‘पुरुष-केंद्रित’ और ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था’ के विश्व  में महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण: लैंगिक अंतर– एक पुनर्मूल्यांकन

समाज वीकली यू के

डॉ. रामजीलाल,  सामाजिक वैज्ञानिकपूर्व प्राचार्यदयाल सिंह कॉलेजकरनाल (हरियाणा-भारत)
Drramjilal1947@gmail.com

दुनिया की आधी आबादी महिलाएं हैं. दुनिया के हर देश में महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आया है.  दुनिया में किसानों, मजदूरों और ट्रेड यूनियनों द्वारा चलाए गए आंदोलनों में महिलाओं ने अद्वितीय भूमिका निभाई है. इस संबंध में भारत कोई अपवाद नहीं है. भारत में ग्राम पंचायत से लेकर राष्ट्रपति भवन तक महिलाओं की उपस्थिति देखी जा सकती है.

21वीं सदी के पहले दशक के नौवें वर्ष (सन् 2009) के अंत में भारतीय संसदीय प्रणाली में एक नए युग की शुरुआत हुई. भारत की पहली महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार, यूपीए की अध्यक्ष और लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल की पहली महिला अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और भारतीय जनता पार्टी की पहली महिला श्रीमती सुषमा स्वराज, लोकसभा में विपक्ष की नेता रही हैं. सन् 1950 के बाद से देश के इतिहास में यह पहली बार ऐसा अवसर भी आया है जब राष्ट्रपति, स्पीकर, सत्ता पक्ष और विपक्ष का नेतृत्व महिलाएं कर रही थी. यह महिला सशक्तिकरण का अतुलनीय उदाहरण है. विश्व की राजनीतिक संस्थाओं पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे उदाहरण विकसित लोकतंत्रों-इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, कनाडा आदि में भी नहीं मिलते. हम सुधी पाठकों को बताना चाहेंगे कि आज तक किसी भी महिला को संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) में राष्ट्रपति पद के लिए नहीं चुना गया. हालाँकि अमेरिका खुद को विश्व का एक ‘उत्कृष्ट लोकतंत्र’ मानता है.

ऐतिहासिक कालानुक्रमिक क्रम :सार्वभौमिक मताधिकार

दुनिया में महिलाओं के सार्वभौमिक मताधिकार का इतिहास बहुत लंबा है. महिलाओं को यह अधिकार संघर्षों के बाद प्राप्त हुआ है.प्रारंभ में, कई राज्यों ने कुछ शर्तों के साथ सीमित मताधिकार प्रदान किया. ऐतिहासिक कालानुक्रमिक क्रम के अनुसार लगभग 132 सन् पहले न्यूजीलैंड (सन् 1893), अमेरिका (सन् 1920) पूर्व सोवियत संघ (वर्तमान रूस- 1917), फ्रांस (1944),  भारत (26 जनवरी 1950). सन् 1893 से सन् 1960 के बीच महिलाओं को सार्वभौमिक मताधिकार के तहत वोट देने का अधिकार दिया गया. विश्व के 198 राज्यों में से 129 राज्यों में मतदान का अधिकार है. भारत के संविधान के इकसठवें संशोधन अधिनियम, 1988 के अनुसार, मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई.

महिला मतदान प्रतिशत: लगभग बराबर

पहले भारतीय आम चुनाव (25 अक्टूबर 1951 – 21 फरवरी 1952) के समय, कुल जनसंख्या (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर) 361 मिलियन थी और मतदाताओं की संख्या 173 मिलियन थी. 18वें लोकसभा चुनाव (सन् 2024) में 96.8 करोड़ मतदाता में पुरुष मतदाताओं की संख्या 49.7 करोड़ महिलाओं की संख्या47.1 करोड़ थी. पिछले दो दशकों में महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ा है.17 वेंलोकसभा चुनाव(2019)में 96.8 करोड़ मतदाता में महिला मतदान प्रतिशत (67.18 प्रतिशत) पुरुष मतदान (67.01 प्रतिशत) से अधिक थी. 18वीं लोकसभा चुनाव (सन् 2024) में महिला (65.78% )-पुरुष(65.80%) मतदान लगभग बराबर था.

महिला साक्षरता और विधान सभाओं में महिला प्रतिनिधित्व: कोई संबंध नहीं

सन् 2023 में 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10% से भी कम है. इन राज्यों में गुजरात (8.2%), महाराष्ट्र (8.3%), आंध्र प्रदेश (8%), केरल (7.9%), तमिलनाडु (5.1%), तेलंगाना (5%) और कर्नाटक (4.5%) शामिल हैं. नागालैंड की स्थापना 30 नवंबर 1963 को हुई थी नागालैंड विधानसभा में 60 वर्षों तक एक भी महिला नहीं चुनी गई. मार्च 2023 में पहली बार दो महिलाएँ – एनडीपीपी नेता हेकानी जखालू और साल्होतुनुओ क्रूस – ने विधायक निर्वाचित होकर इतिहास रचा.  शिक्षा और महिला चुनाव के बीच कोई संबंध नहीं है क्योंकि सन् 2011 की जनगणना के अनुसार नागालैंड की पुरुष और महिला साक्षरता दर क्रमशः 82.75% और 76.11% है. इसी तरह केरल में महिला साक्षरता 100 फीसदी है. इसके बावजूद, वर्तमान केरल विधानसभा में महिला प्रतिनिधित्व केवल 7.9% है. मिजोरम राज्य की स्थापना 20 फरवरी 1987 को हुई थी. सन् 2023 की नवीनतम आंकड़ों के अनुसार महिला साक्षरता दर 89.27 प्रतिशत है. इसके बावजूद सन् 2018 के चुनाव में 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए एक भी महिला चुनाव नहीं जीत सकीं. ये उदाहरण दर्शाते हैं कि महिला मतदाताओं की संख्या,

महिला साक्षरता दरमहिला मतदान और विधान सभाओं , व लोकसभा में महिला प्रतिनिधित्व में कोई संबंध नहीं है.

महिला मतदाताओं की संख्या, महिला मतदान और महिलाओं की चुनाव जीत के बीच कोई संबंध नहीं

आजादी के 75 साल बाद, 18वीं लोकसभा चुनाव (सन् 2024) में महिला मतदाता मतदान और पुरुष मतदाता मतदान लैंगिक अंतर में आश्चर्यजनक बदलाव आया.सन् 1951- 52 के प्रथम लोकसभा चुनाव चुनाव जब महिला वोटिंग 67.18% और पुरुष वोटिंग 67.1% थी. दूसरे शब्दों में, महिला मतदान पुरुष मतदान से 0.17% अधिक था. 18वीं लोकसभा चुनाव(सन् 2024) में महिला (65.78% )-पुरुष(65.80%)-मतदान (Voters Turn Out) लगभग बराबर था. लोकसभा और विधानसभा चुनावों में महिलाएं ‘नई किंगमेकर’  हैं  तो हैं, परंतु ‘किंग‘ नहीं हैं.

