘शहीदों के राज कुमार’ है. भगत सिंह के चिंतन के संबंध में अनेक प्रश्नों और अवधारणाओं का परीक्षण करने से पूर्व भगत सिंह के जीवन का संक्षिप्त चित्रण करना अत्यंत आवश्यक है.

भगत सिंह का संक्षिप्त जीवन चरित्र एवं करिश्मावादी व्यक्तित्व

भगत सिंह (जन्म 28 सितंबर 1907 — शहादत 23 मार्च1931) का जन्म 28 सितंबर 1907 को सुबह 9:00 बजे हुआ .इनके पिता जी नाम सरदार किशन सिंह(सन् 1878- सन् 1951) और माता जी (पंजाब माता) का नाम विद्यावती कौर था . इनकी मृत्यु 1 जून 1975 में हुई थी. भगत सिंह का जन्म स्थान चक नंबर 105, ग्राम  बंगा तहसील जेंरावाला, जिला लायलपुर (अब–फैसलाबाद -पाकिस्तान) में है. यदि ऐतिहासिक कड़ियों को जोड़ा जाए तो भगत सिंह का जन्म दिन 19 अक्टूबर 1907 होना चाहिए. इस बात का समर्थन भगत सिंह के साथी  जितेंद्र सान्याल, क्रांतिकारी लेखक मन्मन  नाथ गुप्त, भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु , इतिहासकार चमन लाल इत्यादि के अनुसार भगत सिंह का जन्म 19 अक्टूबर 1907 सुबह 9:00 बजे हुआ है. परंतु सामान्यत: 28 सितंबर 1907 को ही उनके  जन्म दिन की धारणा प्रचलित है.

भागोवाला से भगत  सिंह

भगत सिंह के जन्म के समय ही बंगा में समाचार पहुंचा कि स.अजीत सिंह जेल रिहा होने के पश्चात घर वापस आ रहे हैं. इसी दिन अन्य समाचार भी पहुंचा की स.किशन सिंह भी नेपाल से लाहौर आ गए थे और स.स्वर्ण सिंह जेल से रिहा होने के पश्चात भगत सिंह के जन्म  पहले ही घर पहुंच गए थे. परिवार में दोहरी खुशियां थी .स. किशन सिंह, स. अजीत सिंह और स.स्वर्ण सिंह  की जेल से रिहाई के  साथ-साथ पुत्र के जन्म के कारण   घर में प्रसन्नता का वातावरण था .जब भगत सिंह की दादी जय कौर ने अपने पौत्र का मुंह देखा तो उसने नवजात शिशु को भागोवाला (भाग्यवान) माना तथा बाद में नाम भगत सिंह रखा गया. भगत सिंह के जन्म के समय यह अनुमान लगाना अत्यंत कठिन था .यह बच्चा आने वाले समय में अथवा भविष्य में भारतीय समाज, राजनीति और भविष्य में होने वाले आंदोलनों पर गहरी छाप छोड़ेगा तथा अपने बहुमूल्य क्रांतिकारी समाजवादी विचारों के कारण आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ‘मार्गदर्शक’ तथा ‘लाइट हाउस’ के समान होगा और भारतीय इतिहास में अपने बहु आयामी व्यक्तित्व की अभूतपूर्व विरासत भी छोड़ेगा.

शिक्षा

भगत सिंह ने प्राथमिक शिक्षा बंगा तथा मैट्रिक डीएवी हाई स्कूल, लाहौर से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त करने हेतु नेशनल कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया. उस समय लाहौर राजनीतिक गतिविधियों का उत्तर- पश्चिमी भारत का सर्वोत्तम केंद्र था. भगत सिंह ने एफ.ए की परीक्षा पास  की  और बी.. करते हुए पढ़ाई छोड़ कर हमेशा के लिए में कूद पड़े .

भगत सिंह का परिवार एक राजनीतिक और क्रांतिकारी परिवार था. परिणाम स्वरूप मां के गर्भ से लेकर बाल्यकाल तक परिवारिक परिस्थितियों का प्रभाव पडना अति अनिवार्य है. भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह एक राजनीतिक व्यक्ति थे तथा वह कांग्रेस पार्टी की गतिविधियों में निरंतर भाग लेते थे. भगत सिंह के पिताजी स. किशन सिंह, चाचा स. अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह तीनों ही क्रांतिकारी और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेते थे. चाचा स.अजीत सिंह  के नेतृत्व में अफ़गानिस्तान बॉर्डर से दिल्ली बॉर्डर तक किसान आंदोलन( पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन-(सन्1906 -सन् 1907)चलाया गया. दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का प्रथम बड़ा आंदोलन था. इस आंदोलन में मुख्य मुद्दों -तीन कृषि कानूनों– नया कॉलोनी एक्ट जिसके अंतर्गत किसानों की जमीन जब्त की जा सकती थी, बढ़ी हुई मालगुजारी (राजस्व) और बारी दो-आब नहर के पानी की  बढ़ी हुई दर के विरुद्ध मार्च 1907में  लायलपुर में एक विशाल जनसभा में लाला बांनके दयाल   के द्वारा ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ कविता पढ़ी गई . इस कविता में किसानों की मार्मिक एवं कष्टमय जिंदगी का वर्णन किया गया है .  ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ कविता लोक कविता के रूप में आज तक प्रसिद्ध है. इसीलिए किसान आंदोलन (सन्1906 -सन्1907) को पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के नाम से भी पुकारते हैं

रावलपिंडी की विशाल जनसभा में स. अजीत सिंह  जो  ओजस्वी भाषण दिया उसको ब्रिटिश सरकार ने ‘विद्रोह और देशद्रोह’ का  भाषण मानकर उन पर धारा 124 ए के अंतर्गत केस दर्ज कर दिया. अंग्रेजी सरकार को यह आशंका थी कि  पंजाब के किसानों के बेटे जो पुलिस और मिलिट्री में है वह बगावत कर सकते हैं. इसलिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा. यह किसानों की सबसे बड़ी जीत थी ठीक वैसे ही जैसे सन् 2000 सन् 2021 केअभूतपूर्व व अतुल्नीय राष्ट्रीय किसान आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा तीनों कृषि कानूनों को लेना पड़ा . यह भी किसानों की अभूतपूर्व विजय के रूप  माना जाती है.

रावलपिंडी के भाषण(11 अप्रैल 1907) तथा किसान आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण स. अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को 1818 के रेगुलेशन 3 के अंतर्गत सजा के तौर पर 6 महीने के लिए   मांडले जेल (बर्मा -अब मयांमार) में निष्कासित कर दिया गया और 11 नवंबर 1907 को इन दोनों नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया..

इस आंदोलन के समय 11 अप्रैल 1907 को भगत सिंह के चाचा स. अजीत सिंह ने रावलपिंडी विशाल जनसभा जो भाषण दिया .रावलपिंडी के भाषण(11 अप्रैल 1907) तथा किसान आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण स. अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को उसके आधार पर तत्कालीन अधिनियम की धारा 124 ए के अंतर्गत देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया .1818 के रेगुलेशन 3 के अंतर्गत सजा के तौर पर 6 महीने के लिए   मांडले जेल (बर्मा -अब मयांमार) में निष्कासित कर दिया गया . परन्तु  सेना तथा पुलिस मे किसानों के बेटों  में बगावत के भय से मई1907 में अंग्रेजी साम्रज्यवादी सरकार को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा .11 नवंबर 1907 को सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय की रिहाई हुई थी.

इसके बाद अजीत सिंह सन्1909 में देश को आजाद कराने हेतु संघर्ष करने के लिए विदेशों में चले गए और 15 अगस्त 1947 को भारत लौटे और उसी दिन उनकी डलहौजी में मृत्यु हो गई .भगत सिंह के दूसरे चाचा स. स्वर्ण सिंह जेल में साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा दी गई यात्राओं के कारण 23 वर्ष की आयु में सन, 1910 में स्वर्ग सिधार गए. चाची (चाचा सरदार स्वर्ण सिंह पत्नी)के विधवा होने के कारण तथा हरनामकौर (अजीत सिंह पत्नी)के एकांगी जीवनके कारण भगत सिंह के शादी न करने के निर्णय को भी प्रभावित किया है.अतः इन सभी परिस्थितियों के कारण से भगत सिंह के रोम-रोम व रक्त धमनियों में देश प्रेम, स्वतंत्रता की भावना के प्रति प्रेम , बलिदान और त्याग की भावना माताजी श्रीमती विद्या देवी कौर की गोद में समानी प्रारंभ हुई.

भगत सिंह के चिंतन पर अपने परिवार के सदस्यों का प्रभाव केवल राजनीतिक और क्रांतिकारी गतिविधियों तक ही सीमित नहीं था अपितु भगत सिंह के परिवार में प्रचलित आर्य समाज तथा सिक्ख धर्म के रीति-रिवाजों का प्रभाव भी था. भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह सिक्ख होते हुए भी आर्य समाज से प्रभावित थे .आर्य समाज और सिक्ख धर्म में अनेक सिद्धांत सामान्य है जैसे एकेश्वरवाद में  आस्था ,मूर्ति पूजा का खंडन और विरोध ,जाति प्रथा और ऊंच-नीच का विरोध इत्यादि .आर्य समाज के प्रभाव के कारण भगतसिंह ने  गायत्री मंत्र का जाप करना सीखा तथा सिक्ख धर्म के प्रभाव के कारण  दाढ़ी और केस भी बढ़ाएं .परंतु कॉलेज में पहुंचकर उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य के प्रभाव के कारण तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण पहचान छुपाने के लिए 19 वर्ष की आयु में सिक्ख धर्म के प्रतीकों का परित्याग कर दिया और सन् 1922 के अंत तक ‘उद्घोषित नास्तिक’ हो गए

3. विश्व का प्रथम महायुद्ध और जलियांवाला बाग के प्रायोजित एवं षड्यंत्रकारी नरसंहार का प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध( 1914-1918)के समय अंग्रेजी सरकार ने यह कहा था कि यह युद्ध प्रजातंत्र के लिए लड़ा जा रहा है .भारतीयों को  उम्मीद थी की युद्ध समाप्त होने के पश्चात  उन्हें स्वच्छता प्राप्त हो जाए .यही कारण है के युद्ध में भारतीयों ने तन ,मन, धन से  अंग्रेजी सरकार का समर्थन किया. परिणाम स्वरूप  सेना में 11,00,000 भारतीय थे. विश्व युद्ध के समय समस्त भारत में लगभग 74,000  भारतीयों ने इस युद्ध में जीवन निछावर कर दिया .युद्ध के समय  जबरन भर्ती और जबरन चंदा इकट्ठा किया गया .केवल यही नहीं भुखमरी ,बेरोजगारी ,महंगाई और प्रशासनिक अत्याचार के कारण जनता में रोष भी था .युद्ध समाप्त होने के पश्चात अंग्रेजी सरकार ने क्रांतिकारी गतिविधियों और आंदोलनों पर रोक लगाने के लिए  रौलट एक्ट  पास कर दिए. इन अधिनियम का समस्त भारत में विरोध हुआ क्योंकि इसके अंतर्गत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को वकील. दलील और अपील का अधिकार नहीं था .

