न्यूनतम समर्थन मूल्य (सीटू+50%) की लीगल गारंटी व कृषि विकास के इंजन की रफ्तार : एक मूल्यांकन
डॉ.रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक व पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
Drramjilal947@gmail.com
#समाज वीकली
सन् 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद समाप्त हो गया परंतु कृषि क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण भुखमरी और गरीबी का साम्राज्य जारी रहा.विदेशों से खाद्यान्न को आयात किया जाने लगा . प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवानों और किसानों को प्रेरित करते हुए ‘जय जवान, जय किसान’ उद्घोष राष्ट्र को दिया. भारत जैसे कृषि प्रधान देश को बाहर से खाद्यान्न आयात करना पड़े अथवा अन्य राष्ट्रों के उपहार के आधार पर जनता का पेट भरना पड़े यह एक अपमानजनक बात थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा तत्कालीन कृषि मंत्री सी. चिदंबरम ने चिंतन किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे की किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिलना चाहिए तभी भारत को भूख और कुपोषण से बचाया जा सकता है.
भारत सरकार के द्वारा किसानों की समस्या का समाधान करने के लिए तथा उनको फसलों का उचित मूल्य देने के लिए एक समिति का गठन किया गया. इस समिति का अध्यक्ष कृषि मंत्रालय के सचिव एलके झा को बनाया गया. इसके चार अन्य सदस्य टी.पी सिंह , वीएन आधारकर ,एम. एल. दंतवाला तथा एसी चौधरी थे. इस समिति ने 24 सितंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी. इस समिति की संस्तुतियों के आधार पर भारत सरकार के द्वारा 13 अक्टूबर 1964 को अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया तथा 24 दिसंबर 1964 को न्यूनतम समर्थन मूल्य को स्वीकृति प्रदान की गई. 19 अक्टूबर 1965 को भारत सरकार के सचिव शिव रमन ने अंतिम स्वीकृति प्रदान की .अमेरिकन कृषि वैज्ञानिक फरैंक पाकर के परामर्श पर भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यम ने सन् 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹54 प्रति क्विंटल घोषित किया .
पंजाब के मुख्य मंत्री (गैर –कांग्रेसी) गुरनाम सिंह ने भारत के तत्कालीन कृषि मंत्री बाबू जगजीवन राम से अनुरोध किया की एमएसपी के आधार पर पंजाब से गेहूं एफसीआई के लिए खरीदा जाए. बाबू जगजीवन राम ने पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार गुरनाम सिंह के अनुरोध को स्वीकार करते हुए पंजाब से एफसीआई को गेहूं खरीदने की स्वीकृति प्रदान की. पंजाब समस्त भारत में वह पहला राज्य है जिसने एमएसपी को लागू किया और केंद्रीय सरकार को एमएसपी के आधार पर गेहूं खरीदने के लिए आग्रह किया. भारतीय कृषि के इतिहास में यह सुनहरी अक्षरों में दर्ज करने वाली बात है. परिणाम स्वरूप पंजाब के किसानों को बहुत अधिक राहत और सुरक्षा महसूस हुई. पंजाब के पश्चात हरियाणा ने भी एमएसपी को लागू किया. भारतीय कृषि के इतिहास में यह मील का पत्थर साबित हुआ .
सन् 1966 -1967 में केवल गेहूं को समर्थन मूल्य दिया गया था .परंतु इस समय 24 फसलों को समर्थन मूल्य दिया गया है .समर्थन मूल्य निकालने A2 ,A2 प्लस एफ एल और सीटू+50%.तीन फार्मूले हैं .स्वामीनाथन आयोग(2006) ने अपनी संस्तुतियों में सीटू+50%. फार्मूले के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने का सुझाव दिया था.स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार सीटू+50%.फार्मूले के अंतर्गत फसल पर आने वाले सभी खर्चों के साथ जमीन का किराया , भूमि तथा स्थायी परिसंपत्तियों पर लगने वाले ब्याज को जोड़ कर कुल लागत पर 50% जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित (एमएसपी) तय किया जाना चाहिए. परंतु इस फॉर्मूले के अंतर्गत समर्थन मूल्य किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता .इसलिए किसी भी फसल के उत्पादन में उनको फायदा नहीं होता. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट( ओ ई सी डी) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2000 से सन् 2016-17 के बीच उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने के कारण भारतीय किसानों को 45 लाख करोड रुपए का नुकसान हुआ है .यह हानि लगभग ₹8000 से ₹10000 प्रति एकड़ प्रति वर्ष है.