 17वीं लोकसभा (सन् 2019)में महिला सांसदों की कुल संख्या 78 थी. वर्तमान लोकसभा (सन् 2024) में लोकसभा में महिला सांसदों की कुल संख्या 74 है.  ‘महिला राजनीतिक सशक्तिकरण’ एवं ‘नारी वंदना’ के बावजूद भी वर्तमान लोकसभा में लोकसभा 17 वीं लोकसभा की अपेक्षा महिला सांसदों की संख्या चार कम हो गई. लैंगिक -अंतर सिर्फ लोकसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी साफ नजर आता है. निम्नलिखित चित्रण इस परिकल्पना को सिद्ध करता है.

मणिपुर में कुल (20,48,169) मतदाताओं में से महिला मतदाताओं (10,57,336) की संख्या पुरुषों (9,96,627) से अधिक है. मार्च 2022 के विधानसभा चुनावों में 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा के लिए पांच महिलाएं चुनी गईं. मिजोरम राज्य की स्थापना 20 फरवरी 1987 को हुई थी.सन् 2023 की नवीनतम गणना के अनुसार, मिजोरम साक्षरता दर, महिला साक्षरता 89.27 प्रतिशत और लिंगानुपात 976 है। महिला मतदाताओं की संख्या 4,38,995 है, जो पुरुष मतदाताओं की संख्या से अधिक है. इसके इसके बावजूद भी सन् 2018 के चुनाव में 40 सदस्यीय विधानसभा  के लिए एक भी महिला चुनाव नहीं जीत सकीं. नवंबर 2023 के विधानसभा चुनाव में 174 उम्मीदवारों में से केवल 16 महिलाएं उम्मीदवार थी.जब राजनीतिक दल महिलाओं को चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाएंगे तो विधानसभा में महिलाओं की संख्या किस तरह बढ़ेगी? यह एक बुनियादी सवाल है. इसका मूल कारण यह है कि भारत के अन्य समाजों की तरह मिज़ो समाज अभी भी पितृसत्तात्मक है जबकि साक्षरता के मामले में यह भारत में तीसरे स्थान पर है.

सन् 1998 से सन् 2022 तक हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में महिला मतदान प्रतिशत पुरुष मतदान प्रतिशत से अधिक रहा है. सन् 2022 के विधानसभा चुनाव में महिला वोटिंग 76.8% और पुरुष वोटिंग 72.4% रही. इसके बावजूद हिमाचल प्रदेश विधानसभा के 68 विधायकों में से केवल एक महिला विधायक है.

हरियाणा विधानसभा चुनाव (सन् 2014) : एक दिलचस्प कहानी   

हरियाणा विधानसभा चुनाव (सन् 2014) में मतदान के आंकड़े साबित करते हैं कि हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में महिला मतदान प्रतिशत शहरी महिला मतदान प्रतिशत से अधिक है. इस बात पर जोर देना कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि शहरों में रहने वाली महिलाएं अधिक शिक्षित, अधिक जागरूक, अधिक विशेषाधिकार प्राप्त , अधिक  संपन्न और अधिक  आधुनिक हैं. इसके विपरीत, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, सामान्य जागरूकता और सुविधाओं की कमी है. इसके अतिरिक्त भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं संपन्न  नहीं हैं.

एक सर्वे के अनुसार भारत में कृषि समुदायों से संबंधित केवल 13.87% महिलाओं के पास कृषि भूमि पर कानूनी अधिकार हैं. कृषि योग्य भूमि की स्थिति के मामले में गैर-कृषि समुदायों की महिलाओं की स्थिति सबसे दयनीय है. क्योंकि केवल 2% कृषि श्रमिक महिलाओं के पास भूमि या भूमि का कानूनी अधिकार है. दूसरे शब्दों में, कृषि समुदायों की लगभग 86% महिलाओं और कृषि श्रमिक समुदायों की 98% महिलाओं के पास भूमि से संबंधित कोई संपत्ति नहीं है. कृषि समुदायों में महिलाएँ ज़्यादातर अपने परिवार की ज़मीन पर काम करती हैं. जबकि गैर-कृषि समुदायों की महिलाएँ ग्रामीण किसानों की ज़मीन पर मजदूर के रूप में काम करती हैं. महिला किसान अधिकार मंच की संस्थापक अध्यक्ष डॉ रुक्मिणी राव के अनुसार, प्रत्येक एकड़ पर 70% काम महिलाओं द्वारा किया जाता है, जबकि इसके विपरीत 30% काम पुरुषों द्वारा किया जाता है. इसके अतिरिक्त, एक अनुमान के अनुसार, एक महिला किसान एक वर्ष में 3485 घंटे खेतों में काम करती है.

इसके बावजूद, ग्रामीण महिलाएं चुनावों में ‘मतदान के महत्व’ या ‘लोकतंत्र के नृत्य’ के बारे में अधिक जागरूक हैं. हरियाणा विधानसभा चुनाव (2014) में ग्रामीण क्षेत्रों में कुल महिला मतदान प्रतिशत 44.6% था जबकि शहरों में यह 42.9% था. जब  हरियाणा की ग्रामीण महिलाएं घूंघट की ओट से वोट की चोट मारती हैं तो बड़े-बड़े नेता गश खाकर गिर पड़ते हैं और चुनाव में धूल चाटते रह जाते हैं. दरअसल, हरियाणा की ग्रामीण महिला मतदाता ‘असली किंगमेकर’  हैं परंतु ‘किंग’ नहीं है. क्योंकि सन्1966 से लेकर आज तक कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं रही है. जबकि हरियाणा की श्रीमती सुचेता कृपलानी(अंबाला) को उत्तर प्रदेश तथा भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री होने का श्रेय जाता है. इसके पश्चात श्रीमती सुषमा स्वराज(अंबाला)औरअब श्रीमती रेखा गुप्ता( जुलाना )दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं.केवल यही  नहीं अपितु ‘भारत छोड़ो आन्दोलन की रानी 1942’(Queen of Quit India ,Movement 1942) ,व ‘भारतीय स्वतंत्रता की महान वृद्ध महिला’ (‘Grand Old Lady of Indian Independence), श्रीमती अरूणा असफअली (कालका) को दिल्ली की प्रथम महिला मेयर (1958, ) होने का सौभाग्य  प्राप्त हुआ है.

