रामराज्य बनाम धम्मराज्य

अशोक बौद्ध धर्म के सबसे प्रतापी राजा थे

समाज वीकली

सिद्धार्थ रामू

श्री राम चंद्र

काश! ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध के प्रतीक के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन ने ‘राम’ और ‘रामराज्य’ की जगह ‘अशोक’ और ‘धम्म राज’ को चुना होता, शायद आज हिंदू राष्ट्र हुंकार नहीं भर रहा होता-तथ्य और तर्क प्रस्तुत है-

हर देश के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों ने अपने अतीत की विरासत से ताकत ग्रहण किया। वहां से वर्चस्व और अन्याय विरोधी प्रतीक चुने। वहां से ऐसे नायक चुने, जो उस देश की सभ्यता-संस्कृति, जीवन-मूल्यों और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हों। उस देश की शक्ति-संप्रभुता को सामने लाते हों। उसकी साझी उपलब्धियों के प्रतीक हों। स्वतंत्रता के बाद भावी समाज की उनकी कल्पना के मूल तत्वों को सामने लाते हों।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में भारत के सामने दो प्रतीक थे- एक तथाकथित वैदिक-पौराणिक भारत की उपलब्धियों- आदर्शों को सामने लाने वाले मिथकीय राम और उनका राम राज्य। दूसरा ऐतिहासिक बौद्धकालीन भारत की उपलब्धियों और आदर्शों को सामने लाने वाले पूर्णतया ऐतिहासिक अशोक और उनका धम्म राज, जिनकी उपलब्धियों और आदर्शों के सारे पुरातात्विक और अभिलेखीय साक्ष्य मौजूद हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने बौद्धकालीन भारत और उसकी सबसे बडे़ व्यक्तित्व अशोक और उनके धम्म राज की जगह वैदिक और मिथकीय राम और रामराज्य को चुना।

स्वतंत्रता आंदोलन की पहली खेप के नेताओं लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल तो वैदिक-पौराणिक भारत को अपने आदर्श अतीत के रूप में देखते ही थे, लेकिन राम और रामराज्य को, स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र में सबसे बड़े जननेता गांधी में लेकर आए।

वैदिक-पौराणिक भारत और उसके आदर्श प्रतीक नायक राम और उनके रामराज्य को लेकर घोर दक्षिणपंथी और उदारवादी कहे जाने वाले गांधी-गांधीवादियों के बीच सहमति और साझापन रही है और आज भी है। दक्षिणपंथी और कांग्रेसियों का बड़ा हिस्सा इस वैदिक-पौराणिक राम और राज्य को आदर्श और प्रतीक बनाने पर सहमत थे। कांग्रेस के भीतर के सोशलिस्ट जिसके अगुवा लोहिया आदि थे, उनके भी वही आदर्श थे। नेहरू तोड़ा भिन्न रूख रखते थे, उनका अशोक और उनके राज्य के प्रति आकर्षण था।

इतना ही नहीं, उस दौर की मजबूत वामपंथी धारा, वैसे तो समाजवाद को अपना आदर्श मानती थी, मार्क्स-लेनिन को अपना नेता मानती थी, लेकिन जब वह भारत की ओर देखती तो वैदिक-पौराणिक भारत की ओर ही जाती थी। डांगे तो इसका सबके बड़ा नमूना थे। वे वेदों में साम्यवाद ढूंढ़ रहे थे। रामविलास शर्मा जैसे आलोचक भी हुए हैं, जो रामराज्य को आदर्श की तरह प्रस्तुत करते हैं।

दक्षिणपंथियों,लाल-बाल-पाल और गांधी के राम और राज्य से प्रभावित आधुनिक हिंदी साहित्य के एक बड़े हिस्से ने भी अशोक और धम्म राज्य की जगह वैदिक-पौराणिक राम और उनके रामराज्य को अपना आदर्श और प्रतीक माना।

हिंदी के पहले व्यवस्थित और बड़े कहे जाने वाले आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने राम और रामराज्य के प्रति अपने आकर्षण के चलते अपनी आलोचना के प्रतिमान के रूप में तुलसी और उनके रामचरित मानस को चुना। अन्य कवियों की बात छोड़ ही दीजिए, महाकवि ( सूर्यकांत त्रिपाठी) निराला की सबसे महानतम कविता के केंद्र में दशरथ पुत्र राम ही हैं।

