(समाज वीकली)
एक आम आदमी का उद्गार-
कहने को फिर नया साल आया है। मगर पिछले कुछ सालों में मेरे जीवन की समस्याएं कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ी हैं। कोरोना-महामारी से उजड़ा अभी तक संभला नहीं हूं। सैंकड़ों किलोमीटर भूखे-प्यासे पैदल यात्रा, पैरों के छाले, परिजनों की मौत दिन-रात पीछा करते हैं। धर्म, राजनीति, मीडिया और पूंजीपति का निकम्मापन बेनकाब है। मेरा वजूद और अस्मिता कुछ सेर अनाज की भीख तक सिमट गए हैं। लेकिन सन 2023 में भी मेरी बर्बादी का जश्न जारी है। कुछ लोग मेरे देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर तुले हैं तो कुछ बौद्धमय भारत। समझ नहीं आता मैं इस धर्म और राजनीति जिन्न से कैसे लड़ूं?
जो धर्म और राजनीति की मुहिम चला रहे हैं, उनके सामने मेरे जैसा रोजी-रोटी का संकट नहीं है। एहसास है मुझे इनके ऐसों-आराम मेरे समर्पण व मेरे जमीर की बंधुआ जमीन पर फलते-फूलते हैं। धर्म और राजनीति की संसद में मेरी व देश की बेहतरी के नहीं, मेरे बेवकूफीकरण की मुहिम नजर आती है। मुझे इस मुहिम के पुरोधाओं के चेहरों पर करुणा, भाईचारा व देशप्रेम की अपेक्षा मक्कारी दिखती है। इसलिए मुझे धर्म और राजनीति के चेहरे डराने लगे हैं। मेरी चिंता में मेरे अस्तित्व के सवाल हैं जो मेरे देश अस्तित्व से जुड़े हैं।
देश को लेकर मुझे एक जापानी कहावत याद आती है। इसका लब्बोलुआब है-एक जापानी बालक से सवाल है-‘यदि कोई आपके पिता पर आक्रमण करे तो आप क्या करेंगे?’ बालक-‘अगर कोई ऐसा करता है तो मैं उसकी गर्दन काट दूंगा।’ प्रश्न-‘अगर आपके पिता बुद्ध पर आक्रमण करें तो आप क्या करेंगे?’ बालक-‘अगर मेरे पिता बुद्ध पर आक्रमण करेंगे तो मैं उनका सिर धड़ से अलग कर दूंगा।’ अगर बुद्ध जापान पर आक्रमण करें तो आप क्या करेंगे?’ बालक-‘अगर बुद्ध मेरे जापान पर आक्रमण करेंगे तो मैं बुद्ध की गर्दन उड़ा दूंगा।’
इस संवाद की विश्वसनीयता की जांच की बजाय मैं संदेश पर फोकस करना चाहूंगा-‘देश सर्वोपरि है।’ धर्म, राजनीति या कोई भी इंसानी रिश्ता देश से बड़ा नहीं होता। देश किसी राजनेता, धर्म विशेष, धर्म गुरुओं या किसी बहुसंख्यक समुदाय से नहीं बनता। यह देश के समस्त नागरिकों से मिलकर बनता है। मेरी चर्चा के केन्द्र में देश और जन-साधारण के सरोकार हैं। ये धर्म और राजनीति के चंगुल में फंसे हैं। इनकी मुक्ति के लिए प्रतिरोध की दरकार है।
बेशक धर्म और राजनीति, देश व जन-साधारण के साथ अक्सर खिलवाड़ करते हैं। यदि नहीं, तो हमारी गुलामी का इतिहास इतना लम्बा व अंधकारमय ना रहा होता। इस गुलामी के मूल में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा आदि की संकीर्णता का आधिपत्य है। इस आधिपत्य के प्रतिरोध में सन 1938 में डा. अम्बेडकर ने कहा था-‘मैं चाहता हूं कि सारे लोग पहले भी भारतीय रहें, अंत में भी भारतीय और भारतीय के अतिरिक्त और कुछ न रहें।’ यह टिप्पणी उन्होंने उन शातिर लोगों के लिए कही थी जो कहते थे-‘हम पहले भारतीय हैं और बाद में कुछ और।’