रौलट एक्ट का विरोध करने के परिणाम स्वरूप पंजाब में सैफुद्दीन किचलू तथा सतपाल जैसे लोकप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन लगभग 20,000 से 30000 तक व्यक्ति  अमृतसर के जलियांवाला  बाग में जो कि सिक्ख धर्म के सर्वश्रेष्ठ और पूजनीय स्थान स्वर्ण मंदिर(गोल्डन टेंपल )के पास है वहां इकट्ठे हुए .बैसाखी का त्यौहार उत्तर भारत में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है.  इन काले कानूनों का विरोध शांतिपूर्ण ढंग से किया जा रहा था .परंतु  पंजाब सरकार की सुनियोजित नीति के कारण नीति के आधार पर ब्रिगेडियर जनरल रेनाल्ट एडवर्ड डायर के नेतृत्व में 90 सैनिकों की टुकड़ी के साथ जलियांवाला  बाग गए और शांय 5.15 मिंट पर बिना चेतावनी दिए गोली चलाने के आदेश दिए . सैनिक टुकड़ी ने लगभग 1650 फायरिंग गोलियां समाप्त होने तक चलती रही .लगभग 10 से15 मिनट में सिविल सर्जन अमृतसर के सिविल सर्जन  सुमिथ के अनुसार 18 00लोग मारे गए. मरने वालों में 41 लड़के तथा 6 सप्ताह की बच्ची भी थी. जलियांवाला  बाग   के कुंए से  लगभग 200 लाशें  निकाली गई. जलियांवाला बाग सुनियोजित नरसंहार सन् 1857  के पश्चात जलियांवाला  सुनियोजित नरसंहार अमानवीयता का  सबसे बड़ा प्रथम  उदाहरण है.  इस नरसंहार  के पश्चात भारतीय जनता में रोष चरम सीमा पर पहुंच गया तथा भगत  सिंह व उधम सिंह जैसे असंख्य युवा  क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर अग्रसर  होने लगे.

जलियांवाला बाग नरसंहार के डेढ़ वर्ष के पश्चात कांग्रेस पार्टी के द्वारा महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया.  पश्चात महात्मा गांधी ने वादा किया था कि 1 वर्ष में स्वराज की प्राप्ति हो जाएगी .परंतु चौरा- चौरी हत्याकांड व हिंसात्मक घटना के पश्चात महात्मा गांधी ने 5 फरवरी  1922  आंदोलन वापस ले लिया.यह आंदोलन 1 वर्ष 2 महीने चला परंतु उपलब्धि के बिना आंदोलन उस समय वापस लेना जब चरम सीमा पर था .कांग्रेस पार्टी के नेताओं- मोतीलाल नेहरू ,जवाहरलाल नेहरू ,सुभाष चंद्र बोस इत्यादि ने इस निर्णय की आलोचना की उधर दूसरी ओर युवा वर्ग-  भगत सिंह और उसके साथियों का विश्वास महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी से हमेशा के लिए उठ गया और भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधि क्रांतिकारी मार्ग पर अग्रसर हो गए.

सिख इतिहास में ननकाना नरसंहार (शक ननकाना साहिब ) 20 फरवरी 1921 का एक महत्वपूर्ण स्थान है. ननकाना साहिब   (अब पाकिस्तान)गुरु नानक देवजी की जन्मस्थली है .यहां पर गुरुद्वारा स्थापित है.   धार्मिक स्थलों का प्रबंधन ब्रिटिश सरकार के अधीन था व प्रबंधन कमेटी के आधार पर उन व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था जो ब्रिटिश सरकार सरकार का वफादार होना चाहिए । की हर प्रकार से सहायता करते थे ।  ब्रिटिश सरकार का वफादार होना चाहिए धार्मिक स्थलों के प्रबंधन कमेटी के आधार पर उन व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था जो ब्रिटिश सरकार की हर प्रकार से सहायता करते थे । प्रबंधक बनने के लिए उसी धर्म का होना अनिवार्य नहीं था जिस धार्मिक स्थल का प्रबंधक उसे बनाया जा रहा है । बस शर्त यह थी कि वह ब्रिटिश सरकार का वफादार होना चाहिए । ब्रिटिश सरकार इसका उपयोग अपने निजी स्वार्थों के लिए करती थी शिरोमणि कमेटी के द्वारा गुरुद्वारों के प्रबंधन के लिए सुधार आंदोलन चलाया गया क्योंकि उस समय गुरद्वारा ननकाना साहिब पर वंशानुगत पारंपरिक प्रबंधक नारायण दास का नियंत्रण था तथा ब्रिटिश सरकार का उनको पूर्ण समर्थन प्राप्त था. शिरोमणि कमेटी ने गुरुद्वारे का प्रबंधन लेने के लिए शांति मार्च की .परंतु नारायण दास ,सरकारी अधिकारियों तथा भाड़े के पश्तून सैनिकों केगठबंधन के द्वारा  शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर आक्रमण कर दिया है .अधिकारिक तौर पर इस संघर्ष में  86 सिख शहीद हुए .परंतु गैर आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार शहीद होने वालों की संख्या 100 से 200 तक मानी जाती है. जब सरकार में आंदोलन की गंभीरता को देखा तो ननकाना साहिब की चाबियां शिरोमणि कमेटी को सौंप दी.

ब्रिटिश सरकार ने ऐलान किया कि अगर किसी ने  आंदोलनकारियों (जत्थे) का सेवा सत्कार किया तो उसे अंजाम भुगतने होंगे .  14 साल के भगत सिंह के नेतृत्व में गांव वालों ने ननकाना साहिब के रास्ते में अपने गांव से गुजरने आंदोलनकारियों का स्वागत  व सत्कार किया व स्वयंसेवकों को लंगर रसोई से भोजन परोसा  . भगत सिंह के नेतृत्व का यह पहला अवसर था

नाभा के महाराजा रीपू दमन सिंह राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक होने के कारण राष्ट्रवादियों से सहानुभूति रखते थे. महाराजा रिपुदमन सिंह के रेस्टोरेशन के लिए  अकाली आंदोलन चलाया गया. इस आंदोलन में भगत सिंह ने भी भाग लिया .उस समय उनकी आयु 16 वर्ष की थी

भगत सिंह की सोच भारत और दुनिया के कई क्रांतिकारियों, अराजकतावादियों, नास्तिकों और विद्वानों से प्रभावित है। भारतीय क्रांतिकारियों शचींद्रनाथ सान्याल, कानपुर के काजी नजरुल इस्लाम ने भगत सिंह की सोच को रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी से यथार्थवादी क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट बनाने के लिए। विद्रोही, कीर्ति किसान पार्टी के नेता सोहन सिंह जोश, साम्यवाद के जनक, कार्ल मार्क्स की पुस्तक द कैपिटल, लेनिन की जीवनी का प्रभाव थी।

इसके अलावा भगत सिंह अपनी सोच, अराजकतावादी विद्वानों – बाकुनिन की पुस्तक गॉड एंड स्टेट, निर्लाम्ब स्वामी की पुस्तक सहज ज्ञान आदि के कारण न केवल क्रांतिकारी ही नही बल्कि नास्तिक भी हो गए थे। उनकी सोच आयरलैंड, फ्रांस, इटली और रूस (पूर्व सोवियत संघ) के क्रांतिकारी आंदोलनों से भी प्रभावित थी।

भारतीय और विदेशी क्रांतिकारियों का प्रभाव इनके अलावा जहां तक भारतीय क्रांतिकारियों का संबंध है, उनमें गदर पार्टी के 20 वर्षीय छात्र करतार सिंह करतार सिंह सराभा और भाई प्यारा सिंह को भी ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर चढ़ा दिया था, जिसकी एक अभूतपूर्व और गहरी उसके दिमाग पर प्रभाव, गुरु गोविंद सिंह जी, शिवाजी,कमल पाशा, गैरीबाल्डी, रजा खान, जॉर्ज वाशिंगटन, लेनिन, लाफयेते और कैवोर की जीवनी ने भी उन्हें बहुत प्रभावित किया. फ्रांसीसी अराजकतावादी वेला की आत्मकथा का भी भगत सिंह की सोच पर प्रभाव पड़ा क्योंकि वेला ने फ्रांसीसी असेंबली में बम भी फेंका था. 8 जून 1929 को भगत सिंह और बीके दत्त द्वारा असेम्बली बम कांड में दिए गए भाषण से प्रतीत होता है.

भगत सिंह की साम्यवादी चिंतन में रुचि इस बात से भी प्रकट होती है कि उनके वकील प्राणनाथ मेहता ने उन्हें ‘लेनिन का जीवन चरित्र’ नामक पुस्तक भेंट की थी. 23 मार्च 1931 को जब फांसी के तख्ते तक ले जाने के लिए पुलिस कर्मी आए तो भगत सिंह महान क्रांतिकारी लेनिन के जीवन संबंधित इस पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे. पुलिस कर्मियों के पुकारने पर भगत सिंह ने कहा “एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है”.अतः स्पष्ट है कि भारतवर्ष के आंदोलनकारियों एवं क्रांतिकारी युवाओं के लिए विशेषतया भगत सिंह के लिए “लेनिन एक नई प्रेरणा और आदर्श व्यक्तित्व थे”.

केंद्रीय सरकार के द्वारा केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान संसद) में पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया.यह बिल के अनसार सरकार   किसी भी व्यक्ति को बिना किसी कारण के गिरफ्तार कर सकती थी .यह राष्ट्रवादी आंदोलनकारी गतिविधियों को नियंत्रण में करने का एक षड्यंत्र था. इस बिल पर 8 अप्रैल 1929 को जब बहस चल रही थी तो भगत सिंह और उसके साथी बीके दत्त ने असेंबली में बम और पर्चे फेंके और यह नारा लगाया कि बैहरों के कान खोलने के लिए धमाका जरूरी था. वास्तव में भगत सिंह और बीके दत्त का किसी व्यक्ति की हत्या करने का कोई इरादा नहीं था .अगर ऐसा होता तो विधानसभा में बैठे  सारे नेता मारे जाते  .यह घटना ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार के लिए भंयकर चुनौती थी क्योंकि असेंबली में जाकर धमाका करना आसान काम नहीं था. दोनों क्रांतिकारी अपनी जगह खड़े रहे और पुलिस को स्वत: गिरफ्तारी  दी. 7 मई 1929 को मजिस्ट्रेट बीपी पूल की अदालत में मुक्दमा चलाया गया. अभियोजन पक्ष के वकील ने क्रांतिकारियों पर यह आरोप लगाया कि उनके द्वारा यह ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक “युद्ध” की घोषणा थी. जिला मजिस्ट्रेट बीपी पूल के द्वारा  आरोप तैयार करके रिपोर्ट जिला न्यायाधीश लियोनार्ड मिडिलटन को सौंप दी. इस अभियोग में जज लियोनार्ड मिडिलटन  ने 6 जून 1929 को भगत सिंह व बीके दत्त को विधानसभा में बम फेंकने ,हत्या का प्रयास करने ,आर्म्स एक्ट तथा एक्सप्लोसिव एक्ट के अंतर्गत 14 वर्ष की कैद का निर्णय दिया.