इसी वैदिक-पौराणिक राम और रामराज्य को प्रतीक बनाकर संघ-भाजपा ने देशव्यापी अभियान चलाया। इस अभियान को मुस्लिम विरोधी घृणा अभियान में बदला गया। मुस्लिम विरोधी घृणा अभियान का इस्तेमाल पिछड़ों-दलितों को धर्म की अफीम चटाने के लिए किया गया, विशेषकर ओबीसी को। सारे वर्ण-जातिवादी और वर्गीय अंतर्विरोधों और सवालों को ढ़ंक दिया गया। वैदिक-पौराणिक भारत और उनके प्रतीक पुरूष राम और रामराज्य के मिथक में इसके लिए सारे तत्व मौजूद थे। आज तक उदारवादियों, लोहियावादियों, गांधीवादियों और कुछ वामपंथियों के आदर्श राम बने हुए हैं, तुलसी या निराला के बहाने ही सही।

हां बहुजन-समण धारा ने वैदिक-पौराणिक युग और उसके प्रतीक पुरूष राम और रामराज्य को पूरी तरह खारिज किया, ऐसा सभी नायकों ने किया, बिना किसी अपवाद के। लेकिन यह तो स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के प्रतिवाद और प्रतिरोध की धारा थी। यह धारा अपने मुख्य दुश्मन ब्राह्मणवाद को केंद्र में रखे थी। इस धारा के कई नायकों ने बौद्धकालीन भारत और उसके प्रतीक और आदर्श व्यक्तित्व अशोक और धम्म राज को आदर्श के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। डॉ. आंबेडकर ने बौद्धकालीन मौर्य साम्राज्य को अपने आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। ऐसा कई अन्य नायकों के लेखन में दिखता है। बौद्धकालीन भारत करीब-करीब सबकी प्रेरणा का स्रोत है. समता, बंधुता और न्याय की भावना-विचार का स्रोत है।

बौद्धकालीन भारत, अशोक और उनका धम्म राज वैदिक-पौराणिक भारत और राम और उनके राम राज्य का इतिहास में प्रतिवाद और प्रतिरोध ही नहीं था, बल्कि वैकल्पिक आदर्श था और आज भी है। जो समता, बंधुता, सहिष्णुता, अहिंसा और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय में विश्वास करता है।

राम और उनके रामराज्य और अशोक और धम्म राज में बुनियादी अंतर-

1- राम और रामराज्य पूरी तरह पौराणिक गल्प है।

अशोक एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं।

2- राम का आदर्श वर्ण-जाति व्यवस्था और उस पर आधारित ऊंच-नीच की व्यवस्था है, वर्ण-व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले को वह प्राणदंड देते हैं।

अशोक का धम्म राज्य समता, बंधुता और न्याय पर आधारित है। उसमें वर्ण-जाति व्यवस्था और उस पर आधारित ऊंच-नीच के लिए कोई जगह नहीं है।

3- राम अपने से भिन्न को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, उन्हें वर्ण-जाति और ब्राह्मण श्रेष्ठता में विश्वास करने वाले ही स्वीकार है, अन्य को वे म्लेच्छ-राक्षस-राक्षसी कहकर उनकी हत्या करते हैं। ऐसे लोगों को धरती से खत्म करने का उन्होंने संकल्प लिया था। ब्राह्मणों को अभयदान प्रदान करने के लिए। ब्राह्मण उनके सबसे पूजनीय हैं। अन्य उनका साथ तभी हो सकता है, जब उनके विचारों-मूल्यों को स्वीकार कर ले।

अशोक हर तरह की विविधता और भिन्नता को स्वीकार करते है। हर दर्शन और विचार के लोगों को एक साथ सौहार्द पूर्वक रहने का आदेश देते हैं। वे समण और वामण दोनों के सम्मान की बात करते हैं। अपने से भिन्न लोगों के धर्मों की निंदा करने को अपराध कहते हैं, जरूरत से ज्यादा अपने विचारों की प्रशंसा को अच्छा नहीं मानते हैं। उनके लिए कोई म्लेच्छ नहीं है,राक्षस-राजसी नहीं, को अन्य नहीं। न केवल अपने देश लोगों को अपना मानते हैं, बल्कि दूसरे देशों के लोगों को भी अपना मानते हैं। वे सिर्फ दंड से नहीं, बल्कि धम्म के रास्ते लोगों में परिवर्तन लाना चाहते हैं।

दशरथ पुत्र राम के बारे में लिखते हुए आंबेडकर और पेरियार ने साफ लिखा है कि उनके चरित्र में कुछ भी अनुकरणीय और आदर्श नहीं है।

इसके विपरीत अशोक का चरित्र हर तरह आदर्श और अनुकरणीय है।

इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन ने ऐसे व्यक्ति ( राम को) को अपना आदर्श और नायक चुना, जिसका व्यक्तित्व किसी तरह से आदर्श और अनुकरणीय नहीं, उसे (अशोक) नायक नहीं माना,जिसमें करीब-करीब सब कुछ आदर्श और अनुकरणीय हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्रीय नायक के रूप में राम और राम राज्य को चुनने का नतीजा देश के सामने हैं, हिंदू राष्ट्र हुंकार भर रहा है।

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