– विद्या भूषण रावत
(समाज वीकली)– बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव को फिर से जेल की सजा हुई है। रांची की एक अदालत ने उन्हे ‘चारा घोटाले’ का दोषी पाया है। वैसे लालू यादव एक ही प्रकार के ‘अपराध’ के लिए इतनी सजाए भुगत रहे है वो केवल उदाहरण है के सत्ताधारी कैसे आपको फँसाते है और न्याय कि हत्या करते है। अपने विशिष्ट भाषा शैली और जनता से जुड़ कर काम करने वाले लालू यादव भारत की राजनीति मे सबसे प्रभावित करने वाली सखसियत मानी जा सकती है। लालू यादव पर चारा घोटाले के संदर्भ मे पाँच अलग अलग अदालतों मे मामले लंबित थे और सभी मे फैसला आ चुका है। आज डोरंडा ट्रेजरी से 139.5 करोड़ के अवैध निकासी के संबंध मे उन्हे पाँच वर्ष के कारावास की सजा हुई और साठ लाख रुपये का जुर्माना भी लगा दिया गया। पांचों मामलों मे उनकी कुल सजा साढ़े बत्तीस वर्ष की है। हालांकि चार मामलों मे उन्हे बेल मिल चुकी है और शायद स्वास्थ्य के हवाले से इसमे भी बेल मिल जाएगी लेकिन लालू प्रसाद यादव अब राजनीति मे अपनी पार्टी के जरिए ही प्रभावित कर पाएंगे। उनकी राजनीति मे पकड़ बनी रहेगी लेकिन सत्ता पर सीधे पकड़ नहीं रह पाएगी।
लालू यादव ने 2 दिसंबर 1989 को बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके बाद अपनी कार्यशैली के लिए बिहार के सवर्णवादी वर्चस्ववादी मीडिया की नज़रों मे खटकने लगे। उनका चरवाहा विद्यालय एक बिल्कुल नया कान्सेप्ट था जो अति दलित अति पिछड़ी जाति के बच्चों के जीवन मे बदलाव ला सकता था। गाँव के गरीब दलित पिछड़े वर्ग के लोगों से उनके सीधे संपर्क के चलते लोगों मे एक नई आशा का संचार हुआ। जनता दल पार्टी की अंदरूनी राजनीति मे लालू यादव ने अपने आप को पूरी तरह से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ रखा। 7 अगस्त 1990 को संसद मे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मण्डल आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार करने की घोषणा की तो पार्टी दो फाड़ हो गई। चंद्रशेखर, देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, यशवंत सिन्हा आदि लोग दूसरी और खड़े थे लेकिन लालू यादव ने न केवल उस दौर मे सामाजिक न्याय की शक्तियों को ताकत डी अपितु 23 सितंबर 1990 को भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष श्री लाल कृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा को समस्तीपुर मे रोक दिया और उन्हे गिरफ्तार कर दिया। इसके नतीजे मे विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार अल्पमत मे आ गई और फिर चंद्रशेखर के नेत्रत्व मे दूसरे धडे ने समाजवादी जनता पार्टी बनाकर काँग्रेस की मदद से नई सरकार बनाई। मुलायम सिंह यादव की सरकार उत्तर प्रदेश मे काँग्रेस के सहयोग से चली जबकि लालू यादव जनता दल पार्टी के साथ जुड़े रहे। मुलायम के ‘हिन्दी प्रेम’ के ठीक उलट लालू यादव ने सरकारी स्कूलों मे अंग्रेजी पढ़ाने को अनिवार्य किया ताके गरीब बच्चे भी अंग्रेजी सीख सके और आगे बढ़ सके।