महिलाओं की चुनावों में विजय दर पुरुषों की तुलना में लगभग दोगुना अधिक है: प्रतियोगी और विजेता –   लैंगिक- अंतर नहीं

सन् 1957 में महिला उम्मीदवारों की कुल संख्या 45 और पुरुष उम्मीदवारों की संख्या 1473 थी। 22 महिला उम्मीदवार विजयी रहीं और जीत की दर 49% थी.जबकि 1473 पुरुष उम्मीदवारों में से 467 विजयी रहे और उनकी जीत की दर 32% रही. अर्थात महिलाओं की पुरुषों से 17% अधिक विजेता दर थी. सन् 1957 से लेकर आज तक कुछ लोकसभा चुनावों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की विजय दर में लगभग दोगुना अंतर रहा है.

चुनाव में महिला विजय दर पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं होती.यह हरियाणा विधानसभा के 2024 के चुनाव से भी सिद्ध होती है. 1 नवंबर 1966 को हरियाणा की आधिकारिक तौर पर स्थापना की गई तथा हरियाणा विधानसभा के प्रथम निर्वाचन(सन्1967) से सन् 2024 निर्वाचन सहित 87(अन्य अनुमान के अनुसार 100 )महिलाएं विधायक रही हैं. इनमें से 47 महिला विधायक सन्2000 के बाद निर्वाचित हुई हैं. सन् 2024 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 10 महिलाओं को टिकट दिया और इनमें से पांच महिलाएं विजयी रही.अन्य शब्दों में भाजपा  महिला प्रतियाशियों की विजय दर 50 प्रतिशत है. इसके बिलकुल विपरीत कांग्रेस पार्टी की12 महिला प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा.इनमें से सात महिलाएं विजयी रही .अर्थात विजय दर 58% है. इसे सिद्ध होता है कि महिला की विजय दर पुरूष प्रत्याशियों से कम नहीं है.

यह प्रचारित किया जाता है कि महिलाओं के चुनाव में जीतने की संभावना कम होती है और टिकट उन लोगों को दिया जाता है जिनकी जीत की संभावना अधिक होती है . इसी कमजोर आधार पर कांग्रेस और भाजपा सहित राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी महिला उम्मीदवारों को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के  चुनाव में उतारने के खिलाफ हैं. यदि राजनीतिक दल महिलाओं को चुनाव में उम्मीदवार नहीं उतारेंगे तो सांसद या विधायक के रूप में उनकी संख्या कैसे बढ़ेगी?

पितृसत्तात्मक व्यवस्था और संकीर्ण एवं पुरुषवादी मानसिकता के कारण राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाया जाता है। यही कारण है कि आजादी के 75 साल पूरे होने के बाद भी वर्तमान में महिला सांसदों की कुल संख्या 113 (लोकसभा 74 + राज्यसभा 39) है.

राजनीतिक दलों की महिला अध्यक्ष: भारी लैंगिक अंतर

राजनीतिक दल लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की तरह हैं.राजनीतिक दलों द्वारा लोकतंत्र को ‘प्रतिनिधि लोकतंत्र’ में बदल दिया गया है. राजनीतिक दलों का सर्वोच्च नेतृत्व हाई कमान और अध्यक्ष या महासचिव होता है.  इसलिए हमारे विद्वान पाठकों के लिए यह जानना जरूरी है कि भारत में राजनीतिक दलों के अध्यक्षों या महासचिवों के संबंध में महिलाओं की स्थिति क्या है?

वैश्विक मंच पर, कई देशों में महिलाएँ अपने-अपने राजनीतिक दलों की अध्यक्ष हैं.लेकिन भारत में, दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी – भारतीय जनता पार्टी (सन् 1980) की स्थापना के बाद आज तक एक भी महिला राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर नहीं रही है. दूसरी ओर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जैसी वामपंथी  पार्टियों में आज तक एक भी महिला राष्ट्रीय महासचिव नहीं बन पाई है. दिल्ली आम आदमी पार्टी (आप) की  दिल्ली सरकार मार्च 2025 तक) और पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार है. इस पार्टी की अध्यक्ष कोई महिला नहीं है. कुछ पार्टियों को छोड़कर क्षेत्रीय पार्टियों का भी यही हाल है. हमारा मानना है कि दक्षिणपंथी विचारधारा या साम्यवादी वामपंथी विचारधारा पर आधारित दोनों पार्टियों की  मानसिकता पितृसत्तात्मक है. ऐसे में जब महिलाएं राजनीतिक दलों में निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होंगी तो वास्तव में वे कोई भूमिका नहीं निभा पाएंगी!

 श्रीमती इंदिरा गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष (सन् 1959 और सन् 1978 से सन् 1984 में अपनी मृत्यु तक) रही. वह इस पद पर निर्वाचित होने वाली चौथी महिला थीं.सबसे लंबे समय तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहने वाली श्रीमती सोनिया गांधी हैं. वह सन् 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी जाने वाली पांचवीं महिला थीं और बीस वर्षों(सन् 1998 से सन् 2017 तक और सन् 2019 से सन् 2022 तक) तक अध्यक्ष पद पर रही. विश्व स्तर पर सर्वाधिक शक्तिशाली महिलाओं की श्रेणी में श्रीमती इंदिरा गांधी एवं श्रीमती सोनिया गांधी का गौरवपूर्ण स्थान है.

क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में, पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता 9 फरवरी 1989 से 5 दिसंबर 2016 तक, अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) की पांचवीं और सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाली महासचिव थी. 18 सितंबर 2003 को, कुमारी मायावती को बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) के अध्यक्ष के रूप में चुना गया था. 28 अगस्त 2019 को, वह लगातार चौथी बार फिर से चुनी गईं. वह चार बार (सन् 1995- सन् 1995, सन् 1997- सन् 1997, सन् 2002- सन् 2003 और सन् 2007- सन् 2012) उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं. उन्हें भारतीय राजनीति में एक सशक्त महिला और भारत में दलित राजनीति का प्रतीक माना जाता है. अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की स्थापना 1 जनवरी 1998 को हुई थी और सुश्री ममता बनर्जी इसकी संस्थापक अध्यक्ष थीं और वह अभी भी इस पद पर बनी हुई हैं. .

 राजनीतिक नेता ‘पुरुष-केंद्रित’ और ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था’ का समर्थन करते हैं. लैंगिक समानता को लेकर राजनीतिक दलों के सिद्धांत और व्यवहार में बहुत बड़ा अंतर है. वे सिर्फ दिखावे के तौर पर ‘स्त्री वंदना’ करते हैं. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है. अंततः, उनका दृष्टिकोण महिला-विरोधी और लैंगिक समानता-विरोधी है. ऐसे में भारतीय राजनीति में महिला सशक्तिकरण की बात कहां तक सार्थक हो सकती है? यह एक विचारणीय प्रश्न है. हमारा सुझाव है कि  राजनीतिक दलों की कार्यकारिणी अथवा हाई कमान में महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर होनी चाहिए ताकि लैंगिक अंतर को समाप्त किया जा सके.