देश की गुलामी के लिए हम बाहरी आक्रांताओं पर आरोप लगाते है। ‘फूट डालो और राज करो’ के फार्मूले को उनके शोषण-उत्पीड़न हथियार बताते हैं। लेकिन मुझे कहना है-‘फूट डालो और राज करो’ स्वदेशी विरासत है। वर्ण और जाति के बंटवारे तो हमारे तथाकथित हिन्दू धर्म के मूलाधार हैं। संविधान के विरोध के बावजूद, ये धर्म व राजनीति से पोषित हैं। जितने भी धर्म और जाति को लेकर दंगे-फसाद और नरसंहार होते हैं वे इसी फार्मूले की देन हैं। शहरों, गली-मुहल्ले और चौराहों के नाम बदलना और इतिहास के गड़े मुर्दों को सांप्रदायिकता में रंगना इसी फार्मूले की जद में आता है। ये देश को खंडित करने वाली अवसरवादी ताकतें हमारे ही बीच मौजूद हैं, खूब फल फूल रहीं हैं।
अंग्रेजों ने हमारी ‘फूट डालो और राज करो’ की बैलगाड़ी में पेट्रोल इंजन लगाकर रफ्तार दी। यह फार्मूला आज हमारे देश में धर्म व राजनीति का मूल चरित्र है। अगर ऐसा नहीं है-देश के एक नागरिक के हाथ में दूसरे नागरिक का गला रेतने के लिए निजाम जाति और धर्म के खंजर न थमाता। खून-खराबे की राजनीति कर खुद को निरंकुश और मासूम जनता को भिखारी बनाने की मुहिम न चलाता। साफ है, आपसी फूट के चलते हम सदियों तक विदेशियों के गुलाम रहे, आज भी मुक्त नहीं हैं। बेशक, देश के दलित-शोषित, आदिवासी, पसमांदा यानी बहुजन की वास्तविक आजादी अभी दूर है।
धर्म और राजनीति के ऐसे चरित्र के चलते ओशो राजनीतिज्ञों और प्रीस्ट्स को स्टुपिड पीपल कहते हैं।’ हम ऐसा नहीं कहते। मगर हम कहते हैं-आज धर्म और राजनीति इंसान के दिमागी अपहरण की टूलकिट बन गए हैं। धर्म और राजनीति ने देश और समाज के दोहन की सामग्री बना डाला है। धर्म और राजनीति के पुरोधा कमोबेश सेडिस्ट/परपीड़क हो गए हैं। जातीय व धार्मिक उत्पीड़न निजाम द्वारा संरक्षित लोगों के आनंद व प्रतिष्ठा का धंधा बन गया है। देश का बहुजन इस परपीड़न की प्रायोजित नई नॉर्मल संस्कृति (?) का बड़ा शिकार है।
हमें समझना है कि धर्म और राजनीति हमारा दिमागी अपहरण कैसे करते हैं। इनकी सफलता के मूल में अमर्यादित भाषा, झूठ, नौटंकी, प्रलोभन व जाति-धर्म की आड़ में दहशत का कारोबार है। इस कारोबार के लिए मक्कारी, बेशर्मी और दबंगई की जरूरत है। ये सदियों से देश की बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं, मगर आज ये सभी सीमाएं लांघ रही हैं। आज जरूरत अन्याय के आधुनिक संस्करण को समझने की है।
अतीत में जातियों की बेडि़यां डालकर, शिक्षा, संपत्ति व इंसानी पहचान से बेदखल करना आम बात रही है। आज एकलव्य के घड़ा छू लेने से द्रोणाचार्य अंगूठा या हाथ नहीं कटवाता, जान ही ले लेता है। धर्मग्रंथों की आवाज कानों तक स्वत: पहुंचने के अपराध में कानों में शीशा पिघलाकर डालना किसी से छिपा नहीं है। शम्बूक की निर्मम हत्या के लिए राम के लाखों अवतार आज कदम-कदम पर मौजूद हैं। मूंछ रख लेना, जूते पहन कर गांव चले जाना, घोड़े का मालिक हो जाना और इसकी सवारी करना जातिवादी दबंगई की नजर में अपराध है। इसके लिए व्यक्ति की हत्या कर देना आम बात है। देवदासी प्रथा और किसी स्त्री को डायन करार देकर ईंट-पत्थरों व लाठी-डंडों से हत्या कर देना आज के रामराज्य की देन है।
इतना ही नहीं, हमारे चारों ओर न जाने कितने हाथरस मौजूद हैं, जहां बेटियों को अपने जीवन व अस्मिता की रक्षा का अधिकार नहीं है, न ही मरने के बाद मां-बाप व सगे-संबंधियों के हाथों दफन होने का। बकौल नवीन कुमार, आर्टिकल 19, किसी आदिवासी पत्रकार लिंगाराम गुडोपी को यू-टयूब पर सच दिखाने के लिए जेल में डालना, मल द्वार में डंडा डाल देना या किसी आदिवासी सोनी सोरी की योनि में पत्थर डालना, नए भारत के नए नॉर्मल हैं। मुझ में ऐसे मसलों पर और चर्चा करने का साहस नहीं है, जरूरत भी नहीं है। ये सभी राजनीति और धर्म के अदृश्य मगर अटूट गठबंधन की बानगी भर हैं। गौरतलब है-यह गठबंधन सदैव समाज के जातीय व आर्थिक रूप से दबंग लोगों की बपौती रहा है।