लालू प्रसाद यादव जनता दल मे विश्वनाथ प्रताप के नजदीकी बने रहे लेकिन धीरे धीरे जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने स्वास्थ्य के कारण दलगत राजनीतिक मसलों मे दिलचस्पी लेना बंद कर दिया तो जनता दल पार्टी मे बहुत से धडे उसकी कमान संभालना चाहते थे।
1990-1995 के बीच मे बिहार मे चारा घोटाले की खबर आई और पशुपालन विभाग के खातों से अलग अलग ट्रेजरी से करीब 950 करोड़ रुपये निकालने की खबरे आई और ऐसी कंपनीयो के नाम थे जो केवल कागजों पर थी। घटना पर राजनीतिक दवाब के चलते लालू यादव ने इसकी जांच के आदेश दिए। ये वह समय था जब वह दोबारा मुख्यमंत्री बन कर आए थे लेकिन इस सवाल पर उनके विरोधियों ने एक पटना हाई कोर्ट मे एक जनहित याचिका दायर कर डी थी जिसके मार्च 1996 के एक निर्णय के फलस्वरूप केस सी बी आई को चला गया। जून 1997 मे जब सी बी आई ने चार्जशीट दायर की तो लालू यादव को एक आरोपी बनाया गया। उसके चलते व्यापक राजनीतिक दवाब मे उन्हे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और उन्होंने अपनी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। उस समय लालू बहुत ताकतवर थे लेकिन उनकी जनता दल पार्टी मे उनके नेत्रत्व को लेकर बहुत विरोध था। 30 जुलाए 1997 को उन्हे न्यायालय मे आत्म समर्पण किया लेकिन सी बी आई उस समय सेना तक की मदद लेने की कोशिश की कयोकि बिहार पुलिस कुछ नहीं कर पा रही थी और लालू एक शक्तिशाली राजनेता थे जिन्हे इतनी आसानी से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था।
उत्तर भारत की राजनीति मे यदि लालू सफल हो जाते तो बहुत बड़े बदलाव को जन्म दे सकते थे लेकिन जनता दल के अति महत्वाकांक्षी लोगों की राजनीति के चलते उन्हे फँसाया गया। अभी हम ये कह सकते है के भाजपा और सवर्ण लाबी ने उनके एक ही केस के की मामले बना अलग अलग अदालतों मे उन्हे फँसाया जो बेहद छोटे दर्जे के राजनीति है। एक ही मामले के लिए उन्हे अलग अलग जिलों मे आरोपित कर उनको राजनैतिक तौर पर मारने का षड्यन्त्र किया गया लेकिन इसमे सभी दोषी थे। हकीकत ये है, घोटाला लालू यादव के शासन मे आने से पहले से चल रहा था और इसीलिए जगन्नाथ मिश्र भी इसमे एक आरोपी थे लेकिन वह छूट गए। लालू यादव के विरुद्ध केस को ‘मजबूती’ से करने के लिए यू सी विश्वास नामक अधिकारी का इस्तेमाल किया गया। पूरे मामले को बिना केन्द्रीय नेत्रत्व की अनुमति के संभव नहीं था। तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगोंडा जानते थे के लालू यादव बहुत सशक्त है और वह प्रधानमंत्री पद की चाहत भी रखते है इसलिए लालू को नियंत्रण करने के लिए कोर्ट के नाम पर सारे काम किए गए। लालू यादव चाहते थे के देवेगोंडा उनके विरुद्ध जांच को कम करें और यू सी विश्वास को सी बी आई के क्षेत्रीय ब्यूरो से स्थानांतरित कर दे। लालू की मुश्किल इसलिए ज्यादा हुई क्योंकि विश्वास दलित वर्ग से आते थे और बहुत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ट अधिकारियों मे गिने जाते थे इसलिए उन्हे इस संदर्भ मे राजनीति करने का अवसर नहीं मिला। यू कह सकते है के देवेगोंडा ने उनसे बड़ी राजनीति की। दैनिक भास्कर मे छपे पत्रकार संकर्षण ठाकुर की पुस्तक ‘ द मैकिंग ऑफ लालू यादव’ के हवाले से लिखा है : ‘तत्कालीन जनता दल के अध्यक्ष लालू और PM देवगौड़ा के बीच तीखी बहस हुई। लालू ने कहा था- का जी देवगौड़ा, इसीलिए तुमको PM बनाया था कि तुम हमारे खिलाफ केस तैयार करो? बहुत गलती किया तुमको PM बना के।’ लालू यादव ने देवगौड़ा के आधिकारिक 7 रेस कोर्स निवास पर घुसते हुए ये टिप्पणी की। देवगौड़ा ने भी वैसा ही जवाब दिया था, ‘भारत सरकार और CBI कोई जनता दल नहीं है कि भैंस की तरह इधर-उधर हांक दिया। आप पार्टी को भैंस की तरह चलाते हैं, लेकिन मैं भारत सरकार चलाता हूं।’ हालांकि इस बातचीत का कोई पुख्ता सबूत नहीं है लेकिन राजनीति के गलियारों मे नेताओ के जरिए ये खबरे पत्रकारों तक पहुँचती थी। उस दौर को नजदीकी से जानने के कारण मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो के जनता दल मे कर्नाटक की लाबी ने लालू का पार्टी मे दबदबा खत्म करने के लिए ये कोशिश की। लालू प्रसाद की रामकृष्ण हेगड़े के साथ भी नहीं बनी क्योंकि हेगड़े जैसे लोग भी सामाजिक न्याय की राजनीति के विरोधी रहे। देवेगोंडा कभी भी सामाजिक न्याय आंदोलन के सिपाही नहीं रहे और सभी अपनी अपनी राजनीति कर रहे थे। सी बी आई केस के चलते लालू पर शिकंजा तगड़ा होता चला गया जिसे उन्होंने अपनी ‘जनशक्ति’ के चलते रोकने के प्रयास किए लेकिन बिहार मे नीतीश और रामविलास ने उनके विरोध की मुहीम को हवा दी। सभी नेताओ के अपनी अपनी शिकायते थी। लालू यादव को बिहार मे यादव मुस्लिम समीकरण पर जरूरत से ज्यादा भरोसा था और इसके चलते उन्होंने किसी की नहीं सुनी। नीतीश कुमार और राम विलास पासवान ने जब अलग अलग जातियों का ध्रुवीकरण कर दिया तो राजद की राजनीति को नुकसान पहुंचा हालांकि लालू यादव अकेले दम पर एक ताकतवर नेता बने रहे लेकिन ये अकेली ताकत उन्हे सत्ता मे नहीं ला पाई।
लालू यादव की गलती उतनी है जितनी राजनेताओ की होती है जब वे सत्ता मे होते है तो अत्यंत आत्मविश्वासी हो जाते है और फिर वो किसी भी प्रोटोकॉल आदि को नहीं मानते। लालू यादव बहुत मुश्किल और मेहनत के बल पर आगे आए थे लेकिन सत्ता के समय उन्हे भी अहंकार था के उनके बिना सत्ता चल नहीं सकती। देवेगोंडा भी कोई कागजी शेर नहीं थे ओर कर्नाटक मे उन्होंने अपने दम पर जनता दल को खड़ा किया था इसलिए ये उम्मीड़ करना के प्रधानमंत्री उनकी किसी भी बात को नहीं टाल सकेंगे गलत था। बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र भी इसमे आरोपित थे लेकिन बाद मे उन्हे साक्ष्यों के अभाव मे छोड़ दिया गया। रिहा होने के बाद, अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्स्प्रेस को दिए एक साक्षात्कार मे उन्होंने साफ कहा के लालू प्रसाद यादव को बी जे पी ने नहीं अपितु देवे गोंडा ने फँसाया। देवेगोंडा की सरकार गिरने के बाद इन्द्र कुमार गुजराल को भी ऐसे ही हाँकने की कोशिश की गई। हालांकि लालू यादव चाहते थे के सी