महिलाएँ और पंचायती राज: महिला सशक्तिकरण की एक गौरवशाली संवैधानिक क्रांति

15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारत की लगभग 562 रियासतों से आजादी के बाद सभी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की वकालत भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू करते थे. समाजवादी विचारक , स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्र के प्रमुख नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी इसका समर्थन किया था. हमारा मानना है कि महिलाओं की  आधी आबादी हैं और सभी संस्थानों में उनका 50% प्रतिनिधित्व होना चाहिए.

भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय रियासतों से आजादी मिलने से पहले रहबर-ए-आजम दीनबंधु सर छोटू राम ने आज से 82 साल पहले सन् 1943 में, पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50% सीटें और विधान सभा में 20% सीटें आरक्षित करने का वैधानिक प्रावधान पंजाब विधानसभा में पारित करवाया था.  रहबर-ए-आज़म दीनबंधु सर छोटू राम का आकस्मिक निधन (9 जनवरी 1945) , सांप्रदायिक हिंसात्मक दंगों तथा भारत का विभाजन , जनता का पलायन इत्यादि के कारण के यह अधिनियम लागू नहीं किया जा सका और यह ठंडे बस्ते में चला गया.

 भारतीय संविधान के राज्य नीति निदेशक सिद्धांतों (अध्याय 4) के तहत अनुच्छेद 40 में ग्राम पंचायतों का वर्णन किया गया . जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर 1959 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में पंचायती राज की आधारशिला रखी. लगभग तीन दशकों तक, सन् 1959 से सन् 1987 तक, पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग प्रतीकात्मक था. सन् 1987 में पहली बार कर्नाटक सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गईं। परिणामस्वरूप, लगभग 18,000 महिलाएँ कर्नाटक की पंचायती राज संस्थाओं के लिए चुनी गईं.यह एक  अभूतपूर्व उपलब्धि थी.

इसके बाद भारतीय संविधान के 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1992) के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण किया गया और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1992) के माध्यम से शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण किया गया. परिणामस्वरूप, 73वें संशोधन के आधार पर विभिन्न राज्यों द्वारा पंचायती राज अधिनियम पारित किये गये.

27 अगस्त 2009 को डॉ. मनमोहन सिंह की कांग्रेस नीत यूपीए सरकार (कैबिनेट) ने निर्णय लिया कि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण होना चाहिए. महिलाओं के लिए 50% आरक्षण प्रदान करने के लिए संविधान में अनुच्छेद 243D में संशोधन करने का क्रांतिकारी निर्णय लिया गया क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष चुनाव में भरी जाने वाली सीटों में से 50% सीटें अनुसूचित जाति, अनुसूचित  जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने का प्रावधान किया गया था.

इस समय भारत के 21 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों  में, पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित हैं .परिणामस्वरूप, वर्तमान में भारत की पंचायती राज संस्थाओं और ग्रामीण स्थानीय निकायों में 1.4 लाख से अधिक निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं . यह कुल निर्वाचित प्रतिनिधियों का लगभग 46% है.

दुनिया के 141 देशों में 30 लाख (35.5 प्रतिशत) स्थानीय निकायों में  निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं. दुनिया के 141 देशों की सूची में केवल 3 देशों में स्थानीय निकायों के स्तर पर 50 प्रतिशत से अधिक और 22 देशों में 40 प्रतिशत से अधिक महिला प्रतिनिधि हैं .जनवरी 2023 तक भारत इन 22 देशों की श्रेणी में होने के कारण स्थानीय स्तर पर महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.

व्यावहारिक पहलू:

सैद्धांतिक तौर पर महिला सशक्तिकरण बहुत आकर्षक लगता है लेकिन व्यवहार में इसका स्याह पक्ष भी है. महिला सशक्तिकरण के लिए कानून द्वारा शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, व्यवहार में पितृसत्तात्मक मानसिकता, पुरुषवादी सोच तथा महिला विरोधी मानसिकता के कारण महिला प्रतिनिधियों को शक्तिहीन बना दिया गया है. महिला प्रतिनिधियों की ओर से उनके परिवार के पुरुष सदस्य पंचायती राज संस्थाओं में उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण के लिए, हरियाणा में 2016 से पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में निर्वाचन लड़ने वाले व्यक्तियों के लिए  कानूनी संशोधन के आधार पर शैक्षणिक योग्यता निर्धारित होने के कारण, पंचायतों में महिलाएँ अधिक साक्षर और शिक्षित हैं. इसके बावजूद भी, महिला पंच और महिला सरपंच या ब्लॉक समिति की महिला सदस्य या अध्यक्ष और महिला जिला परिषद अध्यक्ष महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर भी बैठकों में भाग नहीं लेते.

20वीं शताब्दी में भारत   की राजनीति की व्याकरण को’आया राम और गया राम ‘का मुहावरा हरियाणा देन है. वहीं वर्तमान सदी में परिवार के पुरुष सदस्य महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति की व्याकरण में “सरपंच ससुर”, “सरपंच पति”, “सरपंच बेटा”, “सरपंच प्रतिनिधि” इत्यादि नए मुहावरे भी हरियाणा देन हैं. यही स्थिति अन्य राज्यों में भी है .एक सर्वे के मुताबिक झारखंड में 56 फीसदी महिलाएं पंचायती राज संस्थाओं में हैं ‘. परिवार के पुरुष सदस्य प्रतिनिधित्व महिलाओं का प्रतिनिधित्व  करते हैं. परिणामस्वरूप झारखंड में प्रयोग होने वाली शब्दावली के उदाहरण हैं—‘’मैं मुखियाजी का पति हूं”, ”मैं मुखिया जी का साला हूं”, ”मैं मुखिया जी का बेटा हूं’’ .झारखंड में महिला के पति को आम तौर पर ‘मुखिया जी’ कहकर संबोधित किया जाता है. महिला के पति को ‘सांसद पति’, ‘ या ‘मुखियापति’ या ‘मुखिया प्रतिनिधि’ कहा जाता है. यह मुहावरे जनमानस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा प्रिंट मीडिया — समाचार पत्रों की सुर्खियां भी होते हैं.

जब ग्रामीण लोग, अधिकारी, विधायक मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी उन्हें ‘सरपंच साहब’/ ‘पंच साहब’ कहते हैं.  ये राजनीतिक मुहावरे तब और भी अधिक   औचित्यपूर्णता प्राप्त कर लेते हैं जबकि यह असंवैधानिक, अवैध, महिला विरोधी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के समर्थक हैं. हमारा दृढ़ विश्वास है कि पंचायती राज अधिनियमों में अपराध-विरोधी कानून के प्रावधान की सख्त आवश्यकता है.