सन्1990 के दशक में सोवियत संघ के भंग होने के पश्चात विश्व में उदारीकरण ,निजीकरण तथा वैश्वीकरण (एलपीजी) नव — उदारवाद की विचारधारा की आंधी का प्रभाव भारतीय सामाजिक, आर्थिक व ऱाजनैतिक व्यवस्थाओं पर भी पडा. पूंजीवादी राष्ट्रों के दबाव के कारण भारत सरकार ने सभी क्षेत्रों में बाजारीकरण व बाजारीवाद को बढ़ावा दिया. भारतीय कृषि क्षेत्र भी नव -उदारवाद — बाजारवाद तथा बाजारीकरण से मुक्त न रह सका. परिणाम स्वरूप भारतीय खेतिहर मजदूरों, सीमांत किसानों को भी बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों, कृषि उर्वरों इत्यादि के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट व्यापारियों, आढतियों पर निर्भर रहना पड़ा. कृषि का व्यवसायीकरण हो गया. इसका ग्रामीण जीवन शैली, ग्रामीण संस्कृति और ग्रामीण सभ्यता पर भी पडा. नव- उदारवाद की तीव्र गति ने ग्रामीण जीवन शैली को कमजोर कर दिया और खाद्य सुरक्षा प्रदान करने वाली परंपरागत फसलों की अपेक्षा कैश क्रॉप उत्पादन पर बल दिया जाने लगा. कैश क्रॉप के कुप्रभाव ग्रामीण आंचल में इतने भयानक सिद्ध हुए व धीरे-धीरे कृषि सीमांत किसानों के लिए घाटे का सौदा बनता चला गया. यद्यपि स्वामीनाथन आयोग का गठन तत्कालीन यूपीए सरकार के द्वारा किया गया था.परंतु अफसोस की बात यह है कि उसके द्वारा प्रस्तुत की गई संतुति -C2 + 50% के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू नहीं किया.
सन् 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी (अब भारत के प्रधानमंत्री) ने 437 जनसभाओं को संबोधित किया.इनमें से 219 जनसभाओं में नरेंद्र मोदी ने स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने, किसानों को फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (C2 + 50%) देने तथा कर्ज माफी का आश्वासन दिया था. भारतीय जनता पार्टी के सन् 2014 के संकल्प पत्र में किसानों को उत्पाद के लिए लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का आश्वासन भी किया गया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद सरकार का नेतृत्व मुकर गया और सन् 2015 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया है जिसमें कहां गया कि सरकार यह वादा पूरा नहीं कर सकती.
सन् 2014 की जनसभाओ में नरेंद्र मोदी ने किसानों के आत्महत्याओं के लिए तत्कालीन कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार को उत्तरदाई ठहराया था. परंतु सन्2014 के पश्चात भाजपा नीत एनडीए की सरकार के कार्यकाल में भी आत्महत्याओं का सिलसिला बंद नहीं हुआ. सन् 2014 सन् 2020 के अंतराल में मोदी सरकार की ‘पूंजीपतियों को नमन और किसानों का दमन’की नीति के चलते 78,303 किसानों ने आत्महत्या की है, जिसमें 35,122खेतिहर मजदूर ने भी आत्महत्या की है .सन् 2014 में 12336, सन् 2015 में 12602 सन्2016 में 11379, सन्2017 में 10665, सन्2018 में 10,350 किसान पुरुषों और महिलाओं ने आत्महत्याएं की हैं.सन् 2019 की तुलना में सन् 2020 में खेतिहर मजदूरों ने 18 प्रतिशत तक अधिक आत्महत्या की है.