बी आई के डायरेक्टर जोगिंदर सिंह जो कर्नाटक कैडर के थे, इसकी जांच करें लेकिन हकीकत ये है देवेगोंडा ये समझ गए के लालू उनको ह्यूमिलीऐट कर रहे है और उन्होंने उनकी सरकार बचाने की कोई कोशिश नहीं की। इसलिए जब इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार आई तो भी जोगिंदर सिंह ने लालू प्रसाद यादव के विरुद्ध अपनी कार्यवाही जारी रखी और यू के विश्वास को लगातार आगे किए रहे। क्योंकि इंदर गुजराल की सरकार लालू जी के समर्थन पर चल रही थी इसलिए जोगिंदर सिंह को सी बी आई से ट्रांसफर कर दिया गया हालांकि विश्वास के ट्रांसफर पर हाई कोर्ट ने रोक लगा डी थी। गुजराल के प्रति लालू यादव का विशेष सहयोग रहा और उन्होंने गुजराल को पहले पटना से चुनाव लड़वाया लेकिन उसके स्थगित होने के कारण फिर बिहार से ही इंदर कुमार गुजराल को राज्य सभा मे भिजवाया। गुजराल हालांकि लालू प्रसाद यादव के नजदीकी थे लेकिन हकीकत ये के वह कोई मंडलवादी नहीं थे और उन्हे अपने राजनीतिक भविष्य के लिए लालू प्रसाद यादव पर निर्भर रहना था।
हालांकि उनका शासन गरीब लोगों के लिए अच्छा था लेकिन विपक्षियों ने उन पर ये आरोप लगाए के वह ‘जातिवादी’ है और ‘यादववाद’ फैला रहे है। भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मणों की लाबी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। केंद्र मे सी बी आई के निदेशक जोगिंदर सिंह थे। जब लालू यादव को पहली बार 30 जुलाए 1997 को जेल जाना पड़ा तो उन्हे पार्टी के अंदर अलग थलग कर दिया गया था। बिहार मे पार्टी उनकी अपनी जेब की पार्टी थी और इसलिए जेल जाने से पहले ही उन्होंने 5 जुलाए 1997 को जनता दल पार्टी से अलग हटकर राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना कर दी ।
अटल विहारी वाजपेयी की एन डी ए सरकार के समय भी उनके विरोधी सक्रिय हो चुके थे । राम विलास पासवान और नीतीश कुमार उनसे राजनीतिक तौर पर नहीं लड़ पा रहे थे इसलिए दोनों ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाया और अपने जीवन पर्यंत ‘धरनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ के सिद्धांतों को गर्त मे फेंक दिया। नीतीश जानते थे के उनका बिहार के मुख्यमंत्री बनने का सपना लालू यादव के मजबूत रहते कभी पूरा नहीं हो पाएगा और इसलिए उनका सवर्णों के साथ गठबंधन जरूरी था और इसमे उन्हे बिहार के भूमिहार, ब्राह्मणों और कायस्थों ने पूरा सहयोग किया लेकिन तब भी वे सब मिलकर लालू यादव को बिहार से नहीं मिटा पाए। लेकिन अतिआत्मविश्वास और ये धारणा के किसी भी प्रकार से किसी को भी गद्दी पर बैठा देंगे तो लाभ होगा बार बार सफल नहीं होता। जब लालू प्रसाद यादव ने अपने जेल जाने की स्थिति मे श्रीमती राबरी देवी को मुख्यमंत्री बनाया जिनका राजनीतिक अनुभव बिल्कुल शून्य था तो ऐसे मे सत्ता के दलाल हावी हो जाते है।