संक्षेप में, उपरोक्त कमियों के बावजूद, पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिका संस्थाओं में आरक्षण के माध्यम से महिलाओं की भूमिका में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और यह भारतीय लोकतंत्र की सफलता का एक अच्छा संकेतक है.हमारा दृढ़ विश्वास है कि पंचायती राज अधिनियमों में अपराध-विरोधी कानून के प्रावधान की सख्त आवश्यकता है.

राजनीतिक-प्रणाली/ राज्यपाल और उपराज्यपाल: महिला प्रतिनिधित्व- लैंगिक अंतर

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा। भारत में 28 राज्य और आठ केंद्र शासित प्रदेश हैं . केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासक उपराज्यपाल है.राज्यपाल और उपराज्यपाल भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते है.अब तक, 24 महिलाएँ राज्यों की राज्यपाल और 5 महिलाएँ केंद्र शासित प्रदेशों की उपराज्यपाल रही हैं.L

आज तक, दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी) में किसी भी महिला उपराज्यपाल की नियुक्ति नहीं की गई .यह वाकई निराशाजनक है कि आज तक इन नियुक्तियों में भी महिलाओं को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई है. यही कारण है कि इन नियुक्तियों में पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक अंतर बना रहता है. इस लैंगिक अंतर को दूर करने के लिए राज्यपालोंऔर उपराज्यपालों की नियुक्तियों में भी महिलाओं को बराबर भागीदारी दी जानी चाहिए.

सन् 1947 से सन् 2025 तक: केवल 18 महिला मुख्यमंत्री : लैंगिक अंतर

भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। ऐतिहासिक क्रम में, भारतीय कांग्रेस पार्टी की नेता श्रीमती सुचेता कृपलानी (हरियाणा- अंबाला की बेटी  – सन् 1963- सन् 1967 तक) को तक उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का श्रेय जाता है. श्रीमती सुचेता कृपलानी से लेकर श्रीमती रेखा गुप्ता तक 18 महिला मुख्यमंत्री रही हैं .परंतु सन् 1950 से 2025 तक, 350 से अधिक पुरुष मुख्यमंत्री रहे हैं.महिला मुख्यमंत्री-  क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से भी संबंधित हैं. भारत के संविधान के लागू होने के पश्चात सन् 2025 तक केवल 12 राज्यों और एक संघीय शासित क्षेत्र में महिला मुख्यमंत्री रही हैं .. इस समय(सन्2025) भारत के 27 राज्यों तथा सात संघीय शासित क्षेत्रों में कोई भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है.

आज तक केवल दो मुस्लिम महिलाएं — सैयद अनवरा तैमूर (पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री- असम) व श्रीमती महबूबा मुफ्ती(पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री -पूर्व जम्मू-कश्मीर) मुख्यमंत्री रही हैं .18 महिला मुख्यमंत्रियों में से कांग्रेस पार्टी और भाजपा की पांच-पांच महिलाएं विभिन्न राज्यों की मुख्यमंत्री रही हैं.जबकि 8 महिलाएं अन्य राजनीतिक दलों से संबंधित हैं. वर्तमान में कांग्रेस पार्टी शासित राज्यों में कोई भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है जबकि भाजपा नीत एनडीए की राज्य सरकारों में केवल दिल्ली में  श्रीमती रेखा गुप्ता(20 फरवी2025— ) मुख्यमंत्री है.

संक्षेप में मार्च 2025 में संघीय शासित प्रदेशों सहित 30  मुख्य मंत्रियों में  केवल दो महिलाएं – ममता बनर्जी (पश्चिमी बंगाल )और  श्रीमती रेखा गुप्ता (20 फरवी 2025) मुख्यमंत्री हैं.

लंबे समय तक केरल बंगाल और त्रिपुरा में वामपंथी दल सत्ता में थे. फिलहाल केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाली लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार है.  आज तक वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकारों में कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं बनी जबकि स्वतंत्रता आंदोलन सहित वामपंथी आंदोलनों  में आज तक महिलाओं की भूमिका द्वितीय रही है. इसलिए, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि चाहे वह वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) हो, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत एनडीए हो या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नीत यूपीए हो, वे सभी महिला सशक्तिकरण के बारे में बात करते हैं लेकिन वास्तविकता में, ऐसा  नहीं है और महिलाओं को सत्ता हस्तांतरित करने अथवा सहभागिता देने के लिए तैयार नहीं हैं. इन पार्टियों के सारे वादे खोखले और महज बयानबाजी नजर आ रहे हैं. यही मुख्य कारण है कि मुख्यमंत्री पद की दृष्टि से महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण सबसे निचले स्तर पर है. परिणामस्वरूप महिलाएं केवल मूक दर्शक गतिविधियों गतिविधियों में सम्मिलित हैं.

राज्य विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व: लैंगिक अंतर

दिसंबर 2022 में केंद्र सरकार के मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, भारत के राज्य विधानसभाओं बिहार (10.70%), छत्तीसगढ़ (14.44%), हरियाणा (10%) में 10% से अधिक महिला विधायक हैं। झारखंड (12.35%), पंजाब (11.11%), राजस्थान (12%), उत्तराखंड (11.43%), उत्तर प्रदेश (11.66%), पश्चिम बंगाल (13.70%) और दिल्ली (11.43%).

9 दिसंबर, 2022 को केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने लोकसभा को बताया कि 19 राज्य विधानसभाओं- आंध्र प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना में इत्यादि 10% से भी कम महिला विधायक हैं. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के राज्य गुजरात में 8.2% महिलाएं विधानसभा के लिए चुनी जाती हैं। 68 सदस्यीय हिमाचल प्रदेश विधानसभा में केवल एक महिला रीना कश्यप विधायक हैं. नागालैंड की स्थापना के बाद, 2023 तक विधानसभा के 13 चुनावों में एक भी महिला प्रतिनिधि नहीं चुनी गई।. मार्च 2023 के चुनावों में पहली बार, एनडीपीपी की दो महिलाएं, सुश्री हेकानी जखालु, और सुश्री साल्होतुनुओ क्रूस चुनी गईं. भारत के विभिन्न राज्यों में ऐसे असंख्य निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां से आज तक एक भी महिला विधान सभा के लिए निर्वाचित नहीं हुई है. संक्षेप में आज तक विधानसभाओं में महिला . प्रतिनिधित्व 20% से भी कम है.