इस बपौती के चलते संविधान धर्म और राजनीति का बंधुआ होकर रह गया है। पुलिस व प्रशासन के कभी न खत्म होने वाले चारित्रिक विवाद हैं। पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण लगभग सभी संवैधानिक संस्थाएं आरोप-प्रत्यारोप की गिरफ्त में हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी आजकल विवादों से परे नहीं है। किसी जज को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ता है-किसी को जमानत देते हुए भी डर लगता है।
राजनीति ने धर्म को आज दबंगई की लाठी बना लिया है। हम जिसकी लाठी उसकी भैंस के युग में वापस लौट रहे हैं। योगेन्द्र यादव के शब्दों में-‘ये लोग जो मुसलमानों को दिन-रात सबक सिखाने की बात करते हैं वे अपने मतलब के लिए काबा को भी प्राथमिकता दे सकते हैं।’ वे आम आदमी पार्टी के बारे में कहते है-‘वे एक हाथ में पेट्रोल और दूसरे हाथ में पानी की बाल्टी लेकर चलते हैं। वे नफा नुकसान देखकर पेट्रोल या पानी का इस्तेमाल करते हैं।’ साफ है, यह बात राजनीति व धर्म पर ही नहीं, जातीय उत्पीड़न के मामले में भी बराबर लागू रहती है।
जिस धर्म और राजनीति की बात हो रही है उसका सारा कारोबार अच्छाई के दम पर नहीं, दूसरों की निंदा व आरोप-प्रत्यारोप पर जिंदा है। यहां इंसानी मूल्यों की हत्या नया नॉर्मल हो गया है। इसके लिए मीडिया जगत व वाद-विवाद में सहभागिता करने वाले बुद्धिजीवी जिम्मेदार हैं। ये महान लोग राजनीति व धर्म की बेशर्मियों को धर्म व राजनीति की नई परिभाषा व चाणक्य नीति के नाम से महिमा मंडित करते हैं। ये सच्चाई और ईमानदारी को हतोत्साहित करने और अपराधीकरण को वैधता प्रदान करने के दोषी हैं। इसलिए आज धर्म और राजनीतिक का पतन का चरम हैं।
दूसरों की खामियां बताना सरल और अपने गिरेबां में झांकना दूर की कोड़ी है। धर्म व राजनीति के पतन का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़कर हम दोषमुक्त नहीं हो जाते। अपने दोष की परख के लिए ही यह आलेख लिखा गया है। इसका मकसद आम जन के घर में लगी आग के सम्यक मूल्यांकन व आत्ममंथन की है। समाज के किसी नेता, कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी की निंदा या अवमूल्यन की नहीं।
सुखद है-राजेंद्र पाल गौतम ‘जय भीम मिशन’ के तहत देश को बौद्धमय बनाने का संकल्प लिए हैं। उन्होंने 5 अक्तूबर 2022 को आंबेडकर भवन, दिल्ली में धम्म दीक्षा ली। मगर बाईस प्रतिज्ञाओं के चलते विवाद हो गया। इस दौरान उन्होंने राज रत्न आंबेडकर को आगे कर दिया और कहा-‘उन्होंने उन प्रतिज्ञाओं को भीम मिशन का सिपाही होने के नाते दोहराया था…।’ उन्होंने विवाद को भाजपा की ओछी राजनीति करार दिया।
गौतम जी का आरोप निराधार नहीं हैं। लेकिन जब गौतम जी के साथ उनकी पार्टी के खड़े न होने का सवाल उठा तो उन्होंने गुजरात के चुनाव में अपनी पार्टी की छवि का हवाला दिया। उन्होंने सामाजिक न्याय और अपने संकल्प से एक कदम पीछे हटकर अपनी पार्टी व केजरीवाल को तरजीह दी। उन्होंने पार्टी का टिकट देने, विधायक बनाने और मंत्री बनाने के लिए पार्टी व केजरीवाल के प्रति कृतज्ञता जताई।