2004 मे यू पी ए की सरकार आई तो लालू यादव केन्द्रीय रेलमंत्री बने 2009 तक वह इस पद पर बने रहे। उनके रेल बजट की बहुत तारीफ हुई क्योंकि उन्होंने यात्री किराया बढ़ाने से माना कर दिया था और रैलवे को लाभ की स्थिति मे ले आए थे। 2009 मे लालू यादव ने यू पी ए से नाता तोड़ बिहार मे राम विलास पासवान और समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया लेकिन उनकी पार्टी बुरी तरह से चुनाव हार गई और मात्र 4 सांसदों के साथ लोक सभा मे आई। 2014 मे आर जे डी ने पुनः यू पी ए के साथ गठबंधन किया लेकिन उसका परिणाम भी बहुत अच्छा नहीं रहा। इस बीच बिहार मे नीतीश कुमार के एन डी ए के साथ आने के कारण उनकी स्थिति बहुत मजबूत हो गई। 2015 मे बिहार मे लालू यादव ने नीतीश कुमार के साथ गठबंधन किया और 80 सीटों पर विजय प्राप्त की। नीतीश कुमार की जनता दल यू को 71 सीटे और काँग्रेस को 27 स्थानों पर विजय मिली। गठबंधन की सरकार मे नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। लालू प्रसाद यादव ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी को मंत्रिमंडल मे उपमुख्यमंत्री पद पर मनोनीत करवा दिया। उन्हे बड़े बेटे तेज प्रताप को भी मंत्रिमंडल मे रखा गया। लालू के परिवार को महत्वपूर्ण पद देने के चक्कर मे नीतीश सरकार का भविष्य अधर मे था और इसलिए जुलाई 2017 मे नीतीश कुमार ने आर जे डी से गठबंधन तोड़ कर भाजपा के साथ समझौता किया और फिर सरकार बनाई। 2021 मे आर जे डी ने काँग्रेस ओर वामपंथी दलों के साथ चुनाव लड़ा लेकिन बहुमत नहीं प्राप्त कर सके और नीतीश कुमार पुनः बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।
लालू यादव को जेल
लालू प्रसाद यादव पहली बार जेल तो आपातकाल के दौरान गए थे लेकिन जेल से रिहा होने पर 1977 मे संसद के लिए चुन लिए गए। चारा घोटाले के चलते वह पहली बार जेल जुलाई 1997 मे गए और 137 दिन की न्यायिक हिरासत के बाद 12 दिसंबर, 1997 को रिहा हुए। फिर उन्हे 28 अक्टूबर 1998 को बेउर जेल मे भेजा गया। एक बार फिर 28 नवंबर 2000 को उन्हे फिर जेल भेजा गया लेकिन उनकी तुरंत ही जमानत हो गयी। लेकिन मुकदमे चलते रहे। केंद्र और बिहार मे एन डी ए की सरकार के बाद उनकी मुसीबते बढ़ गई।
लालू यादव पर अभी तक चार मुकदमों मे सजा हुई है। उन्हे पहली सजा चाईबासा ट्रेजरी से अवैध तरीके से पैसा निकालने पर लगे आरोप पर 2013 मे पाँच वर्षों की कैद की सजा हुई और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी दलील खत्म कर डी हालांकि उन्हे बेल मिल गई। दूसरे केस मे उन्हे 23 दिसंबर 2017 को देवघर ट्रेजरी से करीब 90 लाख रूपेये की अवैध निकासी के लिए साढ़े तीन वर्ष की सजा हुई। उनको तीसरी सजा, 24 जनवरी 2018 को चाईबासा ट्रेजरी से 33.67 करोड़ की अवैध निकासी पर पाँच साल की सजा हुई। 4 मार्च 2018 को दुमका ट्रेजरी से 3.13 करोड़ रुपाइए की निकासी पर 14 वर्षों की सजा सुनाई गई और 60 लाख रुपए का जुर्माना भी ठोका गया। अब पाँचवी सजा डरोंदा ट्रेजरी के 139 करोड़ रुपये के घोटाले के सिलसिले मे है।
क्या लालू को जानबूझकर फँसाया गया