हरियाणा की महिलाओं का लोकसभा में प्रतिनिधित्व की कहानी भी बड़ी दिलचस्प एवं रोचक हैसन् 1966 से सन् 2024 तक हरियाणा के लोकसभा में करनालरोहतक ,हिसार ,फरीदाबादगुरुग्राम तथा सोनीपत जिले से आज तक एक भी महिला लोकसभा में निर्वाचित नहीं हुई. केवल यही नहीं अपितु सभी चुनाव क्षेत्रों में महिला प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ते’. उदाहरण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ’ के नारे पर बल देती है इसके बावजूद भी सन् 2019 के चुनाव में केवल 52 विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में महिला प्रत्याशी थे. अन्य शब्दों में 48 चुनाव क्षेत्रों में एक भी महिला प्रत्याशी नहीं थी. जब तक महिलाओं को प्रत्याशी के रूप में चुनाव में नहीं उतारा जाएगा तब तक महिला सशक्तिकरण के सभी दावे खोखले और जुमले हैं. क्योंकि राजनीतिक शक्ति के बिना महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक जीवन में परिवर्तन नहीं हो सकता.

लोकसभा ,राज्यसभा और प्रांतीय विधान सभाओं में प्रतिपक्ष की महिला  नेता : लैंगिक अंतर

भारत में पहले आम चुनाव के बाद, 17 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन हुआ था, और इसकी पहली बैठक 13 मई 1952 को हुई थी. 73 वर्षों में केवल दो महिला  नेता श्रीमती सुषमा स्वराज(भाजपा नीत एनडीए)तथा श्रीमती सोनिया गांधी (कांग्रेस नीत यूपीए)लोकसभा की प्रतिपक्ष के नेता रही हैं. इन दोनों महिला नेताओं ने लोकसभा में विपक्षी नेता के रूप में जो भूमिका निभाई है वह अति प्रशंसनीय है .

अभी तक विभिन्न प्रांतीय विधान सभाओं में 13 महिलाएं प्रतिपक्ष के नेता रही है.अरुतला कमला देवी(स्वतंत्रता सेनानी, निजाम हैदराबाद के विरुद्ध तेलंगाना शस्त्र आंदोलन की महिला नेता एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की नेता) आंध्र प्रदेश की प्रतिपक्ष की नेता (1 मार्च1964 से 1 मार्च 1967–  3 वर्ष 8 दिन)रही है. अरुतला कमला देवी  भारत की विधानसभा में प्रतिपक्ष की प्रथम नेता है .इस समय समस्त भारत में भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती आतिशी दिल्ली विधान सभा में प्रतिपक्ष(23 फरवरी 2025–) की नेता है.

लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के स्पीकर (Speakers):  लैंगिक अंतर

लोकसभा के 17 अध्यक्षों में 17 अप्रैल 1952 से आज तक केवल दो महिलाएं स्पीकर रही हैं. मीरा कुमार(15 वीं लोकसभा -1 जून2009-11 जून 2014-कांग्रेस पार्टी)को प्रथम महिला होने का श्रेय जाता है तथा  श्रीमती सुमित्रा महाजन(16 वीं लोकसभा- जून2014-जून2019)– बीजेपी)दूसरी  महिला स्पीकर रही हैं. मार्च 2025 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसारविश्व के विभिन्न देशों की सांसदों में 22.43 प्रतिशत महिला स्पीकर है जबकि भारत में इस समय दोनों सदनों मेंकोई भी महिला अध्यक्ष नहीं है. आश्चर्यजनक बात यह है किआज तक में कोई महिला राज्य सभा में अध्यक्ष नहीं रही. 6 दिसंबर1966 को शन्नो देवी(कैथल) नव निर्मित राज्य हरियाणा की विधानसभा व भारत  की प्रथम महिला स्पीकर का पद ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

सन् 1950 से सन् 2025 तक राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति: लैंगिक अंतर

सन् 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद अब तक 18 राष्ट्रपतियों (तीन कार्यवाहक राष्ट्रपतियों सहित) में से केवल दो महिलाएँ राष्ट्रपति हुई हैं – भारत की पहली महिला राष्ट्रपति, श्रीमती  प्रतिभा देवी सिंह पाटिल (25 जुलाई 2002-25 जुलाई 2012)  और दूसरी वर्तमान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू (25 जुलाई 2022-वर्तमान–) हैं. अर्थात  सन् 1950 से सन् 2025 तक लैंगिक अंतर -18:2 है.

भारत में उपराष्ट्रपति का पद (संविधान के अनुच्छेद 63-73) भी है. उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है. सन् 1950 से सन् 2025 तक 14 उपराष्ट्रपति इस पद पर रह चुके हैं. अब तक 14 उपराष्ट्रपतियों में से एक भी महिला इस पद पर निर्वाचित नहीं हुई है . इसका अभिप्राय यह है कि लैंगिक अंतर 14 अनुपात शून्य (14: 00)है.

  प्रधान मंत्री का पद: लैंगिक अंतर -14:1

संविधान के अनुच्छेद 74(1) में कहा गया है कि भारत के राष्ट्रपति को ‘सहायता और सलाह’ देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा. संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार, प्रधान मंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधान मंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी. राष्ट्रपति की इच्छा तक मंत्री पद पर बने रहेंगे.

15 अगस्त 1947 से अब तक भारत में 14 प्रधान मंत्री हो चुके हैं. भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू (15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964) का कार्यकाल आज भी भारतीय इतिहास में सबसे लंबा है और अटल बिहारी वाजपेयी सन् 1996 में केवल 13 दिन तक प्रधान मंत्री रहें.  वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई दामोदरदास मोदी (नरेंद्र मोदी) भारत के 14वें प्रधान मंत्री हैं (30  मई 2014 से आज तक). कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के नेता डॉ. मनमोहन सिंह (अल्पसंख्यक धर्म-सिख धर्म) 10 वर्ष प्रधान मंत्री  (सन् 2004- सन् 2014) रहे हैं.हालाँकि अब तक पिछड़े वर्ग (एचडी देवेगौड़ा और वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी) से दो प्रधान मंत्री बने हैं.

लेकिन भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह (मुस्लिम धर्म), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित कोई भी व्यक्ति अभी तक प्रधान मंत्री नहीं बन सका. सन् 1947 से आज तक, 77 वर्षों में, केवल एक महिला, श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रधान मंत्री के इस प्रतिष्ठित पद पर आसीन हुई हैं (पहली बार सन् 1966-1  सन् 967 और दूसरी बार सन् 1980- सन् 1984).  श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में बैंकों का राष्ट्रीयकरण (जुलाई 1971), प्रिवी पर्स की समाप्ति, भारत- पाक युद्ध (सन् 1971) में जीत, बांग्लादेश का निर्माण, पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों का भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण और भूमिगत परमाणु परीक्षण (सन् 1974)  करना और सिक्किम को भारत का अभिन्न अंग बनाना (सन्1975) इत्यादि सम्मिलित हैं .इन अतुलनीय व अभूतपूर्व उपलब्धियों के कारण श्रीमती इंदिरा गांधी का नाम विश्व के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों की श्रेणी में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है और अंतर्राष्ट्रीय नेताओं की आकाशगंगा में ध्रुव तारे की तरह चमकता रहेगा.