लेकिन कृतज्ञता की कवायद में सामाजिक न्याय और बौद्धमय भारत के संकल्प की धार कमजोर हुई क्योंकि वे गलत को गलत कहने का साहस नहीं दिखा पाए। यहां मुझे 25.04.1948 में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के लखनऊ सम्मेलन में नेहरू व पटेल से विवाद के संबंध में डा. आंबेडकर के त्यागपत्र के तेवर की याद आती है-‘मुझे लगता है कि आपकी पीड़ा के उचित उपचार के लिए मैं भारत सरकार में अपने कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दूं। शायद आप जानते हैं कि राजनीति मेरे लिए कभी खेल नहीं रहा। यह एक अभियान है। मैंने अपनी सारी व्यक्तिगत इच्छाएं और अपना पूरा जीवन अनुसूचित जाति की बेहतरी के लिए व्यतीत कर दिया है।’ स्पष्ट है-बाबा साहब का राजनीति में होना समाज की बेहतरी के लिए था, राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं।
उपरोक्त की रोशनी में गौतम जी की प्राथमिकता राजनीति लगती है। थोड़ा आगे बढ़ते हैं, गौतम जी की आम आदमी पार्टी (आप) ने दिल्ली सरकार के कार्यालयों व स्कूलों में डा. आंबेडकर और सरदार भगतसिंह की फोटो की अनिवार्यता कर रखी है। लेकिन यह कदम हाथी के दिखाने वाले दांत साबित हुआ क्योंकि उनकी पार्टी ने गौतम जी के धम्म दीक्षा के मामले में चुप्पी साध ली। जब गौतम जी पर एफआईआर हुई और उन्हें काफी समय तक थाने में बैठाकर रखा तब भी यह चुप्पी नहीं टूटी जबकि ‘आप’ ने सत्येन्द्र जैन, मनीष सिसोदिया, अन्य विधायकों तक के मामले में मीडिया में व सड़कों पर बवाल काट दिया था। इसके विपरीत पार्टी की अंदरूनी गौतम जी विरोधी मुहिम के चलते उन्हें अपना इस्तीफा देना पड़ा। ‘आप’ के अन्य दलित विधायकों की चुप्पी ने साफ कर दिया-‘वे हाथी के दिखाने वाले दांत हैं।’ इसके बावजूद गौतम जी ने मिशन जय भीम की अपेक्षा ‘आप’ को अपर हैंड दिया।
इतना ही नहीं केजरीवाल नोट पर लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति लगाने की बात करते हैं। लेकिन धम्म दीक्षा के दौरान गौतम जी देवी-देवताओं, कर्मकांडों और पुरोहितों के बहिष्कार की शपथ लेते हैं। हम मानते हैं कि बाबा साहब जैसे जज्बे का एक-दो प्रतिशत होना भी बड़ी बात है। यही गौतम जी से अपेक्षा थी लेकिन वे जय भीम मिशन के तहत पैदल मार्च, रैलियां निकालते रहे, बौद्धमय भारत का संकल्प दोहराते रहे। लेकिन लक्ष्मी-गणेश के मुद्दे पर चुप्पी साधे रहे। ऐसी स्थिति में गौतम जी खुद ही तय करें कि यह कितना धम्म, अम्बेडकरवाद, और कितना सामाजिक न्याय की श्रेणी में आता है।
यह किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी के खंडन/मंडन का मसला नहीं, इसके केन्द्र में दलित-शोषित, आदिवासी, पसमांदा समाज है जो गौतम जी जैसे राजनेताओं का प्रमुख वोट बैंक है। यदि केजरीवाल गौतम जी को ढाल बनाकर राजनीति की मलाई मारते रहेंगे तो उनके वोटर खुद को ठगा महसूस नहीं करेंगे क्या? जो लोग देश की अन्य राजनीतिक पार्टियों में आरक्षण के कारण पार्षद, विधायक, सांसद व मंत्री बने हैं और अपने राजनीतिक आका की कठपुतली बनकर रह गए हैं, उनमें और गौतम जी में क्या फर्क रह जाएगा?