ब्रिटिश सरकार के द्वारा जब चेम्सफोर्ड रिफॉर्म्स 1919 लागू किए गए तो उस समय यह कहा गया था कि भारत में 10 वर्ष के बाद इन सुधारों का अध्ययन करने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की जाएगी. इंग्लैंड के  तत्कालीन प्रधानमंत्री ने  सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक कमीशन की नियुक्ति की गई. इसको  साइमन कमीशन के नाम से पुकारते हैं . इसके सभी 7 सदस्य  ब्रिटेन के सांसद थे. इनमें एक भी भारतीय नहीं था .इसलिए इसको ‘श्वेत कमीशन’ के नाम से भी पुकारा जाता है .साइमन कमीशन की घोषणा 8 नवंबर 1927 को की गई और 3 फरवरी 1928 को यह आयोग मुंबई (भारत) पहुंचा. साइमन कमीशन का विरोध समस्त भारत में यत्र तत्र सर्वत्र मुंबई से लेकर कोलकाता तक और मद्रास( अब चनैई)से लेकर लाहौर तक किया गया. यह नारा लगाया गया साइमन कमीशन गो बैक. लाहौर में  साइमन कमीशन का विरोध लाला लाजपत राय के नेतृत्व में किया गया .पुलिस के प्रहार के कारण उनकी मृत्यु 17 नवंबर 1928 को हो गई .भगत सिंह के परिवार का लाला लाजपत राय के साथ गहरा संबंध था और भगत सिंह स्वयं भी लाला लाजपत राय के साथ विचार विमर्श करते थे. एक बार तो लाला लाजपत राय ने यह भी कहा कि भगत सिंह मुझे ‘कम्युनिस्ट ‘बनाना चाहता है.

लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला भगत सिंह और उसके साथियों ने लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए पंजाब पुलिस के सुपरिनटैंडैंट जेम्स ए. स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई गई .लाला लाजपत राय की मृत्यु (17 नवंबर 1928) के एक महीने पश्चात( 17 दिसंबर 1928) को लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर जब असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस   सांडर्स  दफ्तर से बाहर निकले   उन्होंने उसे जेम्स ए स्कॉट  समझकर  वही गोलियां मार कर ढेर कर दिया.  इतिहासकार चमनलाल के अनुसार पहली गोली राजगुरू ने दागीऔर इसके पश्चात भगतसिंह ने गोलियों की बौझार करके  लाला जी की मृत्यु का बदला लेकर भारतीय गौरव की रक्षा की. जब पुलिस हेड कांस्टेबल चरण सिंह भगत सिंह को पकड़ने के समीप था तो उस समय योजना के अनुसार चंद्रशेखर आजाद जो ‘बैक अप प्लान’ के अनुसार मौजूद थे उन्होंने उसे ढेर कर दिया .

पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह एक  अधिकारी के रूप में और क्रांतिकारी दुर्गा भाभी –क्रांतिकारी श्रीमती दुर्गा देवी वोहरा  (क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की धर्मपत्नी क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के नाम से पुकारते थे) -भगत सिंह  की पत्नी के रूप में  तीन साल के बच्चे के साथ फर्स्ट क्लास ट्रेन के डिब्बे में बैठ कर कोलकाता के लिए रवाना हो गए. इनकी सुरक्षा के लिए राजगुरु ने अर्दली का काम किया और उधर दूसरी ओर चंद्रशेखर आजाद एक साधु के भेष में मथुरा पहुंच गए(.

ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सांडर्स और हेड कॉन्स्टेबल चरण सिंह   की हत्या के संबंध में लाहौर में  10 जुलाई 1929 को मुकदमा प्रारंभ होने के पश्चात विशेष न्यायाधिकरण की स्थापना की गई. इस मुकदमें का ड्रामा चलता रहा तथा 7 अक्टूबर 1929 को न्यायाधिकरण  ने 50 पृष्ठ का निर्णय दिया. ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सांडर्स हत्याकांड का मुकदमा विशेष न्यायाधिकरण में 15 महीने चला. ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को , सांडर्स और हेड कॉन्स्टेबल चरण सिंह की हत्या का दोषी ठहरा दिया और मृत्युदंड की सज़ा सुना दी. इस मुकदमे में सरकारी वकील राय बहादुर सूर्यनारायण थे तथा भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के वकील कांग्रेस के नेता आसफ अली थे..

भारत सरकार के द्वारा  न्यायाधीश सैय्यद आगा हैदरअली पर दबाव डाला गया कि भगत सिंह को फांसी दी जाए. परंतु न्यायाधीश सैय्यद  आगा हैदरअली ने सरकार के दबाव को नकारते हुए अपने पद दे दिया .यह भारतवासियों के लिए एक गौरव की बात है.न्यायाधीश जे.सी .हिल्टन  के द्वारा भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु  को फांसी सजा दी गई.

परंतु जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन पूर्व 23 मार्च 1931शाम को 7.30 बजे लाहौर की जेल की पिछे से दीवार तोड़ कर केंद्रीय जेल में फांसी दे गई .तीनों महान क्रांतिकारियों -भगत सिंह ((जन्म -28 सितंबर 1907-शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931– गांव बंगा-अब पाकिस्तान,),सुखदेव (पूरा नाम- सुखदेव थापर जन्म 15 मई 1907- शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931–  लुधियाना, पंजाब )और राजगुरु (जन्म 24 अगस्त 1908-  शहीदी दिवस  23 मार्च 1931 -पूरा नाम– शिवराज हरि राजगुरु जन्म स्थान खेड़ गांव, महाराष्ट्र—- मराठी)  के शवों को जेल से बाहर निकाला गया . इसी रात ही फिरोजपुर के निकट हुसैनीवाला बॉर्डर -सतलुज नदी के तट पर तीनों शव को ले जाकर सामूहिक चिता बनाई गई और मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया है. इन तीनों शहीदों के शवों को सतलुज नदी में फेंक दिया गया .परंतु सुबह होने से पूर्व ही गांव वालों ने शवों को नदी से बाहर निकाल कर अंतिम संस्कार किया . द ट्रिब्यून (लाहौर) में 24 मार्च 1931 प्रथम पृष्ठ पर इस घटना को प्रकाशित किया. परिणाम स्वरूप जन आक्रोश चरम सीमा पर पहुंच गया है. मुंबई, मद्रास, बंगाल ,पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में जनसैलाब आंदोलित हो गया ,जनता एवं पुलिस के मध्य सन् 1857 के पश्चात पहली बार इतनी भयंकर मुठभेड़े हुई. परिणाम स्वरूप इस संघर्ष में 141 भारतीय शहीद हो गए , 586 व्यक्ति घायल हुए एवं 341 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया.

विजय शंकर सिंह के अनुसार एडवोकेट, इम्तियाज रशीद कुरेशी ने इस अभियोग में कुछ कमियों के आधार पर लाहौर हाई कोर्ट में याचिका दायर की हुई है. यह याचिका   पाकिस्तान के प्रसिद्ध  न्यूज़ पेपर डॉन की साइट पर उपलब्ध है .इस याचिका के अनुसार मुकदमे की सुनवाई में अनेक कमियां विद्यमान है. पुलिस थाने में दर्ज एफ आई आर में भगत सिंह और साथियों का नाम दर्ज नहीं है और हीं  इस बात की पुष्टि तफ्तीश में हुई है .उनका नाम संदेह के रूप में भी  में दर्ज नहीं है . एफ आई आर में दो युवकों का नाम लिखा हुआ है तथा बाद में सुखदेव और राजगुरु का का नाम जोड़ा गया .भगत सिंह का नाम विवेचना में कब आया इसका जवाब पुलिस अभियोजन अदालत के पास नहीं था. एक अध्यादेश के आधार पर न्यायाधिकरण स्थापित किया गया था जबकि  कानून के आधार पर  स्थापित होना चाहिए था. भगत सिंह उसके साथियों को जिस अदालत के द्वारा सजा सुनाई गई थी डेथ वारंट  उसके द्वारा जारी नहीं किया गयाजिन लोगों ने माफी मांग ली थी उनको सरकारी गवाह के रूप में प्रस्तुत किया गया और 450 गवाहों में से बचाव पक्ष को  का क्राश एग्जामिन अनुमति नहीं गयी. लाहौर षड्यंत्र के मुक़दमे की गैर कानूनी सुनवाई और भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को दुर्भावनापूर्ण तरीके से मृत्यु दंड देकर न्याय की हत्या करने के लिए अंग्रेजी सरकार के द्वारा माफी मांगने के लिए  अपील लाहौर हाईकोर्ट में की गई है..

जब जनता को यह पता चला कि भगत सिंह की अर्द्ध जली बाजू आई हुई है. धारा 144 लगाने के बावजूद भी मिंटों पार्क तथा लाहौर में उसकी अर्द्ध जली बाजू को देखने के लिए लाखों लोगों का जनसैलाब एकत्रित हो गया. भगत सिंह के मित्र कांग्रेस पार्टी के युवा ओजस्वी  वक्ता डॉ. मोहम्मद  आलम ने अपने भाषण में कहा कि ‘मैं अपने उस कंधे को चुमता हूं जिसने भगत सिंह के पवित्र अर्थी को उठाया’ . इस अवसर पर मौजूद पत्रकार  बृजनाथ शर्मा ने लिखा कि मिंटो पार्क में ‘मानव सिरों एक समुद्र’ नजर आ रहा था .भगत सिंह के दादा स.अर्जुन सिंह भगत सिंह के शरीर का  जला हुआ भाग लेकर एक टेबल पर खड़े होकर  कहा कि ‘मेरा पौत्र जो मक्खन खाता था आज उसके मृतक बॉडी को चीटियां खा रही हैं’. ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत जिंदाबाद’ के नारों की आवाज नम आंखों के साथ गूंज रही थी.

इस ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते हुए पत्रकार कुलदीप नैयर लिखा कि ‘फाँसी की खबर जंगल की आग की तरह लाहौर और पंजाब के अन्य शहरों में फैल गयी.नौजवानों की छोटी-बड़ी टोलियाँ जगह-जगह ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए रात भर जुलूस निकालती रही. अगले दिन पूरे शहर में हड़ताल रही.सभी दुकानें बंद रहीं.टोडी सरकारी कॉलेज को छोड़कर सभी स्कूल और कॉलेज भी बंद रहे. दोपहर के आसपास लाहौर के कई हिस्सों में जिला  मजिस्ट्रेट की तरफ से यह नोटिस लगा दिया गया कि भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु के पार्थिव शरीरों को सतलुज नदी के किनारे हिन्दू और सिख रीति-रिवाजों के अनुसार दाह संस्कार कर दिया गया है. नीला गुम्बद से एक विशाल शोक यात्रा निकाली गयी. यह जगह उस जगह से ज्यादा दूर नहीं थी जहाँ सांडर्स की हत्या की गई थी. तीन मील से भी ज्यादा लम्बे इस जुलूस में हिन्दू,मुसलमान और सिख हजारों की संख्या में शामिल थे.पुरुषों ने काले पट्टे बाँध रखे थे जबकि स्त्रियों ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं.वे सब ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे.पूरा इलाका काले झंडों के समुद्र की तरह दिखाई दे रहा था. जुलूस अनारकली बाजार के बीचों बीच मॉल के पास कुछ देर के लिए रुका, जहाँ यह घोषणा की गई कि भगत सिंह का परिवार तीनों शहीदों के अवशेषों के साथ फिरोजपुर से लाहौर पहुँच चुका था ।”

भगत सिंह की जन्म स्थली और कर्म स्थली पाकिस्तान  रही है . भगत सिंह का जन्म स्थान चक नंबर 105, ग्राम  बंगा ,तहसील जेंरावाला, जिला लायलपुर (अबफैसलाबाद )-पाकिस्तान में हुआ. भगत सिंह की शिक्षा एवं विद्यार्थी के रूप में राजनीतिक सोच परिवार के अतिरिक्त लाहौर की शिक्षण संस्थाओं में हुई है .इसके अतिरिक्त उसका कार्य क्षेत्र अधिकांश लाहौर रहा है तथा लाहौर में ही अंग्रेजी पुलिस अधिकारी सांडर्स तथा पुलिस हवलदार चरण सिंह की हत्या भी लाहौर में की गई थी,लाहौर की सेंट्रल जेल में भगत सिंह ने सजा काटी और  उसी जेल में उन्हें 23 मार्च को 1931 को फांसी के फंदे पर लटकाया गया .यहां अब शादमान चौक हैशादमान चौक पर भगत सिंह का जन्म दिन शहीदी दिवस मनाया जाता है. इस प्रकार भगत सिंह की जन्मस्थली और कर्म स्थली पाकिस्तान है और भगत सिंह को पाकिस्तान की जनता विशेष कर युवा वर्ग आदर्श पथ प्रदर्शक मानता है. भगत सिंह कि  एक मात्र ऐसा शहीद है जिसको भारत और पाकिस्तान में सम्मान ,आदर और गौरव के साथ देखा जाता है तथा दोनों ही मुल्कों के आंदोलनों मेइंकलाब जिंदाबादके नारे लगाए जाते हैं . भगत सिंह जितना लोकप्रिय भारत के युवा वर्ग में है उतना ही लोकप्रिय वह पाकिस्तान के युवा वर्ग में भी हैं.हसरत मोहानी के ‘‘इंकलाब जिन्दाबाद’’ के नारे को साकार करने वाले भगत सिंह थे.