परिणामस्वरूप किसानों को आंदोलन की राह पकड़नी पड़ी. सन् 2014 से सरकार के विरुद्ध जगह-जगह किसान विद्रोह, आंदोलन, हड़तालें,धरने ,प्रदर्शन, जलसे,जलूस होने लगे. एक अनुमान के अनुसार सन् 2014 से सन् 2016 के अंतराल में किसानों के विरोध प्रदर्शनों की संख्या 628 से बढ़कर 4837 हो गई . मंदसौर गोलीकांड (जून2017) के पश्चात महाराष्ट्र में किसानों के द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व में नासिक से मुंबई तक “लांग मार्च” (मार्च 2018),पश्चिमी उत्तर प्रदेश में” किसान क्रांति यात्रा –दिल्ली मार्च “(23सितंबर2018 – 2 अक्टूबर 2018).,तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन, दिल्ली (30 जून 2018 ) एवं किसान आंदोलन(30 नवम्बर2018) महत्वपूर्ण आंदोलन हैं. दिल्ली में 207 संगठनों की समन्वय समिति के नेतृत्व में किसानों का एक बहुत बड़ा आंदोलन(30 नवम्बर2018) लामबंद किया गया.
5 जून 2020 को जब कोरोना( कोविड-19 )महामारी अपनी चरम सीमा पर थी उस समय भारत के राष्ट्रपति के द्वारा तीन अध्यादेश – 1. आवश्यक वस्तु अधिनियम 1 अप्रैल 1955 (संशोधन ), अध्यादेश 2020, 2. किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा)),अध्यादेश 2020, 3. कृषि उत्पाद मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान अनुबंध( सशक्तिकरण एवं सुरक्षा), अध्यादेश 2020 जारी किए गए तथा 14 सितंबर 2020 को भारत सरकार ने इनको संसद में प्रस्तुत किया. संसदकी स्वीकृति तथा राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात 27 सितंबर 2020 (रविवार) को भारत सरकार के विधि मंत्रालय ने इनको राजपत्र में प्रकाशित करवा दिया और तीनों कृषि कानून एक दम लागू हो गए. इन तीन कृषि कानूनों ने किसानों के समस्याओं को और अधिक गंभीर कर दिया. सन् 2020 से सन् 2021 के अंत तक किसान आंदोलन का स्वरूप विश्व के किसान आंदोलन के इतिहास में अपने आप में अनूठा है. यह आंदोलन 378 दिन चला. इसमें लगभग 750 किसान शहीद हुए. 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन तीन कृषि कानूनों को वापिस ले लिया. किसानों की कुर्बानी की यह अभूतपूर्व विजय थी.यद्यपि तीनों कृषि कानून संसद के द्वारा एक नया कानून बनाकर निरस्त कर दिए गए. परंतु किसानों की बाकी मांगें अभी तक पूरी नहीं हुई. आज भी किसानों के वही मांगे हैं जो नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों ने संदेश में कही थी.
संयुक्त किसान मोर्चा की मुख्य मांग है कि किसानों को खेती की संपूर्ण लागत पर आधारित सीट्+ 50% फार्मूले के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाए, और एमएसपी के संबंध में कानून का निर्माण किया जाए . यह कानून समस्त भारत में लागू हो. इसके उल्लंघन करने वाले को जुर्माना , कैद अथवा दोनों होने चाहिए . एमएसपी के कानूनी स्वरूप के अतिरिक्त किसानों की अन्य मांगों में स्वामीनाथन आयोग की अन्य सिफारिशों को लागू करना; किसानों और खेत मजदूरों के लिए पेंशन; कृषि ऋण माफ करना ; सन् 2020 से सन् 2021 के किसान आंदोलन के दौरान दर्ज पुलिस मामलों को वापस लेना; लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन के दौरान चार किसानों सहित आठ मारे गए लोगों के लिए न्याय ; आंदोलन के दौरान लगभग 750 किसानों ने शहादत दी है उनके परिवारों को मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था तथा शहीद स्मारक बनाने के लिए टिकरी बॉर्डर पर जमीन देने की मांग हैं . यह वही मांगे हैं जो नवंबर 2021 में की गई थी. नवंबर 2021के पश्चात सरकार ने किसानों की मांगों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया परिणाम स्वरूप इन मांगों की पूर्ति के लिए किसानों को दोबारा आंदोलन करना पड़ा जिसे किसान आंदोलन 02 के नाम से पुकारते हैं