आम जन गौतम जी को बाबा साहब व तथागत के ईमानदार सिपाही के रूप में देखता है, मगर उसकी जिज्ञासा है-बौद्धमय भारत बनाने का स्वरूप क्या होगा? क्या देश का धर्म ‘धम्म’ होगा? कही उनका बौद्धमय भारत श्रीलंका या हिन्दू राष्ट्र की वर्तमान बहुसंख्यकवादी तानाशाही जैसा तो नहीं होगा। अगर सभी धर्मों का सम्मान होगा, जो रीयल बुद्धिज्म के चलते होना चाहिए तो बौद्धमय भारत कहने का क्या मतलब रह जाता है। किसी धर्म के आधार पर किसी राष्ट्र का निर्माण होने की चुनौतियों से गौतम जी अवश्य परिचित होंगे, खैर…।
इस कड़ी में उदित राज साहब संभवत: ‘वॉयस ऑफ बुद्धा’ अखबार/पत्रिका निकालते थे। आपने सामाजिक न्याय पार्टी का गठन किया और फिर भाजपा में चले गए। भाजपा में सांसद रहते उन्होंने बुद्धिज्म और समाज की कितनी सेवा की इसकी चर्चा नहीं है। आज वे कांग्रेस में हैं, कल कहीं ओर जा सकते हैं। माना संसद का नामकरण डा. आंबेडकर के नाम पर होना कांग्रेस के ऐेजेंडे में नहीं है, फिर भी उदित राज जी ने भीड़ का आह्वान किया। उन्हें पहले बताना चाहिए था कि इस नामकरण से आम जन के जीवन में क्या क्रांतिकारी परिवर्तन आने वाले हैं। जिनके सामने पेट व जीवन-मरण के सवाल बड़े हैं, उनके लिए ऐसे शक्ति प्रदर्शन के क्या मायने हैं? क्या आंख बंद करके उनके पीछे चलना ही समाज की नियति है?
रामदास अठावले व प्रकाश अम्बेडकर जैसे नेता दलित-शोषित, बहुजन समाज के सरोकार और बाबा साहब की विचारधारा को आधार बनाकर राजनीति में आए। लेकिन विचारणीय बात है कि ये जिन पार्टियों के साथ एलायंस कर रहे हैं, उनका बाबा साहब व उनके चिंतन-दर्शन से सीधा टकराव है। फिर एलायंस क्यूं? अम्बेडकरवाद व तथागत के दर्शन के विरुद्ध क्या जनता को व्यक्ति पूजा के तहत इनके पीछे खड़ा रहना चाहिए। क्या आम जन का जीवन किसी न किसी के पीछे खड़े रहने या किसी के निजी राजनीतिक व आर्थिक हित साधने के लिए है। आम जन को जागरुक करना, उनके हित के लिए काम करना किसी की जिम्मेदारी नहीं क्या? कुछ न भी कहें, मगर सवाल तो बनता है-‘क्या दलित-शोषित समाज को अपने राजनेताओं को उसी श्रेणी में रखना चाहिए, जिसमें बाबा साहब ने रोते हुए समाज के पढ़े-लिखे लोगों रखा था?
मा. कांशीराम जी खून-पसीने से बनी बसपा के कुछ अग्रणी लोग कह रहे हैं-‘यदि बसपा को सत्ता में नहीं लाए तो वर्तमान सरकार संविधान को समाप्त कर देगी, सब कुछ बर्बाद हो जाएगा।’ निस्संदेह, यह भाजपा के हिन्दू-मुस्लिम यानी डर और आपसी दुश्मनी को हवा देने वाले हिडन एजेंडे का बसपा संस्करण है। आज हर राजनीतिक पार्टी की सफलता के पीछे डर व झूठ का प्रोपेगेंडा नया नॉर्मल है। बसपा ने समाज का तिलक, तराजू और तलवार…के नाम पर जनता का आह्वान किया। फिर बहुजन सर्वजन हो गया, फिर ब्राह्मण समाज की सभाओं में हाथी गणेश हो गया और ब्रह्मा, विष्णु महेश हो गया। लेकिन जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
अभी उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले अचानक बसपा नेतृत्व की आवाज लड़खड़ाने लगी, अंतत: मूक हो गई। आखिर क्यूं? बसपा की राजनीति में तथागत, बाबा साहब और कांशीराम कहां हैं, शायद पूछना ठीक नहीं क्योंकि राजनीति आखिर संभावनाओं का खेल है। ऐसे में दीगर सवाल है-‘क्या आम जन को अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए?