बंगा में भगत सिंह के परिवार की हवेली आज भी सुरक्षित है्. सन 1985 में जब भगत सिंह के भाई कुलतर सिंह बंगा पहुंचे तब हवेली  मुस्लिम मालिक को यह खबर लगी कि यह हवेली भगत सिंह के परिवार की है तो उन्होंने इसको सुरक्षित रखा हुआ है तथा यहां भगत सिंह के परिवार , भगत सिंह ,क्रांतिकारी भगत सिंह के साथियों के  चित्रों का म्यूजियम बनाया हुआ है. जिस स्कूल में भगत सिंह ने प्राथमिक शिक्षा पास की थी अब इस का नाम भगत सिंह स्कूल है.और इस समय.  बंगा गांव की भगतपुर भगतपुर के नाम से पहचानन हैं.

भगत सिंह की साम्यवादी चिंतन में रुचि इस बात से भी प्रकट होती है कि उनके वकील प्राणनाथ मेहता ने उन्हें ‘लेनिन का जीवन चरित्र’ नामक पुस्तक भेंट की थी. 23 मार्च 1931 को जब फांसी के तख्ते तक ले जाने के लिए पुलिस कर्मी आए तो भगत सिंह महान क्रांतिकारी लेनिन के जीवन संबंधित इस पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे. पुलिस कर्मियों के पुकारने पर भगत सिंह ने कहा “एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है” .अतः स्पष्ट है कि भारतवर्ष के आंदोलनकारियों एवं क्रांतिकारी युवाओं के लिए विशेषतया भगत सिंह के लिए “लेनिन एक नई प्रेरणा और आदर्श व्यक्तित्व थे”.

इन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से भगत सिंह की वैज्ञानिक चेतना, राजनीतिक जागरूकता तथा समाजवादी क्रांति के संबंध में वचनबद्धता प्रकट होती है. लेनिन की वर्षगांठ पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को तार द्वारा शुभकामनाएं भेजना भगत सिंह के चिंतन का स्रोत है.’कौम के नाम संदेश’ में समझौता क्या है?, कांग्रेस का उद्देश्य क्या है? , नौजवान का कर्तव्य क्या है?, क्रांति क्या है ? इंकलाब नारा क्यों लगाते हैं ?,नये सुधारों की गति क्या है?इत्यादि प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं.

इनके अतिरिक्त पंजाब के गवर्नर के नाम पत्र( 20 मार्च 1931), अपने पिताजी के नाम पत्र (4 अक्टूबर1930), बीके दत्त के नाम पत्र (यह पत्र भगत सिंह ने नवंबर 1930 में फांसी की सजा सुनाए जाने के पश्चात अपने साथी के बीके दत्त को लिखा जो उस समय सैलम (मद्रास) की जेल में थे),गदर पार्टी के क्रांतिकारी लाला रामशरण दास की पुस्तक’ “ड्रीमलैंड” में भगत सिंह द्वारा फांसी घर से 15 जनवरी 1931 को लिखी भूमिका,एच एस आर ए का घोषणा पत्र ,भारत के युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र,(2फरवरी 1931) , भगत सिंह का बहुत अधिक महत्वपूर्ण लेख ‘मैं नास्तिक क्यों ?’

भगत सिंह का बहुत चर्चित एवं महत्वपूर्ण लेख’उसकी शहादत के बाद लाहौर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘द पीपुल’ में 27 दिसंबर 1931को प्रकाशित हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने धार्मिक पूजा पाठ, आत्मा- परमात्मा ,पुनर्जन्म, मृत्यु उपरांत स्वर्ग लोक अथवा नरक की परिकल्पना, पाप- पुण्य ,भूत –प्रेत, दुष्ट आत्माओं इत्यादि अवधारणाओं का क्रमबद्ध तरीके से खंडन किया.. भगत सिंह का मानना था कि” ईश्वर में विश्वास और रोज -बेरोज की प्रार्थना को मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ मानता हूं”. भगत सिंह का यह लेख समस्त भारत में बहुत अधिक चर्चित रहा. दक्षिण भारत में समाज सुधारक पेरियार के द्वारा तमिल भाषा में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र’-कुडाई आरसू ‘में 22 और 29 मार्च 1931 को प्रकाशित हुआ. वास्तव में यह लेख यथार्थवादी चिंतन एवं बौद्धिकता का अद्भुत एवं मौलिक मिश्रण व सर्वोच्च रचना है. इस आधार पर भगत सिंह अधिकांश क्रांतिकारियों, राजनेताओं तथा पत्रकारों से बिल्कुल भिन्न थे. मार्क्सवादी प्रभाव के कारण सन् 1922 तक भगत सिंह पूर्णतया नास्तिक बन गए. यही कारण है कि फांसी लगने का भय भी भगत सिंह को विचलित ना कर सका.

फांसी लगने से एक दिन पूर्व 22 मार्च 1931को दुर्गा भाभी- (क्रांतिकारी भगवती चरण वर्मा की क्रांतिकारी धर्मपत्नी श्रीमती दुर्गा देवी का क्रांतिकारी आंदोलन में विशेष स्थान है) को लिखा पत्र अंतिम सारगर्भित दस्तावेज है. इन सभी लेखों तथा पत्रों के आधार पर हम भगत सिंह को लेनिनवादी- मार्क्सवादी क्रांतिकारियों की कतार में ‘विलक्षण क्रांतिकारी ‘मानते हैं. ये सभी दस्तावेज भगत सिंह की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य स्रोत हैं. भगत सिंह के चिंतन का प्रतिबिंब ‘शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जेल डायरी’ (2011) में साफ दिखाई देता है.इससे पूर्व भूपेंद्र हूजा (संपादित) ए मार्टियरस नोटबुक (जयपुर 1994) – भगत सिंह की जेल नोटबुक का संपादन किया गया .

इस का हिंदी रूपांतरण विश्वनाथ मिश्र (अनुवाद व संपादन) ‘शहीदे आजम की जेल नोटबुक’ ,लखनऊ से प्रकाशित हुई . भगत सिंह की जेल नोटबुक के संबंध में एल.वी मित्रोंखिन लिखा कि “एक महान विचारधारा का दुर्लभ साक्ष्य है.” भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जेल डायरी के अतिरिक्त चार पुस्तकें भी लिखी—1. आत्मकथा,2. समाजवाद का आदर्श ,3.भारत में क्रांतिकारी आंदोलन और क्रांतिकारियों का संक्षिप्त जीवन परिचय तथा 4.मृत्यु के द्वार पर. परंतु यह पुस्तकें के कहां है? इस संबंध में अभी तक कोई जानकारी नहीं है.

भगत सिंह के चिंतन एवं विचारधारा का क्रांतिकारी दस्तावेज भगत सिंह तथा बीके दत्त का सत्र न्यायाधीश की अदालत में लिखित ब्यान (8जून 1927) महत्वपूर्ण है. संक्षेप में भगत सिंह ने मार्क्सवादी- क्रांतिकारी समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया ताकि पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण का अंत हो .वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें उत्पादन और वितरण के साधनों पर किसानों व मजदूरों- सर्वहारा वर्ग का नियंत्रण हो .एक ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जहां मानव के द्वारा मानव का शोषण न हो.

गणेश शंकर विद्यार्थी प्रताप (कानपुर), के संपादक की प्रेरणा व प्रभाव के कारण भगत सिंह एक सफल ,निर्भीक और स्वतंत्र पत्रकार बने.भगत सिंह के लेख विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. इनमें प्रताप (कानपुर), वीर अर्जुन (दिल्ली), वंदे मातरम उर्दू साप्ताहिक पत्रिका (लाहौर), कीर्ति साप्ताहिक पत्रिका (पंजाब), बंगाली भाषा की साप्ताहिक पत्रिका मतवाला (कोलकाता), द पीपुल (लाहौर) मुख्य हैं.

अपने लेखों में लेखक के रूप में छद्म नामों ‘ बलवंत’, ’विद्रोही’, ’बीएस संधू’, ‘पंजाबी युवक’ इत्यादि का प्रयोग करते थे.एक सफल पत्रकार के लिए भाषा की उत्कृष्ट तथा गुणवत्ता पूर्ण जानकारी होना बहुत जरूरी है. शहीद-ए-आजम भगत सिंह इस बात से अवगत थे. उनकी पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ और महारत हासिल थी. इनके अतिरिक्त बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों और क्रांतिकारी समाचार पत्रों में संपर्क स्थापित करने के लिए तथा अपने लेख प्रकाशित करने के लिए बटुकेश्वर दत्त से बांग्ला भाषा भी सीखी. परंतु इसमें अधिक महारत हासिल नहीं थी. इसके बावजूद भी वह बांग्ला भाषा में लेख लिखते थे और प्रकाशित भी होते थे. भगत सिंह ने विभिन्न  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, किसान व मजदूर ,समाज की तत्कालीन, समस्याओं पर लेख लिखें. इनमें “पंजाबी भाषा की लिपि और उसकी समस्या “,  ” युवक “, ” कौम के नाम संदेश “,  ” विद्यार्थी और राजनीति “, “अछूत समस्या  “, “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज “, “मेरे क्रांतिकारी साथी “, ” विश्व प्रेम “, “मैं नास्तिक क्यों हूं” इत्यादि मुख्य लेख हैं.

भगत सिंह ने ‘बलवंत’ उपनाम से कोलकाता से प्रकाशित होने वाली बांग्ला भाषा की साप्ताहिक पत्रिका “मतवाला” (कोलकाता) में 15 नवंबर 1924 तथा 22 नवंबर 1924 लेख लिखे. इन लेखों में विश्व शांति, युद्ध उन्मूलन, अंतरराष्ट्रीय संस्था तथा विश्व प्रेम पर बल दिया. इसी पत्रिका में 16 मई 1925 को ’युवक’ शीर्षक नाम से एक और लेख प्रकाशित हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने युवाओं को राष्ट्र के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरणा दी.