भारतीय मंत्रिपरिषद:लैंगिक अंतर- पुरुष 89.53% : महिला 10.53%  

सन्1947 से लेकर आज तक भारतीय मंत्रिपरिषद में बहुत बड़ा लैंगिक अंतर रहा है. महिलाओं को उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. भारतीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 1947 में 2.63%, 1957 में 6%, 1964 में 9.8%, 1967 में 7.25%, 1980 7.50% तथा 1984 में 11.93% था. सन्1991 में  12%, 1997 में 11.36%, 1999 में 11.43%, 2009 में 13.79% ,2014 में 15.6%), 2019 में 10.53% तथा भाजपा नीत एनडीए सरकार(03) में जून 2024 में (9.7%) है.   भाजपा नीत एनडीए सरकार(03– जून 2024) में केंद्रीय  मंत्री परिषद के 72 सदस्यों से केवल 7  महिलाएं मंत्री हैं.

आश्चर्यजनक किंतु सत्य यह है कि भाजपा नीत एनडीए सरकार में एक भी मुस्लिम महिला अथवा  मुस्लिम पुरुष मंत्री नहीं है क्योंकि एनडीए  ‘मुस्लिम मुक्त’ है. लगभग 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का सत्ताधारी गठबंधन में प्रतिनिधित्व न होना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. इसका अभिप्राय यह है हुआ कि’ सबका साथ,सबका विकास’ केवल एक नारा  है जो वास्विकता की कसौटी पर खरा नहीं है. सन् 1947 से 2025 तक, भारतीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 10.53% है.

सन्  1947 से2025 तक केंद्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल चार गुना बढ़ी है. यदि केंद्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व इसी धीमी गति से जारी रहा तो महिलाओं को अच्छे दिन देखने में  150 साल लग जायेंगे और उन्हें बहुत लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी. मंत्रिपरिषद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व यह सिद्ध करता है कि पुरुष प्रधान सोच हावी है. पुरुष ‘सत्ता के केंद्र’ में बने रहना चाहते हैं और महिलाओं को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए तैयार नहीं हैं. महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुसार शक्ति और स्थान दिया जाना चाहिए.

विश्व स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व : लैंगिक अंतर

विश्व स्तर पर, महिलाओं का प्रतिनिधित्व न केवल संसदों में बल्कि कार्यकारी स्तर पर भी बढ़ रहा है.विश्व स्तर पर, महिलाओं का प्रतिनिधित्व न केवल संसदों में बल्कि कार्यकारी स्तर पर भी बढ़ रहा है. 1जनवरी 202 5 के आंकड़ों के अनुसार 25 देशों में महिलाएं राष्ट्राध्यक्ष / शासनाध्यक्ष हैं.एक अनुमान के अनुसार 113 देशों में  आज तक एक भी महिला राज्याध्यक्ष अथवा शासनाध्यक्ष नहीं रही.

यद्यपि वैश्विक स्तर पर मंत्रिमंडलों और मंत्रिपरिषदों में महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है. 1 जनवरी 2025 को प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार विश्व के विभिन्न देशों की मंत्रिपरिषदों में 22.9%महिलाएं हैं  भारत की केंद्रीय मंत्रिपरिषद में केवल 7 महिलाएं हैं और मंत्रिमंडल में केवल दो महिलाएं हैं.विश्व में केवल नौ देशों में 50% अथवा इससे अधिक महिलाएं मंत्रिमंडलों में हैं.

लेकिन जहां तक विभागीय नेतृत्व का सवाल है, लैंगिक अंतर है। महिला विकास, लैंगिक समानता, सामाजिक समावेशन, सामाजिक सुरक्षा, स्वदेशी लोगों, अल्पसंख्यकों आदि से संबंधित विभागों में अधिक महिलाएं शीर्ष पदों पर हैं, लेकिन सार्वजनिक प्रशासन, शिक्षा, पर्यावरण, ऊर्जा, प्राकृतिक संसाधन, ईंधन, खनन, परिवहन के क्षेत्रों में , आदि विभिन्न देशों के मंत्रिमंडलों और मंत्रिपरिषदों में शीर्ष पदों पर महिलाएँ बहुत कम हैं. इसके ठीक विपरीत, वैश्विक स्तर पर वित्त, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, विदेश विभाग, गृह विभाग आदि जैसे अधिक महत्वपूर्ण विभागों पर पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है.   वैश्विक स्तर पर वित्त, न्याय, रक्षा और गृह विभाग पर पुरुष नियंत्रण रखते हैं. पितृसत्तात्मक मानसिकता  सहित अनेक कारणों के परिणाम स्वरूप   पुरुषों का वर्चस्व स्थापित है और राष्ट्रीय मंत्रिमंडलों में महिलाएँ बैकफुट पर हैं.

भारतीय संसद में महिला प्रतिनिधित्व: लैंगिक अंतर

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. लेकिन भारतीय संसद (लोकसभा और राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल प्रतीकात्मक है। 1951-1952 से लेकर 2024तक 18 लोकसभा चुनाव हो चुके हैं. पहले आम चुनाव (1951-52) में लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 22 थी। यह कुल सीटों की संख्या (499) का केवल 4.4 प्रतिशत था। 15वीं लोकसभा चुनाव (2009)   से 2019 तक लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में लगातार वृद्धि हुई है। 15वीं लोकसभा (2009) में 59 महिला सांसद थीं और यह कुल सांसदों की संख्या  (545) का 10.9% है. 16वीं लोकसभा (2014) में 61 महिला सांसद थीं और यह कुल सांसदों की संख्या (545) का 11.2% है. वहीं 17वीं लोकसभा (2019) में 78 महिलाएं चुनाव जीतीं और यह कुल सांसदों की संख्या (545) का 14.6% है. परंतु  18 वीं लोकसभा (2024) में 74(13.6 %)महिला सांसद  हैं . यह संख्या सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के महिला सांसदों की संख्या से चार कम है.