इसमे कोई शक नहीं की 950 करोड़ रूपेये से अधिक के घोटाले मे पशुओ की फर्जी खरीद और फिर उनके लिए चारे के फर्जीवाडा हुआ और ये बिहार के की जिलों मे किया गया था। इसके लिए एक जांच कमिटी बैठाकर उसके आधार पर कार्यवाही की जा सकती थी। लेकिन जो सबसे बड़ी चालाकी या जानबूझकर परेशान करने वाली चाल थी वह थी अलग अलग जगहों पर एफ आई आर कर अलग अलग मुकदमों मे लालू यादव को फँसाया गया। जब मामला एक ही तरह का है तो अलग अलग मुकदमे क्यों ? ये बात हम सभी आज के दौर मे समझ सकते है जब किसी भी व्यक्ति को परेशान करने के लिए देश के किसी भी हिस्से मे मुकदमा दर्ज हो जाता है और कई मुकदममे दर्ज जो जाते है। क्योंकि लालू परिवार राजनैतिक तौर पर मजबूत है इसलिए वह लड़ाई लड़ सके नहीं तो अधिकांश लोग ऐसी लड़ाई लड़ नहीं सकते। 14 नवंबर 2014 को झारखंड उच्चन्यायालय के जज श्री राकेश रंजन प्रसाद ने कहा के पूरा चारा घोटाला एक साजिश है और एक अपराध के लिए अलग अलग सजाए नहीं दी जा सकती। हालांकि जस्टिस प्रसाद ने पहले इसी मामले मे कहा था का अलग अलग ट्रायल होने चाहिए क्योंकि उनके लाभार्थी अलग अलग है। 2014 मे केंद्र मे नरेंद्र मोदी की सरकार आ चुकी थी और उन्होंने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी और जस्टिस अरुण मिश्र ने झारखंड हाई कोर्ट के निर्णय को न केवल उलट दिया अपितु जस्टिस प्रसाद के विरुद्ध सख्त भाषा का इस्तेमाल भी किया। बिहार भाजपा नेताओ ने जस्टिस प्रसाद के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और सुप्रीम कोर्ट कालेजियम से उनके विरुद्ध कार्यवाही की मांग की।
ये बात किसी से छिपी नहीं है के लालू भाजपा की रह के सबसे बड़ा रोड़ा थे। उन्होंने विपक्षी एकता के बहुत से प्रयास किए और यह उनकी राजनीति का ही नतीजा है के भाजपा आज भी बिहार मे स्वतंत्र रूप से मजबूत नहीं हो पाई है। भाजपा नेताओ को लालू से इतना भी था के उन्होंने उनके अधिकांश मामलों की सुनवाई झारखंड करवादी और रांची जेल मे भी उनके साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की गई। ये सभी जानते है के लालू एक प्रमुख राजनैतिक व्यक्ति है और उनसे मिलने लोग आएंगे लेकिन उन्होंने हर बात को इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे लालू यादव कोई अपराधी हो। इतने बड़ा चारा घोटाला क्या कोई मुख्यमंत्री व्यक्तिगत तौर पर कर सकता है ? जब ये घटनकक्रम लालू यादव के पहलसे से था तो क्यों दूसरे लोग इसकी चपेट मे आए। अलग अलग मुकदमों मे लालू यादव को फंसा कर उनके राजनीतिक जीवन को लगभग समाप्त कर दिया। लालू यादव अब शारीरिक तौर पर स्वस्थ नहीं है और ये साफ है के वर्तमान सरकार ने उन्हे स्वास्थ्य के आधार पर भी बेल दिलवाने का विरोध किया। उनकी बेहद खराब सेहत के चलते उन्हे दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे लाया गया था। उनके परिवार के बहुत अनुरोध पर बहुत मुश्किलों के बाद लालू यादव को जमानत मिली थी लेकिन अभी वह पुनः रांची जेल मे है क्योंकि अंतिम केस मे भी उन्हे सजा हुई है।