भगत सिंह एक गंभीर अध्येता थे .उनको भारत के किसानों एवं श्रमिकों की स्थिति का वास्तविक एवं गहरा ज्ञान था. किसानों व श्रमिकों की स्थिति का वर्णन करते हुए भगत सिंह ने कहा:
‘समाज का प्रमुख अंग होते भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प करते जाते हैं .दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं .दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढ़कने भर को कपड़ा नहीं पा रहा है. सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार, बढ़ई गंदे बाड़ो में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते. हैं इसके विपरीत समाज के जोंक, शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा -न्यारा कर देते हैं.’

भगत सिंह के शहादत के पश्चात 27 सितंबर 1931 को ‘द पीपल‘ (लाहौर) में ‘मैं नास्तिक क्यों’? लेख प्रकाशित हुआ. यह लेख यथार्थवादी चिंतन एवं बौद्धिकता का अद्भुत एवं मौलिक मिश्रण है. इस लेख में भगत सिंह ने पूंजीवादियों के द्वारा श्रमिक वर्ग के शोषण का वर्णन किया है. पूंजीवादियों के द्वारा श्रमिकों के शोषण के संबंध में इस लेख में भगत सिंह ने लिखा :
‘कारावास की कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों तथा बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों -लाख इंसानों के समुदाय से लेकर ,उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्य पूर्वक या कहना चाहिए, निरुतसाह हो कर देख रहे हैं तथा उस मानव शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देख कर कोई भी व्यक्ति जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है ,भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बांटने की बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक -जिनकी नींव मानव की हड्डियों के पर पड़ी है.उसको यह सब देखने दो और फिर कहे ‘सब कुछ ठीक है’ .क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है तुम चुप हो, ठीक है. तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूं ‘.
मजदूरों और किसानों को शोषण से तभी मुक्ति प्राप्त होगी जब राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में संपूर्ण बदलाव हो. एक ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जहां किसानों, मजदूरों, महिलाओं और आम आदमी को शोषण से मुक्ति प्राप्त हो. एक ऐसी व्यवस्था जहां धनी वर्ग की अपेक्षा सत्ता अथवा सरकारी मशीनरी पर भारतीय किसानों और मजदूरों का नियंत्रण हो ताकि शोषण, शोषण कर्ता और शोषण पर आधारित व्यवस्था समाप्त हो.

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को आतंकवादी दर्शाकर अपमानित करने कुचेष्टा

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हम विद्यार्थियों तथा युवा पीढ़ी को पाठ्यक्रम की पुस्तकों के माध्यम से भ्रमित कर रहे हैं. वर्तमान शताब्दी के प्रथम दशक में राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय ,शिक्षा संस्थान की बारहवीं कक्षा के इतिहास की पुस्तक में शहीदे आजम भगत सिंह को आतंकवादी दर्शाकर अपमानित करने कुचेष्टा की है.लगभग 8 वर्ष पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से संबंधित पुस्तक ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष ‘ के पृष्ठ नंबर 228 पर ‘भगत सिंह ,सूर्य सेन और क्रांतिकारी’, नामक लेख में  क्रांतिकारियों के लिए ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’, ‘आतंकवाद’, ‘आतंक’ ,’आतंकवादी’ इत्यादिशब्दावली   का प्रयोग किया गया है. सुधि पाठकों को यह बताना जरूरी है कि यह पुस्तक केंद्रीय सरकार के सहयोग से प्रकाशित हुई है.  भगत सिंह के साथ ‘आतंकवादी’ शब्दावली  जोड़ने के कारण भगत सिंह के वंशज और प्रशंसक दोनो ही बहुत अधिक आहत हुए हैं

शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के अध्यक्ष जून 2022 के उप -चुनाव में संगरूर लोकसभा सीट से निर्वाचित संसद सदस्य सिमरनजीत सिंह मान ने 18 जुलाई 2022 को भगत सिंह को आतंकवादी कहकर एक नया विवाद पैदा कर दिया. सिमरनजीत सिंह मान के इस कथन की आलोचना समस्त भारत में ही नहीं अपितु विश्व स्तर पर भी हुई . यहां यह बताना जरूरी है कि 13 अप्रैल 1919 वैशाखी के दिन जनरल डायर के द्वारा ‘नियोजित नरसंहार’ किया गया .इसमें अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन के अनुसार लगभग1800 निर्दोष स्त्री, पुरुष व बच्चों की निर्मम हत्या की गई थी. सिमरनजीत सिंह मान के नाना स.अरूढ़सिंह उस समय स्वर्ण मंदिर अमृतसर के अध्यक्ष थे .उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड के पिशाच जनरल डायर को स्वर्ण मंदिर में सम्मानित किया था. राजनेताओं को राष्ट्र के शहीदों को इस तरीके से अपमानित करने का अधिकार नहीं है तथा उन्हें इस प्रकार की बयानबाजी से परहेज करना चाहिए.

इससे पूर्व भी 8 अप्रैल 1929को पब्लिक सेफ्टी बिल पर केंद्रीय विधानसभा में बहस होनी थी भगत सिंह और बीके दत्त ने बम तथा लाल पर्चे फेंके थे. इस केस में इस बात को 6 जून 1929 को भगत सिंह और बीके दत्त ने स्वयं स्वीकार किया था. परंतु उनके पास पिस्टल नहीं थी. भगत सिंह ने इस अभियोग में अपनी पैरवी स्वयं की थी तथा बीके दत्त की पैरवी प्रसिद्ध वकील आसफ अली ने की थी( एआईआर ,1930, लाहौर, 226).

इस अभियोग में भगत सिंह और बीके दत्त उनके के विरुद्ध दो मुख्य गवाह थे –प्रथम , सरदार शोभा सिंह, द्वितीय, शादीलाल. इस अभियोग में खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह ( मानद मजिस्ट्रेट व सरकारी ठेकेदार )सुपुत्र सुजान सिंह ने भगत सिंह तथा बीके दत्त की न्यायालय में शिनाख्ती गवाह के रूप में गवाही दी थी. शोभा सिंह के पुत्र खुशवंत सिंह ने ‘हिस्ट्री आफ सिक्ख्स ’ में लिखा ‘भगत सिंह भारतीय क्रांतिकारी इतिहास के आतंकवादियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए’खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह ने स्वयं कहा ‘असेंबली बम केस में भगत सिंह को उम्रकैद और बाद में लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी की सजा हुई और मुझे (शोभा सिंह ) अपनी वफादारी का ईनाम तरह-तरह की उपाधियों के रुप में प्राप्त हुआ. पहले मुझे ‘सरदार बहादुर’की उपाधि मिली, फिर ‘नाइटहुड’की पदवी दी गई और उसके बाद मुझे विधान परिषद् के लिए मनोनीत कर लिया गया.’

सरकारी गवाह होने के कारण  शादी लाल को अकूत धन दिया गया तथा बागपत (उत्तर प्रदेश ) में जमीन भी दी गई. इस समय शादीलाल के  वंशज शामली (उत्तर प्रदेश ) में शुगर मिल और शराब का कारखाना चला रहे हैं . परंतु सरदार शोभा सिंह और शादीलाल समस्त आयु जनता की नजर में देशद्रोही और हत्यारे रहे हैं. यही कारण है कि जब शादीलाल की मृत्यु हुई  स्थानीय दुकानदारों ने उनके  परिवार वालों को कफन देने से भी इनकार कर दिया .यह कहा जाता है कि तब  दिल्ली से कफन मंगाया गया.

उधर दूसरी और पाकिस्तान में लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह और उसके साथियों के विरुद्ध सरकारी गवाह नवाब मोहम्मद अहमद खान था .पाकिस्तान बनने के पश्चात उसको मानद  मैजिस्ट्रेट लगाया गया.सन्1970 के दशक में नवाब मोहम्मद अहमद खान को  शादमन चौक ,जहां पहले केंद्रीय जेल लाहौर थी व भगत सिंह और उसके साथियों को फांसी दी गई थी उसी जगह घाट मौत के घाट उतार दिया गया.

अजय घोष ने लिखा कि ‘भगत सिंह में परंपरागत आतंकवादी नेता का एक भी लक्षण नहीं दिखाई देता था… और पहले के आतंकवादियों के धार्मिक विश्वासों का उन पर तनिक भी प्रभाव नहीं था’.

अन्य शब्दों में भगत सिंह और उसके साथियों के द्वारा अपनाए गए अहिंसा एवं अहिंसात्मक तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, नारेबाजी ,न्यायपालिका में ब्यान , पोस्टर बाजी, समाचार पत्रों में लेखों का प्रकाशन,पत्र लिखना ,जनता में प्रचार ,महत्वपूर्ण दिवस –मई दिवस, लेनिन दिवस मनाना इत्यादि, अन्य देशों क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करना, उदेश्य प्राप्ति के लिए वार्ता एवं समझौता तथा जनता को लामबंद करने के साथ-साथ आत्मिक और भौतिक बल का प्रयोग मुख्य स्थान रखते हैं .क्रांति के लिए दोनों का प्रयोग किया जा सकता है.

भगत सिंह और उसके साथियों के संबंध में अंग्रेजी साम्राज्यवाद सरकार के द्वारा यह प्रचार किया गया था कि वह आतंकवादी थे. इस बात के समर्थन में अनेक विद्वानों , आतंकवादियों व आतंकवादी संगठनों ने भी किया है .

भगत सिंह और उनके साथियों ने इस बात का खंडन किया है कि वह आतंकवादी थे .सांडर्स को गोली मारने का उद्देश्य व्यैक्तिक शत्रुता का बदला लेना नहीं था. ‘खून के बदले खून के सिद्धांत ‘में भगत सिंह की कोई आस्था नहीं थी. इस संबंध में भगत सिंह तथा बीके दत्त का दिल्ली के सत्र न्यायाधीश की अदालत में 8 जून 1929 को असेंबली अभियोग में लिखित बयान एक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी दस्तावेज है. इस दस्तावेज में भगत सिंह तथा बीके दत्त ने इस बात को स्पष्ट किया कि केंद्रीय विधानसभा में फेंके बमों का उद्देश्य किसी को मारना नहीं था अपितु ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को चेतावनी देना था. वे मनुष्य जीवन को पवित्र मानते थे तथा उनका मानव जाति प्रति अगाध प्रेम था.

आतंकवादी होने से आरोपों का खंडन करते हुए भगत सिंह तथा बीके दत्त ने कहा: ‘मनुष्य जीवन को पवित्र मानते हैं तथा मानव जाति से उन्हें अगाध प्रेम है. बर्बरता पूर्व करने वाले देश के खिलाफ नहीं हैं और ना ही पागल हैं…. हम पाखंड से घृणा करते हैं. असेंबली में खून बहाना हमारा उद्देश्य नहीं, अपितु बहरों को अपनी आवाज सुनाना और समय रहते उन्हें चेतावनी देना था’.

