‘ऐ वतन मेरे वतन’ का संदेश
-प्रेम सिंह
(समाज वीकली)- हम दिल्ली के कुछ साथी ‘समाजवादी मंच’ के तत्वावधान में अल्लाह बख्स की याद में एक सालाना कार्यक्रम करते थे। अनिल नौरिया के सुझाव पर पहला कार्यक्रम 1995 या 96 में क्वीन्स पार्क (नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन के सामने) में आयोजित किया गया था। इसकी खास वजह थी। मुस्लिम लीग ने जब मार्च 1940 में पाकिस्तान का प्रस्ताव पास किया, तो अल्लाह बख्स, जो सिंध प्रांत के प्रीमियर थे, ने अप्रैल 1940 में इसी क्वीन्स पार्क में विभाजन-विरोधी सम्मेलन आयोजित किया था। अल्लाह बख्स कांग्रेसी नहीं थे। वे यूनाइटेड पार्टी के नेता थे, और भारतीय राष्ट्रवाद के सच्चे समर्थक थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में उस सम्मेलन की प्रशंसा की है।
अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और चर्चिल ने ब्रिटिश संसद में 10 सितंबर को भारत की जनता के प्रति अवमानना से भरा भाषण दिया। अल्लाह बख्स ने उनके भाषण के विरोध में चर्चिल को पत्र लिख कर ब्रिटिश राज के सभी सम्मान वापस कर दिए। 16 अक्तूबर को उन्हें सदन में बहुमत के बावजूद प्रीमियर पद से हटा दिया गया, और 14 मई 1943 को उनकी हत्या हो गई। उनकी याद में आयोजित कार्यक्रम में हम लोगों ने वयोवृद्ध गांधीवादी उषा मेहता को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। उन्होंने एक बार कहने पर ही कार्यक्रम में शामिल होने की मंजूरी दे दी थी। मुझे करीब दो घंटे उनके साथ बैठने और बातचीत करने का दुर्लभ मौका मिला था।
मुझे जब पता चला कि निर्माता करण जौहर, निर्देशक कन्नन अय्यर और संयुक्त लेखक दाराब फारूकी एवं कन्नन अय्यर की फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’ उषा मेहता के जीवन पर केंद्रित है, तो फिल्म देखने की इच्छा हुई। सिने-कला की दृष्टि से फिल्म पर टिप्पणी करने का अधिकारी मैं नहीं हूं। अलबत्ता, फिल्म की विषय-वस्तु (कंटेंट्स) और उसे प्रस्तुत करने वाले कुछ प्रसंगों एवं पात्रों के बहाने फिल्म पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा।
कई मार्मिक और सांकेतिक दृश्यों वाली इस फिल्म में मुझे पांच बातें अच्छी लगीं हैं। पहली, फिल्म का शीर्षक नागरी (हिंदी) और रोमन (अंग्रेजी) लिपि के साथ फारसी (उर्दू) लिपि में भी लिखा गया है। इधर ज्यादातर फिल्मों में उर्दू में शीर्षक लिखने की परंपरा को छोड़ दिया गया है। हिंदी फिल्मों और गीतों की खूबसूरत हिंदुस्तानी भाषा भी पिछले दो दशकों से खत्म होती चली गई है। दूसरी, उषा मेहता (सरा अली खान) और अन्य किरदार किसी प्रोपेगेंडा के तहत फिल्म के अखाड़े में उतरे हुए नहीं लगते। वे अपनी भूमिकाएं निभाते हुए ऐतिहासिक काल को कितना आत्मसात कर पाए हैं, और उन्होंने अपने किरदारों को कितने प्रभावी ढंग से निभाया है, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन वे सभी वर्तमान में प्रचलित हाईपरबोलिक राष्ट्रवाद की छाया से मुक्त नजर आते हैं। यह फिल्म का एक अच्छा गांधीवादी संदेश है।