ऐसे सवालों के जवाब के लिए बाबा साहब के मार्च 1948 में शारदा कबीर को लिखे नायक संबंधी पत्र को देखना पड़ेगा-‘टॉलस्टॉय मेरा नायक नहीं है। वास्तव में कोई भी लेखक मेरा नायक नहीं है। मैं किसी भी लेखक से जो ग्रहण करने लायक होता है या आगे विचार करने लायक होता है, उसे ग्रहण कर लेता हूं और आत्मसात करके अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता हूं। इसके बारे में यदि आप मुझे अपनी बात कहने की आज्ञा दें तो कोई कितना भी बड़ा क्यूं न हो, यह किसी की नकल करना नहीं है। यह मेरी अपनी निजी मौलिकता है।’ बाबा साहब ने यह भी कहा है, एक-‘किसी भगवान या अति मानव पर निर्भर मत रहो।’ दो-‘जिस समाज में व्यक्ति पूजा होगी, उस समाज का पतन निश्चित है।’
बाबा साहब के विचारों के आईने में देखें तो आज के राजनेताओं और चिंतकों की तो छोडि़ए, बाबा साहब और तथागत खुद व्यक्ति पूजा से बाहर हैं। इसे परिस्थितियों के सम्यक अवलोकन, चिंतन, विवेक के अनुसार ही सम्यक निर्णय लिए जाने चाहिए। लेकिन आज बाबा साहब और तथागत भी राजनीतिज्ञों व बुद्धिजीवियों की नई तोता-रटंत टूलकिट बने हैं। इस दृष्टि से देखें तो बाईस प्रतिज्ञाओं का धम्म से कोई संबंध नहीं है। धम्म दीक्षा में केन्द्रीय भूमिका त्रिशरण व पंचशील की होती है। लेकिन अब धम्म दीक्षा के केन्द्र में बाईस प्रतिज्ञाएं आ गई हैं, इसलिए विवाद है। दुनिया के किसी भी देश में बाईस प्रतिज्ञा धम्म दीक्षा का हिस्सा नहीं हैं। अब प्रश्न उठता है-‘बाबा साहब ने इन्हें धम्म का हिस्सा क्यूं बनाया?’ दरअसल, बाबा साहब हिन्दू धर्म (?) की अमानवीयता व शोषण-उत्पीड़न से बेहद आहत थे। इसलिए हर प्रतिज्ञा में उन्होंने हिन्दू धर्म (?) की बखिया उधेड़ दी थी। उनकी हिन्दू धर्म (?) से बगावत दबाव समूह जैसी राजनीति हो सकती है। इसके पीछे साधारण जन की सहज समझ और आत्मोत्थान की प्रबल रणनीति भी हो सकती है।
गौरतलब है, बुद्धिज्म को किसी दूसरे धर्म की आलोचना कर उसकी कब्र पर अपने भविष्य इमारत खड़ी करने की जरूरत नहीं है। हिन्दू धर्म (?) आजकल इस दौड़ में काफी आगे है। इसलिए धार्मिक उन्माद के रोज नए-नए किस्से इंसानियत को कलंकित करते हैं। अम्बेडकरवाद भी अपने वजूद व अस्मिता के लिए किसी स्थापित लाइन के बराबर बड़ी लाइन खींचने का पक्षधर है, न कि किसी लाइन को छोटा करने के लिए किन्हीं उथले हथकंडे अपनाने का। बाबा साहब व तथागत का पूरा चिंतन-दर्शन इसकी अनूठी मिसाल है।
इसके विपरीत हम हिन्दुत्व की तर्ज पर एक दूसरे पर कीचड़ उछाले की दौड़ में शरीक हैं। हम वैचारिक व साहित्यिक लेखन की अपनी मौलिकता व वैज्ञानिकता के पथ से भटक से गए हैं। सम्यक मूल्यांकन के अभाव, अपरिपक्व निर्णय व नायक पूजा के चलते आज बाईस प्रतिज्ञाएं धम्म से बड़ी हो गई हैं। इनकी प्रासंगिकता पर विचार करें तो पाते हैं-ऐसा कोई नहीं है जो दलितों को पकड़कर ले जाता है और जबरन ब्रह्मा, विष्णु, महेश को मनवाता है या कोई पुरोहित अपने धंधे के लिए जबरन हमें लूटता-पीटता है? यदि ऐसा नहीं है तो आज सिवाय आपसी विवाद पैदा करने के बाईस प्रतिज्ञाओं के मायने ही क्या रह गए हैं? लेकिन हम हैं कि लकीर के फकीर बने हैं।