भगत सिंह ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए क्रांति को अनिवार्य माना.मार्क्स, एंजेल और लेनिन की भांति वह मेहनतकश जनता, मजदूरों व किसानों के क्रांतिकारी संगठनों पर बल देते थे . जिस प्रकार लेनिन का विश्वास था कि क्रांति के लिए पेशेवर क्रांतिकारियों के समर्थन का होना अनिवार्य है. उसी प्रकार भगत सिंह पेशेवर क्रांतिकारियों के साथ -साथ जन आंदोलन तथा जनशक्ति के बिना क्रांति को असंभव मानते थे. उन्होंने लाहौर केंद्रीय जेल के अधीक्षक को एक पत्र में लिखा:
‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमको बंमों और पिस्तौलों से विशेष लाभ नहीं होगा. बम चलाना निरर्थक नहीं अपितु हानिकारक भी होता है. हालांकि कुछ परिस्थितियों में उसकी आज्ञा दी जा सकती है. हमारा मुख्य उद्देश्य मजदूरों और किसानों को संगठित करना ही होना चाहिए.’

17 दिसंबर 1928 को सांडर्स को गोली से मार कर लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लिया था .परंतु इस बदले की भावना में भी क्रांतिकारी आवाज को बुलंद करना एवं राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए त्याग एवं बलिदान की भावना चरम सीमा पर थी . 18 दिसंबर 1928 को बांटे एवं चिपकाए गए पोस्टरों में लिखा था ‘अत्याचारी सरकार सावधान’. भगत सिंह के साथी अजय घोष नें अपनी पुस्तक(’ भगत सिंह और उसके साथी’, (दिल्ली, 1979 ) में लिखा कि ‘भगत सिंह में परंपरागत आतंकवादी नेता का एक भी लक्षण नहीं दिखाई देता था और पहले के आतंकवादियों के धार्मिक विश्वासों का उन पर तनिक भी प्रभाव नहीं था’.

8 अप्रैल 1929 को पब्लिक सेफ्टी बिल पर केंद्रीय विधानसभा में बहस होनी थी .भगत सिंह तथा बीके दत्त ने केंद्रीय विधान सभा (वर्तमान संसद) केंद्रीय हाल में जो बम पर्चे और लाल पर्चे भी फेंके. असेंबली में बम फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था . असेंबली में फेंके गए बम मानव जीवन को हानि पहुंचाने वाले नहीं थे. इस केस में इस बात को भगत सिंह और बीके दत्त ने स्वयं स्वीकार किया था.

इसके अतिरिक्त ‘क्रांति अमर रहे’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ तथा ‘दुनिया के मजदूर एक हो’के नारे भी लगाए. भगत सिंह व बीके दत्त वहां उपस्थित सदस्यों को गोलियों से भून सकते थे तथा वहां से भाग भी सकते थे .परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया . उन्होंने भागने की बजाय आत्मसमर्पण किया. बंगाल के क्रांतिकारियों ने उन्हें परामर्श दिया था कि वे बंम व पर्चे फैंक कर भाग जाएं ताकि फांसी से बचा जा सके. परंतु भगत सिंह व बीके दत्त अज्ञात मरना नहीं चाहते थे .वह अपनी कुर्बानी से जन क्रांति की ज्वाला को दावानल बना कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जलाकर राख बनाना चाहते थे. वे कुर्बानी के द्वारा जन क्रांति की ज्वाला भड़काना चाहते थे.

यद्धपि प्रारंभ में भगत सिंह एक’रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी’ थे .परंतु गहन अध्ययन के पश्चात उनके पुराने विचारों का स्थान’ तर्कसंगत. विचारों ने ले लिया. इन नए विचारों में ‘रहस्यवाद व अंधविश्वास’ का कोई स्थान नहीं था. भगत सिंह के शब्दों में’यथार्थवाद हमारा आधार बना. हिंसा तभी न्यायोचित है जब किसी विकट आवश्यकता में उसका सहारा लिया जाए. अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए.’ भगत सिंह उसके साथियों ने केवल दो बार हिंसात्मक साधनों का प्रयोग किया है – जेपी सांडर्स की हत्या करना तथा केंद्रीय विधानसभा में बम फैंकना.

अन्य शब्दों में भगत सिंह और उसके साथियों के द्वारा अपनाए गए अहिंसा एवं अहिंसात्मक तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, नारेबाजी ,न्यायपालिका में ब्यान , पोस्टर बाजी, समाचार पत्रों में लेखों का प्रकाशन,पत्र लिखना ,जनता में प्रचार ,महत्वपूर्ण दिवस –मई दिवस, लेनिन दिवस मनाना इत्यादि, अन्य देशों क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करना, उदेश्य प्राप्ति के लिए वार्ता एवं समझौता तथा जनता को लामबंद करने के साथ-साथ आत्मिक और भौतिक बल का प्रयोग मुख्य स्थान रखते हैं .क्रांति के लिए दोनों का प्रयोग किया जा सकता है.

संक्षेप में शहीद-ए-आज़मभगत सिंह आतंकवादी नहीं अपितु वैज्ञानिक समाजवादी क्रांतिकारी थे. भगत सिंह को आतंकवादी कहना उसके साथ घोर अन्याय और अपमानजनक है.

भगत सिंह अहिंसात्मक (गांधीवादी)तरीकों की ओर अग्रसर हो रहे थे और महात्मा गांधी स्पष्ट रूप में गांधीवादी तरीकों का परित्याग करते जा रहे थे.अन्य शब्दों में भगत सिंह और उसके साथियों के द्वारा अपनाए गए अहिंसा एवं अहिंसात्मक तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, नारेबाजी ,न्यायपालिका में ब्यान , पोस्टर बाजी, समाचार पत्रों में लेखों का प्रकाशन,पत्र लिखना ,जनता में प्रचार ,महत्वपूर्ण दिवस –मई दिवस, लेनिन दिवस मनाना इत्यादि, अन्य देशों क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करना, उदेश्य प्राप्ति के लिए वार्ता एवं समझौता तथा जनता को लामबंद करने के साथ-साथ आत्मिक और भौतिक बल का प्रयोग मुख्य स्थान रखते हैं .क्रांति के लिए दोनों का प्रयोग किया जा सकता है.  भगत सिंह के शब्दों में ‘अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए.’ यदि इस आधार पर देखा जाए तो भगत सिंह और उसके साथी अहिंसात्मक तरीकों के प्रयोग के आधार पर उन्हीं तरीकों का प्रयोग कर रहे थे जो महात्मा गांधी के द्वारा किये गए .

परंतु इसके विपरीत भारत छोड़ो आंदोलन(1942) का प्रारंभ होने से पूर्व महात्मा गांधी के द्वारा हिंसा के संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया . ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया गया जो किसी भी रूप में गांधीवादी नजर नहीं आती. महात्मा गांधी के द्वारा प्रयोग की शब्दावली में विद्रोह (Revolt), बगावत (Rebellion), खुली बगावत (Open Rebellion), कनफ्लैग्रेशन, ‘जितना संभव हो उतना छोटा और तेज़ “(As Short and as Swift as Possible–ऐज शॉर्ट एंड स्विफ्ट ऐज पॉसिबल), सबसे बड़ा आंदोलन ( Biggest Movement), करो या मरो( Do or Die) मुख्य हैं.

एक समय महात्मा गांधी ने कहा था कि “अगर मैं ब्रिटिश सरकार या मित्र शक्तियों पर कोई प्रभाव नहीं कर पाता हूं तो मैं चरम सीमा तक जाने में संकोच नहीं करूंगा”. अन्य शब्दों में भगत सिंह अहिंसात्मक (गांधीवादी)तरीकों की ओर अग्रसर हो रहे थे और महात्मा गांधी स्पष्ट रूप में गांधीवादी तरीकों का परित्याग करते जा रहे थे. इन सब के विपरीत भारत सरकार तथा भारत सरकार के राज दरबारी ,भगत सिंह के विरुद्ध गवाही देने वाले शोभा सिंह तथा शादी लाल भगत सिंह को आतंकवादी मानते हैं.

23 मार्च 2023 को जब विश्व भर में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का शहीदी दिवस मनाया जा रहा था तो लंदन में  खालिस्तानी समर्थकों ने  भगत सिंह के चित्र  को जलाया . इस चित्र में भगत सिंह को ‘सिख विरोधी’,’ पंजाब विरोधी’ और’ हिंदुस्तानी कामरेड’ दर्शाया गया है. यह घिनौनी हरकत ‘वारिस पंजाब दे ‘मुखिया और भगोड़े खालिस्तानी समर्थक अमृतपाल सिंह के समर्थकों के द्वारा की गई. ().

इस प्रकार के घिनौने कृत्य इससे पूर्व भी उन लोगों के द्वारा किए गए जो गौडसे पूजा करते हैं और महात्मा गांधी के पुतले पर गोली मारकर हत्या का ड्रामा करके खुशियां मनाते हैं .इन घिनौने कृत्यों से क्रांतिकारियों अथवा महात्मा गांधी या किसी अन्य देशभक्त भक्त का अपमान करने व्यक्तियों के विरुद्ध सरकार के द्वारा सख्त कार्रवाई की जाए क्योंकि यह अपमानजनक कार्य सामाजिक हित में नहीं होते तथा सामाजिक सदभावना व एकीकरण को ठेस पहुंचाते हैं.

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की शहादत ; महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू की छवि विच्छंद करने के लिए  झूठ का प्रचार

महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू के छवि विच्छंद करने के लिए यह प्रचार किया जाता है कि  महात्मा गांधी ने भगत सिंह और उसके साथियों को फांसी की सजा से बचाने के लिए  प्रभावशाली ढंग से प्रयास नहीं किया .यह दोषारोपण  करने वालों में गवर्नर जनरल  लॉर्ड इरविन, हर्बर्ट एमरसन( वायसराय की काउंसिल के सदस्य)  , यशपाल, मन्मथ नाथ गुप्त ,जीएस देओल ,एजी नूरानाजी इत्यादि मुख्य हैं .

 इनका मानना है कि महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी ने भगत सिंह और उसके साथियों को बचाने के लिए केवल औपचारिकता निभाई है और कोई ठोस कदम नहीं उठाया . महात्मा गांधी ने केवल बातचीत की लॉर्ड इरविन को पत्र लिखे .यद्दपि उन्होंने फांसी की सजा के परिवर्तन करने पर बल जरूर दिया.परंतु गांधीइरविन समझौता की शर्तों में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी से बचाने की शर्त नहीं रखी गई. 18 जनवरी 1931 को ने रोज नामचे में लिखा:

 ‘दिल्ली में समझौता हुआ उसे अलग और अंत में मिस्टर गांधी ने भगत सिंह का उल्लेख किया. उन्होंने फांसी की सजा रद्द करवाने के लिए कोई   पैरवी नहीं की पर साथ ही उन्होंने वर्तमान स्थितियों में फांसी को स्थगित करने के विषय में कुछ भी नहीं कहा.’

20 मार्च 1931 को महात्मा गांधी ने हर्बर्ट एमरसन( वायसराय की काउंसिल के सदस्यसे मुलाकात की . इस संबंध में एमरसन ने रोजनामचे  में लिखा :

 मि.गांधी इस मामले में अधिक चिंतित मालूम नहीं हुए .मैंने उनसे कहा कि यदि फांसी के फलस्वरूप व्यवस्था नहीं हुई ,तो यह बड़ी बात होगी. मैंने उसे कहा कि वह कुछ करें ताकि अगले दिनों में सभाएं हो और लोगों के उग्र व्याख्यानों  को भी रोके. इस पर उन्होंने स्वीकृति दे दी और कहा जो भी मुझ से हो सकेगा करूंगा.”