वैश्विक रैंकिंग में भारत का  152वां स्थान – चीन और पाकिस्तान से भी कम रैंक

 भारत में पहले लोकसभा चुनाव (1951-52) से लेकर 17वीं लोकसभा चुनाव (2019) तक, 7 दशकों में केवल 690 महिलाएं लोकसभा के लिए चुनी गई है. इनमें से मुस्लिम महिलाओं की संख्या केवल 25 है. वर्तमान में लोकसभा में महिला सांसदों की कुल संख्या (74) 13.6 प्रतिशत है. हालाँकि हम हमेशा दावा करते हैं कि भारत दुनिया का ‘सबसे बड़ा लोकतंत्र और लोकतंत्र की जननी’ है. 2014 में विश्व रैंकिंग में महिला प्रतिनिधियों के मामले में 193 देशों की सूची में भारत 149वें स्थान पर था. .1 फरवरी 2025 के आंकड़ों के अनुसार185 देश की सूची में भारत का स्थान 152 वां है. अन्य शब्दों में सन् 2014 में रैंकिंग के स्थान पर हम तीन कदम नीचे फिसल गए. इसके  विपरीत विश्व महिला  रैंकिंग में भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान 17 प्रतिशत महिला सांसदों के साथ विश्व में 137 वें स्थान पर तथा चीन 26.5 प्रतिशत महिलाओं की संख्या के साथ 93वें स्थान पर है. विश्व महिला  रैंकिंग में 63.8% के आंकड़ों के अनुसार रवांडा प्रथम स्थान पर है. 1 फरवरी 2025   की रिपोर्ट के अनुसार विश्व की सांसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 26.5 प्रतिशत है..संक्षेप में विश्व की सांसदों में महिला प्रतिनिधित्व 26.5%है जोकि भारत (13.6%) से मुकाबले में  12.9 % अधिक है.लेकिन विश्व स्तर पर पुरुष प्रतिनिधित्व 63.5% व महिला प्रतिनिधित्व 26.5%  है.

महिलाओं के मार्ग में आने वाली बाधाएं

विश्व में महिलाओं के मार्ग में आने वाली बाधाओं में सबसे महत्वपूर्ण बाधा समाज के रुग्ण मानसिकता है. भारत के समाज पुरुष प्रधान होने के कारण “सन स्ट्रोक”(Son Stroke) से ग्रस्त है. समाज की सोच महिलाओं के प्रति नकारात्मक और महिला विरोधी है. सैद्धांतिक रूप में   समाज में महिलाओं को देवी, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा इत्यादि के रूप में पूजा जाता है परंतु लड़कियों का “कोख में कत्ल” कर दिया जाता है. महिलाओं के गर्भाशय बच्चा पैदा करने का स्थान न होकर “कब्रिस्तान” हैं. कोख में कत्ल को चीन में हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में ‘नरसंहार’ कहकर आलोचना की गई है. भारतीय समाज में महिला विरोधी  मानसिकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है. इसके अतिरिक्त अनपढ़ता, शिक्षित होने के बावजूद भी अज्ञानता, पिछड़ापन ,गरीबी , राजनीति का अपराधीकरण, भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ,राजनीति में प्रवेश करने वाली महिलाओं का चरित्र हनन , लैंगिक हिंसा, समाज का अनुदारवादी दृष्टिकोण, महिलाओं पर परिवार का दायित्व ,राजनीतिक दलों और राजनेताओं का महिला विरोधी दृष्टिकोण ,राजनीतिक दलों में सर्वोच्च स्थानों पर कुछ एक को छोड़कर महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होना, राजनीतिक संप्रदायवाद ,धर्मांधता, राजनीति में बाहुबल, कपट, छल, धन, गुंडागर्दी, प्रपंच का सामान्य होना इत्यादि मुख्य कारण हैं. इन के अतिरिक्त प्रत्येक राजनीतिक दल में परिवारवाद विद्यमान है.परिवारवाद के कारण राजनीतिक दलों के द्वारा परिवार के सदस्य अथवा रिश्तेदारों को टिकट दिलवाया जाते हैं. सामान्य कर्मठ ,वफादार, जुझारू महिला कार्यकर्ता को टिकट नहीं मिलता. महिलाएं इसलिए राजनीति में जाने से संकोच करती हैं . भारत में ही नहीं अपितु समस्त विश्व में राष्ट्रीय नेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं तक महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार किया जाता है. यही सब बातें लैंगिक अंतर के मूल कारण हैं.

महिलाओं के  राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए सुझाव

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए संसार के विभिन्न देशों में अनेक तरीके अपनाए गए हैं .विश्व के 100 से अधिक देशों में संवैधानिक संशोधनों और कानूनों के जरिए महिलाओं के लिए विधान पालिकाओं में कोटा निर्धारित किया गया है. भारत में संसद तथा विधानसभा के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था के संबंध अधिनियम (2023)पारित किया गया है परंतु यह अभी लागू नहीं हुआ है. यद्यपि महिलाओं के लिए पंचायती राज के स्तर पर 21 राज्यों व दो संघ शासित क्षेत्रों में 50 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की गई है. अनेक कमियों के बावजूद भी यह एक अच्छी शुरुआत मानी जाती है. संविधानिक आरक्षण तथा कानूनों के साथ- साथ महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के लिए राजनीतिक दलों के द्वारा अपने संगठनों में ग्रामीण स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कोटा निश्चित करना चाहिए. ऐसे कानून का निर्माण करना जरूरी है यदि राजनीतिक दल अपने संगठनों में तथा टिकट वितरण करते समय निर्धारित कोटे की अवहेलना करें तो चुनाव आयोग के द्वारा उनकी मान्यता समाप्त कर दी जाए.

भारत में कानून निर्माण और संवैधानिक संशोधन के साथ- साथ समाज की महिलाओं के प्रति सोच में परिवर्तन की बहुत अधिक आवश्यकता है. जितना अधिक महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण होगा उतना ही अधिक राष्ट्र मजबूत होगा. क्योंकि अधिकांश महिलाएं अधिक समझदार, संवेदनशील ,सहयोगी ,समन्वयक और सद्भावना से परिपूर्ण हैं. महिला राजनीतिक सशक्तिकरण का सर्वोत्तम उदाहरण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का है .बांग्लादेश के निर्माण में जिस तरीके से इंदिरा गांधी के द्वारा अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के विरोधी होने के बावजूद भी भारतीय सेना के सहयोग से सफलता प्राप्त की. विश्व के लिखित इतिहास में इंदिरा गांधी सदृश्य एवं अतुलनीय कोई अन्य उदाहरण नहीं है.

अंततःमहिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुसार शक्ति और स्थान दिया जाना चाहिए. अतः उद्घोष यह होना चाहिए ‘’जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’’, तभी लैंगिक असमानता समाप्त होगी और ‘पुरुष-केन्द्रित’ और ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं’ की दुनिया में महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण संभव होगा.

(>>टिप्पणी>>) यह लेख 8 मार्च 2025 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर चौ. ईश्वर सिंह कन्या महाविद्यालय, पुंडरी में आयोजित ‘मूल्य आधारित समाज के निर्माण में महिलाओं की भूमिका’ विषय पर दिए गए व्याख्यान का संशोधित संस्करण है. मैं प्रबंधक समिति के अध्यक्ष चौ. तेजबीर सिंह, प्राचार्या डॉ. अमिता, महिला प्रकोष्ठ एवं विधि प्रकोष्ठ की समन्वयक डॉ. निधि, एनएसएस समन्वयक डॉ. सोनिया और सबसे बढ़कर छात्राओं का आभार व्यक्त करता हूँ.)

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