उषा ब्रिटिश शासन में उच्च-पदस्थ पिता हरिप्रसाद मेहता (सचिन खेडेकर) की युवा संतान है। उषा की ऐतिहासिक जीवनी को कतिपय व्यक्तिगत जीवन-प्रसंगों के साथ गूंथा गया है। वह पितृ-प्रेम और देश-प्रेम के गहरे द्वंद्व में फंसने के बावजूद देश-प्रेम को समर्पित होती है। देश-प्रेम के पथ पर अपने घनिष्ठ मित्र और पक्के लोहियावादी फहाद (स्पर्श श्रीवास्तव) के साथ तो जैसे उसकी प्रतिस्पर्धा चलती है। 22 वर्ष की छात्रा उषा प्रेमी कौशिक (अभय वर्मा) के साथ अपने प्रेम-संबंध को भी देश-प्रेम के ऊंचे धरातल पर ले जाना चाहती है। उसकी बुआ (मधु राजा) भी उषा और उसके साथियों की प्रतिबद्धता देख कर ‘करो या मरो’ का मंत्र अपनाती है। उषा के बलिदान और कीर्ति से अभिभूत होकर उसके पिता भी उषा के कायल होते हैं। 1946 में यरवडा जेल से रिहा होने के बाद करीब 20 हजार लोग स्टेशन पर उसके स्वागत में जुटते हैं।
उषा, फ़िरदौस इंजीनियर (आनंद तिवारी), फहाद और कौशिक करीब तीन महीने तक भूमिगत कांग्रेस रेडियो के प्रसारण का अत्यंत जोखिम भरा काम करते हैं। शुरू के कुछ दिनों में ही कांग्रेस रेडियो का प्रसारण एक परिघटना बन जाता है। डॉक्टर राममनोहर लोहिया (इमरान हाशमी) प्रसारण टीम से आकर मिलते हैं और उनके साथ जुड़ जाते हैं। जेपी के जीवनी लेखक प्रो. बिमल प्रसाद कहते थे कि ‘लोहिया युवाओं के नेता थे। वरिष्ठ तो उनसे परेशान ही रहे।‘ फिल्म में पहले प्रवेश के साथ ही लोहिया की युवा क्रांतिकारियों के साथ दोस्ती हो जाती है। लोहिया का किरदार निभाने वाले इमरान हाशमी ने उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को बखूबी उभरा है।
रेडियो का प्रसारण हिंदुस्तानी और अंग्रेजी में बंबई में अलग-अलग जगहों से किया जाता है, ताकि पुलिस से बचा जा सके। बचपन से ही गांधी से प्रभावित उषा अन्याय के प्रतिरोध की अहिंसक कार्य-प्रणाली में निष्ठा रखती है। लेकिन किसी भी जोखिम या बलिदान से पीछे नहीं हटती। फिल्म में एक निडर सच्ची गांधीवादी के रूप में उसका चित्रण हुआ है। गिरफ्तार करने से पहले अंग्रेज अधिकारी उषा को तमाचा मारता है, तो उसके चेहरे पर प्रतिहिंसा का भाव नहीं उभरता। एक दिन वह लोहिया से पूछती है कि हम गांधीजी की अहिंसा के रास्ते से हट तो नहीं रहे हैं? लोहिया के “दार्शनिक” उत्तर से उसे तसल्ली नहीं होती। लेकिन वह चुप रहती है।
दरअसल, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिंसा-अहिंसा का सवाल तीव्रता के साथ उठता है। जयप्रकाश नारायण ने इस विषय पर ‘आजादी के सिपाहियों’ के नाम दो लंबे पत्र अज्ञात स्थानों से दिसंबर 1942 और सितंबर 1943 में जारी किए थे। हालांकि, फिल्म में उपन्यास जैसी लंबी बहसों का अवसर नहीं होता, उषा और लोहिया के बीच की बहस को चार-पांच संवादों तक बढ़ाया जा सकता था। क्योंकि हिंसा-अहिंसा के सवाल के दार्शनिक पहलू के अलावा आंदोलन में होने वाली हिंसक घटनाओं का जमीनी सवाल भी था।
वायसराय लिनलिथगो ने कांग्रेस नेताओं पर सशस्त्र बगावत की योजना बनाने, और जनता पर हिंसक गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था। वायसराय यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि ब्रिटिश शासन अत्यंत न्यायप्रिय व्यवस्था है, और उसका विरोध करने वाली कांग्रेस व भारतीय जनता हिंसक और अराजक। वायसराय को जेल से लिखे एक पत्र में लोहिया ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए निहत्थी जनता पर ब्रिटिश हुकूमत के भीषण अत्याचारों को सामने रखा। उन्होंने कहा कि आंदोलन का दमन करते वक्त देश में कई जलियांवाला बाग घटित हुए, लेकिन भारत की जनता ने दैवीय साहस का परिचय देते हुए अपनी आजादी का अहिंसक संघर्ष किया। लोहिया