लगभग एक साल से संयुक्त किसान मोर्चा( गैर राजनीतिक)एवं किसान मजदूर मोर्चा के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा है.इस आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के आमरण अनशन के 70 दिन से अधिक हो चुके हैं. 26 जनवरी 2021 के ऐतिहासिक रैली को याद करते हुए 26 जनवरी 2025 को अधिकांश राज्यों में जिला स्तर पर ट्रैक्टर/वाहन /मोटरसाइकिल रैलियां निकाली गई संयुक्त किसान मोर्चा के मीडिया सेल के द्वारा जारी की गई विज्ञप्ति के अनुसार ”पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना , आंध्र प्रदेश, असम ”इत्यादि राज्यों सहित गुजरात के साबरकांठा और अरावली जिलों में रैलियां निकाली गई. संयुक्त किसान मोर्चा के मीडिया सेल ने आगे कहा कि चार साल के बाद पीएम मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार- 3 ‘’एक बार फिर कॉर्पोरेट समर्थक कानूनों को वापस लाने का प्रयास कर रही है .कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति रूपरेखा (NPFAAM) के माध्यम से तीन कृषि कानून का पुनर्जन्म हुआ है . संयुक्त किसान मोर्चा की विज्ञप्ति के अनुसार कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति राज्य सरकार को अपने कृषि बाजारों को नियमित करने का करने का आदेश देती है. जिससे कृषि उत्पादन, विपणन और खाद्य वितरण पर कॉरपोरेट नियंत्रण हो सके संयुक्त. किसान मोर्चा की मांग है कि कृषि विपणन पर राष्ट्रीय नीति को खारिज किया जाए.
देश के किसान भारी संकट का मुकाबला सामना कर रहे हैं . एक ओर किसानों की समस्याओं को देखते हुए बजट के भाषण में वित्त मंत्री ने कृषि को “विकास का इंजन” बताया है. उधर दूसरी ओर वितीय वर्ष2025-26 के बजट में धन आवंटन के मामले में कृषि और किसान कल्याण विभाग के वितीय वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमान की तुलना में तीन प्रतिशत कम है.वर्तमान बजट में कृषि और किसानों के लिए मुख्य केंद्र बिंदु निम्नलिखित हैं :
1.प्रधानमंत्री धन-धान्य कृषि योजना :
बजट में कृषि पर केंद्रित नौ मिशन की घोषणा की गई. इनमें प्रधानमंत्री धन-धान्य कृषि योजना सबसे महत्वपूर्ण है. इसके अंतर्गत कम फसल उत्पादकता वाले 100 जिलों को कवर होंगे. इसके अतिरिक्त दालों में आत्मनिर्भरता के लिए 6 वर्षीय मिशन, उच्च उपज वाले बीजों पर राष्ट्रीय मिशन, कपास उत्पादकता के लिए मिशन और सब्जियों और फलों के लिए एक कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं.
2. कृषि उपकरणों पर सब्सिडी:
प्रधानमंत्री धन-धान्य योजना के अंतर्गत कृषि उपकरणों जैसे ट्रैक्टर, पंप इत्यादि सब्सिडी देने का ऐलान किया है. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि योजना का अधिकतम लाभ पूंजीपतियों को होगा.
3. मत्स्य उद्योग के लिए और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones):
मत्स्य उद्योग के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones) का निर्माण किया जाएगा. परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर सरकार का नियंत्रण होगा अथवा कॉरपोरेट घरानों को सौंपा जाएगा.