राजनैतिक मतभेदों के चलते विरोधियों को खत्म करने की साजिश हमारी राजनीति का अभिन्न हिस्सा है लेकिन वर्तमान दौर मे भाजपा ने इसका रंजिशन इस्तेमाल किया। देश मे बड़े बड़े घोटालों के बादशाह आराम से फ्रॉड करके चले जा रहे है। काँग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कुछ दिनों पूर्व कहा था का मोदी सरकार के समय 5 लाख 35000 करोड़ से ऊपर के बैंक घोटाले हो चुके है लेकिन अभी तक एक को सजा नहीं हुई। गुजरात स्थित एबीजी शिपयार्ड और उसके निदेशक ऋषि कमलेश अग्रवाल पर 22,842 करोड़ का बैंक फ्रॉड का केस सी बी आई ने अभी दर्ज किया है इसमे 22 बाँकों का पैसा शामिल है । गुजरात के ही बड़े व्यापारी मेहुल चॉसकी पंजाब नैशनल बैंक को 14,000 करोड़ रूपेये का चुना लगाकर अब विदेश मे आराम की जिंदगी जी रहा है। गुजरात के ही व्यापारी नीरव मोदी और उनकी फार्म गीतांजलि ज्वेलर्स पर तीस बैंकों के साथ 11,400 करोड़ रूपेये का फ्रॉड करने का आरोप है। वह भी अपने परिवार सहित यौरप मे आलीशान जिंदगी जी रहा है। शहंशाही जिंदगी जीने वाले विजय माल्या 10 हजार करोड़ के फ्रॉड के साथ लंदन मे आनंद के साथ मे है। राफेल से लेकर पीं एम केयर फंड हो या भाजपा के पास अरबों का चन्दा और दिल्ली के दिल मे स्थित फाइव स्टार बिल्डिंग कोई प्रश्न नहीं खड़े होते। मोदी के आने के बाद, नोटबंदी के तुरंत आगे पीछे भाजपा ने उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के अन्य हिस्सों के विभिन्न जिला मुख्यालयो मे पार्टी के विशालकाय कार्यालय बनाए। अयोध्या मे राम मंदिर के नाम पर उठे चंदे और उसके बाद जमीन के बड़े घोटालों की कोई चर्चा भी नहीं होती। हालांकि कोई भी भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करता लेकिन दुर्भाग्यवश जातिवादी मीडिया को दलित पिछड़े आदिवासी नेताओ के छोटे भ्रष्टाचार बड़े नजर आते है। राजनीति मे भी लालू यादव हमेशा साधारण तरीके से ही रहे। नरेंद्र मोदी की तरह तड़क भड़क उन्मे कभी नहीं थी। जयललिथा से लेकर जगन मोहन रेड्डी, प्रमोद महाजन, अमर सिंह, अरुण जैटली, आदि सभी के हाथ इतने बड़े थे के कोई हाथ नहीं लगा पाया और सभी ‘ईमानदार’ भी बने रहे। आज भी संसद मे मौजूद बहुत से सांसदों के पास खरबों की संपति है लेकिन कोई सवाल नहीं। सवाल उठेंगे कैसे जब उन्हे उठाने वाले ही खुद भ्रस्टाचार के दलदल मे हो। आज के दौर के बहुत से चैनल मामूली पत्रकारों ने बनाए और आज वे खरबों के पैसे पर बैठे है। क्या ये बिना भ्रस्टाचार के संभव है ? एलकटोरल बॉन्ड मे पैसे कौन दे रहा है इसके विषय मे कुछ खबर नहीं है। लेकिन देश के ब्राह्मणवादी तंत्र के लिए लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती भ्रस्टाचार के प्रतीक है। हर्षद मेहता खरबों रूपेये डकार गया और अभी नैशनल स्टॉक एक्सचेंज की एक पूर्व निदेशक के विषय मे खुलासा हुआ के वह कोई भी निर्णय हिमालय मे स्थित एक बाबा के कहने पर करती थी और सारे गुप्त जानकारी उनसे शेयर करती थी। क्या इस पर चर्चा हो रही है के इतने खतरनाक खिलाड़ी कौन है।