हम नायक पूजा की प्रवृत्ति के गुलाम जैसे हो गए हैं। कोई हर वक्त कोट पैंट में इसलिए फिट है कि बाबा साहब ऐसा करते थे। कोई मुद्दा ठीक है या गलत, इसकी परख के लिए सिर्फ हमारे नायक अंतिम पैमाना है। जैसे आर्यों के विदेशी होने का विवाद? क्या हमने बाबा साहब को वेद-पुराणों की तर्ज पर ईश्वरीय दर्जा नहीं दे दिया है? यदि नहीं, तो फिर कोई यह कह दे कि बाबा साहब ने संविधान की एक लाइन भी नहीं लिखी या बाबा के पत्रों या चिंतन-दर्शन को अपनी वैचारिक संकीर्णता व अवसरवाद के चलते आंय-बांय करने लगे तो हम बेवजह आंदोलित हो जाते हैं और दूसरों को भी विवाद में घसीट लेते हैं। कोर्ट-कचहरी तक जाने के मनसूबे पालने लगते हैं।
क्या हम हिन्दुत्ववादी हो गए हैं जो एक ओर राम को सर्वशक्तिमान (?) और सर्वव्यापी (?) मानें लेकिन उनके मंदिर बनाने की मुहिम में खुद को राम से बड़ा और महान बना डालें? यदि नहीं तो हम ज्ञान व तर्क-विवेक के सूर्य की रक्षा अपने तुच्छ से दीये क्यूं करने लगते हैं? बाबा साहब अद्वितीय नॉलेज, त्याग व मानवाधिकारों के प्रखर चैंपियन होने के नाते खुद ब खुद विश्व पटल पर छाए हैं। वे कोई कपोल-कल्पित किसे कहानियों की बदौलत भगवान या हमारे सरताज नहीं बने हैं। हमारी भावनाएं हिंदुत्ववादियों की तर्ज पर कदम-कदम पर आहत क्यूं होनी चाहिए? क्या बाबा साहब व तथागत का चिंतन-दर्शन किसी झूठ या मिथ्या प्रचार की बुनियाद पर खड़ा है? इसका मतलब यह नहीं कि हमें प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, बेशक करना चाहिए लेकिन अपने आक्रोश को फ्रस्ट्रेशन की सलीब पर लटकाने से बचना चाहिए।
एक सवाल और–‘यदि बाबा साहब ने धम्म का अंगीकार नहीं किया होता तो कितने लोग आज बुद्धिज्म की ऐसी वकालत कर रहे होते? गौतम जी हर मंच से चेतावनी देते हैं-‘यदि यह शोषण उत्पीड़न नहीं रुका तो हम धर्मांतरण की गति और अधिक तेज कर देंगे।’ मतलब उत्पीड़न बंद हो जाए तो धम्म की जरूरत नहीं? यह धम्म की राजनीति है, धम्म नहीं। क्या दलित-शोषित समाज को हिन्दू धर्म से मिले जख्म कम हैं कि धम्म की राजनीति नए जख्म देने पर आमादा है। राजनीति कोई गुनाह नहीं है, खुलकर करें लेकिन आम जन को मोहरा न बनाएं। धम्म सम्यक अनुशासन, विवेक और सम्यक निर्णय की मांग करता है। धम्म असल में धर्म नहीं हैं, यह सदाचारी जीवन जीने का मार्ग हैं। यह किसी कर्मकांड व शोशेबाजी का मोहताज नहीं हैं।
हम बुद्धिजीवियों साहित्य, इतिहास, धम्म, समाज परिवर्तन आदि की बात करते हैं लेकिन जाने-अनजाने हम खुद राजनीति का मलीदा तैयार कर रहे होते हैं। यह मलीदा हमारी चर्चाओं, मंचीय भाषणों, फेसबुक, यू-ट्यूब चैनलों पर लगभग सब जगह बन रहा है। यह मलीदा कौन खा रहा है, यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। लेकिन इस सारी कवायद में आम आदमी खुद एक मलीदे में तब्दील हुआ जा रहा है। समाज के अग्रणी व वाक्पटु लोग खुद एक लाठी बने हैं। हमने आम जन को दोहन की भैंस बना छोड़ा है, क्या नहीं?