4. किसान क्रेडिट कार्ड
वर्तमान बजट में किसान क्रेडिट कार्ड के अंतर्गत ऋण की सीमा 3 लाख से 5 लाख रुपए कर दी गई है तथा ऋण समय पर चुकाने के लिए ब्याज पर दो परसेंट की सब्सिडी का वर्णन है .यदि किसान समय पर ऋण भुगतान करता है तो तीन प्रतिशत की छूट होगी. इस प्रकार ब्याज केवल 4% होगा .परंतु इस बजट में इस बात का वर्णन नहीं है कि यदि बाज़ार में मंदी के कारण, प्राकृतिक आपदाओं, नकली बीजों,नकली उर्वरकों इत्यादि के कारण फसल खराब हो जाए और किसान समय पर ऋण न चुका सके तो उसकी क्या स्थिति होगी? परिणाम स्वरुप किसानों पर और अधिक ऋण का बोझ बढ़ जाएगा. कर्ज माफी करना होने से ‘विकास के इंजन’ की गति धीमी होगीऔर इससे किसानों की समस्याओं में वृद्धि होने की संभावना है. इसके अतिरिक्त रसायनों व बीजों की कीमतों में वृद्धि, कृषि उपकरणों विशेषतोर से ट्रैक्टरों ,वाटर पंपों ,डीजल व पेट्रोल के मूल्य में वृद्धिं,श्रमिको की दिहाडी में वृद्धि ,पशुओं का महंगा होना,मनरेगा योजना के अंतर्गत सीमांत किसानों व कृषि श्रमिको का कल्याण न होना ,सरकारी और गैर सरकारी ऋण चुकाने में असफल होना , जल संकट, वायु परिवर्तन इत्यादि के कारण भी किसानों की समस्याओं में वृद्धि होगी .परिणाम स्वरूप उनके लिए ऋण चुकाना और भी कठिन होगा.
5. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई)
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का प्रारंभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा फरवरी 2016 में किया गया .इसका मुख्य उद्देश्य किसानों की फसलों का व्यापक तौर पर कंवर प्रदान करना था ताकि उनकी आय स्थिर हो सके. केंद्रीय बजट वित्तीय वर्ष 2025-26 में पीएमएफबीवाई के लिए 12,242.27 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जोकि वित्तीय वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमान 15,864 करोड़ रुपये की तुलना में लगभग 23 प्रतिशत कम है.
6. कर्ज माफी न होना:
सन् 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी जो बीजेपी के स्टार प्रचारक थे उन्होंने किसानों के कर्ज की माफी की घोषणा की थी. परंतु सन् 2014 से सन् 2025 तक के सभी बजटों में कर्ज माफी का कोई प्रावधान नहीं किया गया जबकि यह किसानों की सबसे बड़ी मांग है. यद्यपि कृषि क्षेत्र विकास का पहला इंजन है. परंतु इसके बिलकुल विपरीत चाहे वह मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए (UPA) सरकार थी अथवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत एनडीए (NDA) सरकार है दोनों ही किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों व कॉरपोरेट्स की पक्षधर रही हैं और उन्होंने पूंजीपतियों के लोन को एनपीए में डालकर ‘बैंकों का मुंडन संस्कार’ किया है. आरटीआई कार्यकर्ता प्रफुल्ल शारदा की आरटीआई द्वारा मांगी गई सूचना के अनुसार मोदी सरकार ने 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2021 तक बैंकों के 11,19,482 करोड़ रुपए ‘राइट ऑफ’किए हैं. आरटीआई में यह भी खुलासा किया गया है कि सन् 2004 से सन् 2014 तक केंद्र की यूपीए सरकार के द्वारा 2.22 लाख करोड रुपए के लोन माफ किए गए थे. एक अनुमान के अनुसार यह राशि बढ़कर लगभग16 लाख करोड़ रूपऐ हो गई है. कर्ज माफी न होने से ‘विकास के इंजन’ की गति धीमी होगी और इससे किसानों की समस्याओं में वृद्धि होने की संभावना है.
बजट का विश्लेषण करने से यह ज्ञात होता है कि इससे किसानों को निराशा हुई है. क्योंकि उनकी सबसे बड़ी दो मांगों–सीटू 50% फार्मूले के आधार पर एमएसपी को कानूनी गारंटी देने तथा कर्ज माफी का बजट में वर्णन नहीं है. हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि इन दोनों मांगों को मानने के पश्चात ही कृषि के विकास इंजन की रफ्तार बढ़ सकती है अन्यथा धीमी गति रहेगी और खाद्यान्नों का उत्पादन कम होने की संभावना भी रहेगी.