सत्ताधारी पर्सेप्शन पर काम करते है। किसको ईमानदार बनाना है और किसो बेईमान दिखाना है, ये उनके हाथ मे है। लालू यादव उत्तर भारत मे बहुजन समाज के सबसे बड़े स्तम्भ है और वह देश के प्रधानमंत्री बन सकते थे इसलिए उनको किसी भी तौर पर बदनाम करना और उनकी राजनीति को पूरी तरह से खत्म करने का अजेंडा था। ईमानदारी का ‘अन्ना’ आंदोलन किसके द्वारा प्रायोजित था ये जग जाहीर है और उसके उपज के ‘ईमानदार’ लोग अरविन्द केजरीवाल, वी के सिंह, किरण बेदी और बहुत से महत्वाकांक्षी किधर बैठे है ये बताने की आवश्यकता नहीं है। हा, इनमे से कोई भी ईमानदारी के लिए वी पी सिंह, मधु दंडवते, सुरेन्द्र मोहन, इंद्रजीत गुप्ता, राम धन, राम नरेश यादव, राम स्वरूप वर्मा आदि का नाम लेने को तैययर नहीं है।
लालू प्रसाद यादव की कमी यही रही के परिवार मोह और अति आत्मविश्वास मे उन्होंने अपने नजदीकी लोगों की परवाह भी नहीं की। चाहे अब्दुल बारी सिद्दीकी हो या रघुवंश प्रसाद सिंह, सभी अंत तक उनसे जुड़े रहे लेकिन अपने परिवार के बाहर भी नेत्रत्व विकसित करने का जजबा हमारे ‘लोकतान्त्रिक’ नेताओ मे नहीं हो पाया। लालू से लेकर मुलायम तक उसका शिकार रहे और इसके चलते ही इन पार्टियों मे फूट पड़ी। राजनीति मे परिवार से अलग हटकर नेतृत्व विकसित करने का सबसे बढ़िया उदाहरण काँसीराम है जिन्होंने सुश्री मायावती को स्थापित कर यह जताया के यदि आप वाकई मे समाज के प्रति जिम्मेवार है तो आपको परिवारवाद से दूर रहना होगा। यह कोई नहीं कह रहा है के परिवार के सदस्यों को राजनीति मे आने का हक नहीं है लेकिन अगर परिवार के सभी सदस्य पार्टी को अपनी जागीर समझेंगे तो उसमे नए लोग नहीं आएंगे और जनता समय आने पर जवाब दे देती है। अच्छा होता के परिवार के कुछ सदस्य अपने आप को सामाजिक और व्यावसायिक क्षेत्र मे स्थापित करते और एक बड़ा मीडिया खड़ा करते तो आज वो स्थिति नहीं होती। बाबा साहब अंबेडकर, जोति बा फुले, पेरियार आदि के आंदोलनों से सीख लेकर यदि हम समाज बदलाव को अपना हिस्सा बनाते तो ऐसी स्थिति न होती। वर्षों बीत जाने के बाद भी सामाजिक आन्दोलनानों के नायकों को लोग नहीं भूल पाते लेकिन राजनेताओ को भूलने मे कुछ समय नहीं लगता।
बिहार मे लालू यादव को उनके विरोधी खत्म नहीं कर पाए क्योंकि आज तेजस्वी यादव के नेतृत्व मे पार्टी मजबूत है लेकिन जरूरी है के पार्टी अब लॉंग टर्म सोचे। दक्षिण भारत के मोडेल के आधार पर यदि अपना मीडिया और प्रचार तंत्र होता जिसमे अंबेडकर, फुले पेरियार की विचारधारा के आधार पर सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की मजबूती होती तो आज हमारे नेताओ की ऐसी स्थिति नहीं होती। केवल नेताओ के मुख्यमंत्री बनने से समाज नहीं बदलता उसके लिए जब तक सामाजिक नये की विचारधारा का मंत्र आगे नहीं होगा तब तक हमेशा वोही लोग आपको सलाह देते रहेंगे जिन्होंने शोषण किया है इसलिए आवश्यक है के ये दल बौद्धिक लोगों और सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों को भी मजबूत करें क्यों संघ परिवार का मुकाबला करने के लिए बहुजन सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को मजबूत करना होगा तभी वो आने वाली चुनौतियों का मुकाबला कर पाएंगे।