यह दोषारोपण   अवांछित,अनुचित , सरासर गलत,और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है . महात्मा गांधी का वायसराय को लिखा पत्र, जिसमें भगत सिंह की फांसी को कम करने की मांग की गई थी. इस दृष्टिकोण का समर्थन करने वालों में नेताजीसुभाष चंद्र बोस, डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या, मीरा बेन , एडवोकेट आसिफ अली, इतिहासकार बीएन दत्ता इत्यादि मुख्य है .ऐतिहासिक कड़ियों को जोड़ते हुए हम यह लिखने का प्रयास कर रहे हैं कि महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 4 मई 1930 को मुकदमे से सम्बंधित न्यायाधिकरण के गठन की आलोचना की थी .11 फरवरी 1931 को भगत सिंह उसके साथियों को फांसी की सजा से बचाने के लिए की गई अपील को प्रिवी कौंसिल( लंदन) के दवारा ठुकरा दिया गया .इसके पश्चात महात्मा गांधीइरविन समझौते के लिए 17 फरवरी 1930 से 5 मार्च 1930 तक मीटिंगें में हुई और पत्राचार भी हुआ .महात्मा गांधी ने 18 फरवरी 1931 को भारत के गवर्नर जनरल  लॉर्ड इरविन से फांसी को कम करने की बात की. 7 मार्च 1931को महात्मा गांधी ने दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए कहा: “मैं किसी को भी फांसी पर चढाय़े जाने के लिए पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता .भगत सिंह जैसे बहादुर व्यक्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं”.

राष्ट्रीय अभिलेखागार की ओर  से प्रकाशित ‘अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक व अन्य अंकों पर आधारित’ किताब में महात्मा गांधी के लेख  पुस्तक में सम्मिलित किया गया है . इस लेख में यद्यपि महात्मा गांधी ने हिंसा और हत्या की आलोचना की. परंतु भगत सिंह के गुणों –देशभक्ति, देश प्रेम ,साहस,  कुर्बानी और श्रम की अतुलनीय प्रशंसा की .अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हुए उन्होंने ने लिखा कि अंग्रेजी सरकार के पास क्रांतिकारियों के हृदय को के जीतने का ‘स्वर्णिम अवसर ‘था परंतु सरकार इसमें असफल रही .उन्होंने  भगत सिंह और उसके साथियों की प्रशंसा करते आगे लिखा ‘हमारी स्वतंत्रता को जीतने के लिए भगत सिंह और उसके साथी मरे हैं ’.भगत सिंह की मृत्यु के पश्चात जो जन भावावेश   उत्पन हुआ  इस संबंध में महात्मा गांधी ने कहा ‘परिवार के अतिरिक्त किसी की जिंदगी के संबंध में आज तक दिन इतना अधिक भावावेश नहीं किया गया जितना कि सरदार भगत सिंह के लिए किया गया है ‘.महात्मा गांधी ने नव युवकों की देशभक्ति की स्मृति के भावावेश में अपने आप को ‘सम्मिलित’ किया था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आत्मकथा –‘द इंडियन स्ट्रगल,1920-42’, पृ. 184) में लिखा है कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह को बचाने का अपना ‘सर्वोत्तम’ प्रयास किया.

जेल में चल रहे आमरण अनशन की खबरें ‘द ट्रिब्यून’ (लाहौर) में नियमित छप रही थीं. जवाहरलाल नेहरू व डॉ. गोपीचंद ने भगत सिंह और उसके साथियों से मुलाकात के पश्चात 8 अगस्त1929 को पत्रकारों से बातचीत की . द ट्रिब्यून (लाहौर) में 10 अगस्त 1929 को नेहरू का इंटरव्यू भी प्रकाशित किया गया. इस इंटरव्यू की हेड लाइन, “Pt. Jawaharlal  interviews hunger- strikers”, (‘द ट्रिब्यून’, 10 अगस्त 1929, पृ,1) थी. इस इंटरव्यू नेहरू ने भगत सिंह और उनके साथियों के इस अनशन का विवरण दिया और इन क्रांतिकारियों को जबरन खाना खिलाने की घोर निंदा करते हुए ब्रिटिश सरकार से कहा कि वह इन क्रांतिकारियों को राजनीतिक बंदी की सुविधाएं प्रदान करें. परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने फिर इन क्रांतिकारियों की जेल में सुविधाएं प्रदान करनी पड़ी. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी’आत्मकथा’ (पृ.204) में इस मुलाकात का वर्णन करते हुए बिल्कुल स्पष्ट लिखा है:

” मैं जब लाहौर में गया था तो यह भूख हड़ताल एक महीना पुरानी हो चुकी थी.मुझे कुछ कैदियों से जेल में जा कर मिलने की इजाज़त मिली थी. मैंने इस मौके का फायदा उठाया.मैंने भगत सिंह को पहली बार देखा और जतिन दास तथा अन्य भी वहीं थे. वे सभी बहुत कमजोर हो गए थे और बिस्तर पर ही पड़े थे, इसलिये उनसे बहुत मुश्किल से ही बात हो सकी. भगत सिंह एक आकर्षक और बौद्धिक लगे जो गज़ब के शांत और निश्चिंत.मुझे उनके चेहरे पर लेश मात्र भी क्रोध नहीं दिखा था.वे बहुत ही सौम्य लग रहे थे और शालीनता से बात कर रहे थे. लेकिन मैं यह सोच बैठा था कि जो एक महीने से भूख हड़ताल पर बैठा हो वह तो आध्यात्मिक व्यक्ति जैसा दिखेगा.जतिनदास तो और भी सौम्य, कोमल तथा लड़कियों जैसा दिखा.’

सुधि पाठकों को यहां यह बताना जरूरी है कि यद्यपि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह के विचारों में मूलभूत परिवर्तन था. इसके बावजूद भी यह सभी एक दूसरे के प्रशंसक थे. यह पारस्परिक सम्मान इस बात से भी प्राप्त होता है कि भगत सिंह ने अपने वकील प्राणनाथ को फांसी लगने से कुछ घंटे पहले यह कहा कि ‘मेरे अभियोग में रूचि लेने के कारण जवाहरलाल नेहरू तथा बाबू सुभाष चंद्र बोस को धन्यवाद देना’.

24 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जानी थी.भगत इस फैसले से खुश नहीं थे. उन्होंने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को एक खत लिखा कि उनके साथ युद्धबंदी जैसा सलूक किया जाए और फांसी की जगह उन्हें गोली से उड़ा दिया जाए.

22 मार्च 1931 को अपने क्रांतिकारी साथियों को लिखे आखिरी खत में भगत ने कहा- ”जीने की इच्छा मुझमें भी है, ये मैं छिपाना नहीं चाहता.मेरे दिल में फांसी से बचने का लालच कभी नहीं आया. मुझे बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है.”23 मार्च 1931 को तय वक्त से 12 घंटे पहले ही, शाम 7 बजकर 30 मिनट पर सुखदेव , भगत सिंह और राजगुरु को फांसी दे दी गई.

शहीद-ए-आज़मभगत सिंह इतना लोकप्रिय क्यों

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है. शहादत के 92 वर्ष के पश्चात भी भगत सिंह आज भी जनता के ‘हृदय सम्राट’ और ‘युवा वर्ग के राजकुमार’ हैं. इसका मूल कारण यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन  का नेतृत्व करने वाले तत्कालीन नेता महात्मा गांधी, ,जवाहरलाल नेहरू ,सुभाष चंद्र बोस तथा अन्य   उस समय की आर्थिक दृष्टि से अमीरों की श्रेणी में आते थे तथा उन्होंने यूरोप से शिक्षा ग्रहण की थी .इसके बिल्कुल विपरीत भगत सिंह क्रांतिकारी किसान परिवार से  थे और उनकी शिक्षा-दीक्षा पहले अपने गांव बंगा (अब पाकिस्तान)तथा मैट्रिक और एफ.ए. लाहौर में हुई है .इस आधार पर अगर देखा जाए तो उनका ग्रामीण जीवन से संबंधित होना होने के कारण तत्कालीन तथा समकालीन जनता और युवा वर्ग उनके साथ अधिक जुड़ा हुआ था और है क्योंकि उनको ग्रामीण  परिवेश की समस्याओं का अधिक  व्यवहारिक ज्ञान था..यूरोपियन शिक्षित नेताओं और आम आदमी में बहुत बड़ा अंतर था .इसलिए भगत सिंह  के साथ आम आदमी का जोड़ना जुड़ना संभव हुआ.

भगत सिंह के चिंतन पर पूर्णतया समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव होने तक प्रभाव के कारण भी उनका दृष्टिकोण किसानों, मजदूरों, दलितों और समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के सुधारों के पक्ष में था. भगत सिंह के चिंतन में यह बात बिल्कुल स्पष्ट थी कि उनका उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना ही नहीं था अपितु स्वतंत्र भारत में ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना था जिस पर किसानों और मजदूरों का नियंत्रण हो मानव द्वारा मानव के शोषण से मुक्ति प्राप्त हो. यह दृष्टिकोण भगत सिंह को अन्य नेताओं से अलग करता हैं और आम आदमी के साथ  जोड़ने को सुविधाजनक बनाता है.

मैं नास्तिक क्यों? इस लेख में भगत सिंह ने आत्मा ,परमात्मा, धर्म, जन्म-मरण, पुनर्जन्म ,भूत -प्रेत इत्यादि प्रखंडों का खुलकर विरोध किया ,चूंकि वह पूर्णतया नास्तिक थे और किसी धर्म विशेष से अन्य नेताओं तथा क्रांतिकारियों की भांति बंधे हुए नहीं थे, अतः उनकी यह विचारधारा हिंदू -मुस्लिम- सिख एकता व एकीकरण व सदभावना के लिए बिल्कुल सटीक बैठती है. यही कारण है कि भगत सिंह हिंदुओं ,मुसलमानों  सिक्खों  तथा भारत और पाकिस्तान में लोकप्रिय है. संक्षेप में उनके यह विचार बिल्कुल ही धर्म संक्षेप में उनका यह विचार पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करते हैं और इस दृढ़ निश्चय के साथ हिन्दुओें,मुसलमानों और सिक्खों को  साथ जुड़ने में कोई आपत्ति नहीं हुई. उस समय जब  विभिन्न राजनेता अपने- अपने धर्म के अनुयायियों को लामबंद कर रहे थे तथा तबलीगी और शुद्धीकरण जैसे कार्यक्रम आयोजित करने में लिप्त थे जिनके परिणाम स्वरूप संप्रदायिक सद्भाव ठेस पहुंचती है और सांप्रदायिक दंगों को बढ़ावा मिलता है. ऐसी स्थिति में भगत सिंह धार्मिक अंधभक्ति के विपरीत होने के कारण विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के लिए एक आदर्श प्रतीत होने लगे. परिणाम स्वरूप हिंदू ,इस्लाम वसिख धर्म के अनुयायियों को भगत सिंह के साथ जुड़ने में कोई संकोच नहीं हुआ

.इसके अतिरिक्त भगत सिंह का अदम्य साहस ,कुर्बानी देने के लिए उतावलापन एवं  विचलित ना होना भी आम जनता को पसंद आया. इसके बिल्कुल विपरीत राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी अथवा गांधीवादी नेता अंग्रेजी सरकार के साथ समझौता करने के लिए तैयार रहते थे .उनका मानना था यदि किसी से ₹1 लेना हो और वह एक आना दे तो ले लेना चाहिए और बाकी 15 आने के लिए संघर्ष करना चाहिए.  भगत सिंह ने इस समझौतावादी नीति कीआलोचना की जिसका प्रभाव विभिन्न धर्मों के युवा वर्ग पर अधिक पड़ा   क्योंकि युवा वर्ग हमेशा यथास्थिति वादी नहीं अपितु एकदम क्रांतिकारी परिवर्तनवादी होता है.