आज राजनीति और धर्म के गठबंधन के चलते संस्कृति के तथाकथित प्रहरी कुकुरमुत्ते की तरह मौजूद हैं, जिन्हें निजाम का संरक्षण प्राप्त है। ये किसी भी कुकृत्य को धर्म और जाति के जहरीले ब्रश से पेंट करते हैं। बहुसंख्यकवाद के लट्ठ से लोगों को रौंदते है। इसके चलते किसी बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार व बर्बर हत्याओं के नामजद अपराधी जेल से रिहा होते हैं, जश्न में मिठाइयां बंटती हैं, अनैतिकता का फूहड़ प्रदर्शन होता और सारे अपराधी संस्कारी ब्राह्मण हो जाते हैं। न्याय की सारी आवाजें अनसुनी कर दी जाती हैं।
कोई आफताब पूनावाला द्वारा पत्नी श्रद्धा के शरीर के पैंतीस टुकड़े करने व सबूत मिटाने का किस्सा प्रकाश में आता है, जांच एजेंसियां पीछे रह जाती हैं और बहुसंख्यकवाद की खुराफात अपना रंग दिखाती है। ऐसा ही रंग फिल्म कश्मीर फाइल के महिमामंडन और लाल सिंह चड्ढा के बहिष्कार में देखने को मिलता है। हमारी चिंता व्यक्ति को एक व्यक्ति के रूप में न देखकर जाति या धर्म के चश्में से देखा जाना है। अच्छाई के मसले पर जाति व धर्म को अनदेखा करना नई साजिश होता है। क्या किसी भी सहज कृत्य में जाति व धर्म का तड़का लगाने वाले देशद्रोही नहीं हैं? क्या हम दिल्ली में 1984 व गुजरात में 2002 के बर्बर नरसंहारों से जरा भी शर्मिंदा नहीं हैं?
दलित, आदिवासी या कोई भी अन्य किसी धर्म में धर्मांतरण करे या नास्तिक हो जाए, उसे हतोत्साहित करने का अधिकार राजनीति विशेष व पालतू छुटभैयों को कैसे मिल जाता है। क्या वे देश से अलग किसी और संविधान को मानते हैं? उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वे किसी का सिर काटने व पचास लाख का इनाम घोषित करें। वे कौन लोग हैं जो धर्म संसद (?) में किसी अन्य धर्म या मत को मानने वालों के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से हथियार उठाने व स्त्रियों के साथ बलात्कार की खुली चेतावनी देते हैं? यह कौन-सी राजनीति हैं, कौन-सा धर्म हैं, कौन-सी न्याय व्यवस्था है जो इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं होती? क्या हम पुन: कबीला युग में हैं या किसी तानाशाही की गिरफ्त में है? जरा सोचिए!
निस्संदेह, हमारे धर्म व राजनीति खुदगर्ज बड़े हैं। जरा सोचें-‘यदि आम आदमी की समस्याएं कम या खत्म होंगी तो धर्म और राजनीति की चौसर का क्या होगा? क्या धर्म व राजनीति के किरदारों और उन फिल्म अभिनेताओं में कोई फर्क है, जो सीमेंट, लोहे, खेती-किसानी, चड्ढी-बनियान, तेल-साबुन, क्रीम का विज्ञापन करते हैं और मोटी रकम वसूलते हैं? हां, फर्क इतना है-वे सीमेंट, लोहे, चड्ढी-बनियान आदि की बजाय रेवड़ी बांटने की बात करते हैं, बांटना या न बांटना बिल्कुल अलग बात है। क्या लोकतंत्र के हाथों लोकतंत्र का अपाहिज हो जाना हमारे प्रतिरोध की प्राथमिकता नहीं होना चाहिए? मौजूदा संदर्भ में मेरा सवाल है-‘क्या हम कभी ‘धर्म और राजनीति के डर के कारोबार से कभी मुक्त हो पाएंगे?
ईश कुमार गंगानिया
बी- 912, एम आई जी (डीडीए) फ्लैट्स
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