ने वायसराय के उस बयान को भी गलत बताया जिसमें उन्होंने आंदोलन में एक हजार से भी कम लोगों के मारे जाने की बात कही। लोहिया ने वायसराय को कहा कि उन्होंने असलियत में पचास हजार देशभक्तों को मारा है। लोहिया ने पत्र में लिखा, ‘‘श्रीमान लिनलिथगो, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि यदि हमने सशस्त्र बगावत की योजना बनाई होती, लोगों से हिंसा अपनाने के लिए कहा होता, तो आज गांधीजी स्वतंत्र जनता और उसकी सरकार से आपके प्राणदंड को रुकवाने के लिए कोशिश कर रहे होते।’’
उषा कांग्रेस रेडियो का अंतिम महत्वपूर्ण प्रसारण करती है, जिसमें लोहिया अपने रिकार्ड किए भाषण में देशवासियों से ‘भारत रोको’ यानि सब कुछ ठप्प कर देने का आह्वान करते हैं। प्रसारण के अंतिम क्षणों में उषा को गिरफ्तार कर लिया जाता है। कैद में पुलिस उससे लोहिया का पता पूछती है। वह बर्बर पुलिस अत्याचारों के बावजूद कोई जानकारी नहीं देती। फिल्म में दिखाए गए उषा मेहता के टार्चर से यह संकेतित हो जाता है कि गिरफ्तारी के बाद ब्रिटिश पुलिस ने लोहिया के साथ क्या सुलूक किया होगा!
तीन, फिल्म की टीम को अपना फोकस और रेंज अच्छी तरह पता है। भारत की स्वतंत्रता का प्रवेश द्वार भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की एक महाकाव्यात्मक घटना है। इसके राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई जटिल पहलू हैं। उन सबके साथ न्याय करते हुए उन्हें समग्रता में समेटना एक महाकाव्यात्मक कृति में ही संभव है। टीम यह जानती है कि वह महाकाव्यात्मक घटना की एक चिंगारी का चित्रण करने जा रही है। वह चिंगारी उषा मेहता और उसके युवा साथी हैं। फिल्म में गांधी और लोहिया आते हैं; लेकिन फिल्म शुरू से अंत तक उषा मेहता और युवा क्रांतिकारियों की है। फिल्म में कांग्रेस रेडियो एक स्वतंत्र किरदार बन कर उभरता है। लेकिन वह उषा का मौलिक विचार होने के नाते उसीके व्यक्तित्व का विस्तार बन जाता है।
चार, टीम ने फिल्म सकारात्मक नजरिए से बनाई है। भारत छोड़ो आंदोलन का वस्तुनिष्ठ इतिहास नहीं लिखा जा सका है। आंदोलन तैयारी के दिनों से ही खुद कांग्रेस के अंदर विवाद का विषय रहा था। 8 अगस्त को गोवालिया टेंक मैदान से जब आंदोलन का आह्वान हो गया तो केवल अंग्रेज ही उसके दमन में सक्रिय नहीं थे। बहुत-सी ताकतें थीं, जो आंदोलन का विरोध कर रही थीं और अंग्रेजों के पक्ष में क्रांतिकारियों की मुखबरी कर रही थीं। मुझे यह अच्छी बात लगी कि फिल्म में उन सब तत्वों का उल्लेख नहीं आने दिया गया है।
पांचवी और सबसे बड़ी बात मुझे यह लगी कि फिल्म एक चिंगारी के चित्रण के माध्यम से भारत छोड़ो आंदोलन की महाकाव्यात्मक घटना के मूलभूत संदेश को व्यक्त करती है। लोहिया के शब्द लें तो वह मूलभूत संदेश था – “भारतीयों की आजादी की इच्छा का विस्फोट”। यह और भी मानीखेज है कि इस संदेश का माध्यम एक युवा महिला बनी है। इसके साथ फिल्म चुपके से स्त्रीवाद का एक प्रेरक पाठ प्रस्तुत करती है। सरा अली खान ने इस पाठ को भी जीवंत बना दिया है।
प्रोपेगेंडा फिल्मों के बीच ऐसी कुछ फिल्में आती रहनी चाहिए। अलबत्ता, यह आश्चर्य जरूर होता है कि कुजात गांधीवादी और अंग्रेज़ीपरस्त बुद्धिजीवी-वर्ग की दुनिया से बहिष्कृत लोहिया को मुख्यधारा सिनेमा में पहली बार इतनी जगह दी गई है!
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)