भगत सिंह अदम्य साहस, स्वतंत्र चिंतन तथा वैज्ञानिक सोच के कारण कुर्बानी देने में संकोच नहीं करते थे. केंद्रीय विधानसभा में बम फेंकने के पश्चात वहीं डटे रहे यद्यपि उन्हें आभास था कि आजीवन करावास होगी अथवा फांसी की सजा भी हो सकती है. सांडर्स हत्याकांड में उनका ब्यान ,जेल से लिखे पत्र यह सिद्ध करते हैं किवह कुर्बानी देने वाला उतावला युवक था .केंद्रीय लाहौर जेल में कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार हो इसके लिए उन्होंने लंबी हड़ताल करके कुर्बानी की भावना का एहसास कराया .भगत सिंह ने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को पत्र लिखा कि उनके साथ युद्ध बंदी जैसा सलूक किया जाए तथा उनको फांसी की जगह गोली से उड़ा दिया जाए. 22 मार्च 1931को क्रांतिकारी साथियों को पत्र लिखा ‘जीने की इच्छा मुझ में भी है यह मैं छिपाना नहीं चाहता. मेरे दिल में फांसी से बचने का लालच कभी भी नहीं आया .मुझे बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है’ .   केवल यही नहीं अपितु जब भगत सिंह के पिता जी ने भगत सिंह और उसके साथियों के लिए विशेष न्यायाधिकरण को स्पष्टीकरण करने के लिए पत्र लिखा तो भगत सिंह ने अपने पिताजी की आलोचना करते हुए यह पत्र यह पत्र लिखा कि वे असूल की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनका  उसूल जिंदगी से कहीं अधिक कीमतीहै भगत सिंह ने स्पष्ट लिखा ‘यदि कोई और मेरे साथ ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी समझता. लेकिन आपके लिए इतना ही कहूंगा कि यह एक कमजोरी है और इससे बुरी कमजोरी कोई नहीं है.’

संक्षेप में भगत सिंह का युवा वर्ग में सम्मान व आदर का मूल कारण उसका वैज्ञानिक चिंतन, संघर्ष, संपूर्ण धर्मनिरपेक्षता, कुर्बानी की उत्कृष्ट भावना, हिंदू मुसलमान व सिक्ख धर्मों के अनुयायियों को पसंद है आज भी पसंद है.  इसके अतिरिक्त भगत सिंह का संबंध ग्रामीण क्षेत्र से था जबकि अधिकांश राष्ट्रीय नेता  गांधीवादी   अथवा उदारवादी उनका संबंध   शहरी वर्ग से था. ऐसी स्थिति में ऐसी स्थिति में  आज भी युवाओं का आदर्श है और यही कारण उसकी लोकप्रियता के हैं .अन्य शब्दों में भगत सिंह युवा वर्ग में अपने विचारों , वैज्ञानिक विचारों, कुर्बानी ,भविष्य की योजना इत्यादि के कारण युवाओं में हमेशा लोकप्रिय रहेगें और इंकलाब जिंदाबाद का नारा हमेशा भगत सिंह की लोकप्रियता जिंदा रखेगा.

पंजाब के भूतपूर्व वित्त मंत्री मनजीत सिंह बादल के अनुसार भगत सिंह के द्वारा विद्यार्थियों का लामबंद करने के लिए चलाए गए आंदोलन,   सामूहिक रसोई संचालन , विचार विमर्श, नौजवान सभा की स्थापना, धर्मनिरपेक्ष मूल्य, विवेक शीलता ,अनुशासन व कर्म का महत्व इत्यादि के कारण मध्यवर्गीय,व गरी  युवा वर्ग में यह भावना उजागर हुई कि वह भी राष्ट्रीय संघर्ष में जाति ,वर्ग और धर्म से ऊपर उठकर योगदान दे सकते हैं.

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह अन्य ऱाजनेताओं, क्रांतिकारियों व साम्वादियों से अलग कैसे हैं?

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो प्रत्येक भारतीय के दिमाग में आता है कि देश के लिए त्याग और बलिदान करने वाले हजारों व्यक्ति थे.परन्तु भगत सिंह  अलग कैसे हैं इस प्रश्न का उत्तर भगत सिंह  के पूर्ववर्ती व तत्कालीन नेताओं तथा क्रांतिकारियों के लक्ष्यों का क्रमबद्ध वर्णन करना अनिवार्य है.

सर्वप्रथम राष्ट्रीय मेन स्ट्रीम नेताओं -उदार वादियों और कांग्रेस के नेताओं  विचारों को देखें तो उनका प्रारंभिक लक्ष्य   साम्राज्यवादी सरकार से वैधानिक सुधारों के द्वारा सुविधाएं प्राप्त करना और अंततः राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था.  कांग्रेस के नेताओं के द्वारा आंदोलन चलाए गए ,जनता को लामबंद किया गया तथा जेल की यात्राएं की, कष्ट भी सहन किए परंतु जीवन  न्योछावर करने के लिए तैयार नहीं थे .उनका उद्देश्य केवल राजनीतिक सुधारों और अपने- अपने संप्रदायों के लिए विधानपालिकाओं में सीटें प्राप्त करना था  तथा समझौता  करने के लिए तैयार रहते थे.

यद्यपि साम्यवादी और समाजवादी नेता भी भूमिगत तथा खुले तौर पर संघर्ष करते चले गए व जेल की यात्राएं भी सही परंतु जीवन बलिदान करने के लिए तैयार नहीं थे.

भगत सिंह अपने पूर्ववर्ती  तथा तत्कालीन क्रांतिकारियों से काफी प्रभावित थे और उनके प्रशंसक भी थे .वे उनके अदम्य शौर्य व साहस,  संघर्ष, जीवन की कुर्बानियों, अत्याचार को सहन करने की क्षमता एवं बुलंद हौसलों के समर्थक थे. यद्दपि भगत सिंह के पूर्व क्रांतिकारी समाजवाद और सामाजिक क्रांति का समर्थन तो करते थे परंतु वह धर्म तथा ईश्वरवाद में जकड़े रहे. मन्मथ नाथ गुप्ता के अनुसार भगत सिंह के पूर्व क्रांतिकारी समाजवाद का समर्थन तो करते थे.परंतु ईश्वरवादी व धार्मिक थे .उदाहरण के तौर पर क्रांतिकारी शचिंद्रनाथ सान्याल समाजवाद और रूस के समर्थक होने के बावजूद भी अनेश्वरवादी नहीं थे.

हमारा अभिप्राय यह है कि वे क्रांतिकारी तो थे परंतु साम्यवादी व अनेश्वरवादी नहीं थे. भगत सिंह ने अपने समकालीन काकोरी के शहीदों के बारे में लिखा कि काकोरी के चार सुप्रसिद्ध शहीद– रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी व अशफाकउल्लाह खान ने अपने जीवन की  अंतिम  घड़ियां प्रार्थना में बितायी.रामप्रसाद पक्के आर्य समाजी थे. राजेंद्र नाथ लाहिड़ी समाजवाद और साम्यवाद के गहन अध्येता होते हुए भी उपनिषद् और गीता  में विश्वास करते थे.

इन सब के विपरीत भगत सिंह ‘मैं नास्तिक क्यों?, नामक लेख में लिखा कि वे आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म इत्यादि में विश्वास नहीं करते . उनका यह मानना था कि “क्रांतिकारी के लिए आलोचना और स्वतंत्र चिंतन अपरिहार्य गुण है’. इसी स्वतंत्र चिंतन और स्वतंत्र भारत में वर्ग रहित वशोषण रहित ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं पर किसानों और मजदूरों की हकूमत स्थापित हो. ऐसी व्यवस्था  जहां न तो कोई भीख मांगने वाला हो और ना ही भीख देने वाला. दूसरे शब्दों में मानव द्वारा मानव का शोषण करने वाले साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और सामंतवादी व्यवस्थाओं का अंत हो. इन सभी विचारों के कारण भगत सिंह गांधीवादियों, उदारवादियों, समाजवादियों, साम्यवादियों और तत्कालीन क्रांतिकारियों से एकदम अलग थे.

भगत सिंह के साथी शिव वर्मा के अनुसार:

‘भगत सिंह पहले के क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी, लेकिन इस आजादी से हमारा अभिप्राय क्या है? इस पर उससे पहले दिमाग साफ न थे. क्या अंग्रेज वायसराय को हटाकर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा?. क्या समाज में आर्थिक समानता और उस पर आधारित मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही अर्थों में आजादी का उपयोग कर सकेंगे ?आजादी के बाद की सरकार किसकी होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी इत्यादि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी .भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय  के रूप में सामने लाकर रखा. उनका कहना था कि देश की आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभिनव पूरा अधूरा ही रह जाएगा .सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनीतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी. शोषण और असमानता के उन्मूलन  के सिद्धांत पर गठित समाजवादी समाज और  समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी. ‘समाजवाद उस समय युग की आवाज थी. क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना. यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था’.

संक्षेप में राजनीतिक व्यवस्था बदलने में परिवर्तन से आम जनता के आर्थिक और सामाजिक खुशहाली पर कोई व्यापक प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि शोषण जारी रहता है . भगत सिंह ने समाचार पत्र और पत्रिकाओं में जो विचार प्रकट किए हैं वह तब तक प्रसांगिक रहेंगे जब तक भारत में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, गरीब और अमीर में खाई, महंगाई इत्यादि का साम्राज्य रहेगा. वर्तमान समय में जिस प्रकार प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कारपोरेट का कब्जा है तथा पत्रकारों पर सरकार का नियंत्रण निरंतर बढ़ रहा है; ऐसी स्थिति में भगत सिंह वास्तव में इन पत्रकारों से बिल्कुल अलग ”ध्रुव तारे” की तरह चमकते हुए नजर आते हैं तथा भारतीय युवाओं के ‘महानतम प्रेरणा स्त्रोत’ एवं ‘हृदय सम्राट’ हैं.

अंतत: हमारा अभिमत है कि जब तक भारत में आर्थिक विषमता और असमानता, बेरोजगारी , भूखमरी, कुपोषण, बच्चों में विकार तथा लैंगिक असमानता विद्यमान हैं तब तक संघर्ष जारी रहेगा और भगत सिंहं का वैज्ञानिक समाजवादी चिंतन भी प्रासंगिक रहेगा. भगत सिंह के अनुसार इन सभी समस्याओं का केवल एक ही समाधान है और वह यह है कि भारतीय जनता- श्रमिकों और किसानों का राष्ट्रीय संसाधनों व सरकार पर नियंत्रण होना चाहिए और पूंजीपति वर्ग तथा कारपोरेट का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए. शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को उसकी विचारधारा और कुर्बानी के लिए भारत रत्न से सम्मानित किया जाए.

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