(समाज वीकली)
(यह लेख जनवरी 2015 में लिखा गया था और हस्तक्षेप में प्रकाशित हुआ था। पिछले एक साल से चल रहे किसान आंदोलन, और एक्सप्रेस वे, स्मार्ट सिटी, एजुकेशन सिटी, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों आदि के नाम पर पूरे देश में लगातार हो रहे भूमि अधिग्रहण के मद्देनजर लेख की प्रासंगिकता को देखते हुए फिर से जारी किया गया है।)
– प्रेम सिंह
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून 2013 (एलएआरआर ऐक्ट 2013) भाजपा के सुझावों को शामिल करके उसके समर्थन से संसद में पारित हुआ था। कानून को स्वीकृति देने वाली संसदीय समिति की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन थीं जो वर्तमान लोकसभा की अध्यक्ष हैं। यह कानून जनवरी 2014 से अमल में आया। इस कानून में अधिग्रहण की जाने वाली जमीन के लिए किसानों को उचित मुआवजा देने और उनकी पूर्व अनुमति संबंधी प्रावधानों को पहले के 13 कानूनों पर एक साल के अंदर लागू करने की व्यवस्था भी की गई थी। उपनिवेशवादी दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की जगह एलएआरआर ऐक्ट 2013 लाया गया था। 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीतियों के चलते किसानों-आदिवासियों की भारी तबाही, सामाजिक तनाव और पर्यावरण विनाश के चलते दबाव में आई यूपीए सरकार ने यह कानून बनाया। इसके तहत भूमि अधिग्रहण यदि सरकार द्वारा होता है तो 70 प्रतिशत और कंपनियों द्वारा सीधे होता है तो 80 प्रतिशत जमीन के मालिकों की स्वीकृति अनिवार्य है। इसके साथ सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) का प्रावधान भी अनिवार्य बनाया गया है।
वर्तमान सरकार द्वारा दिसंबर 2015 के आखिरी दिन लाए गए अध्यादेश में कानून की धारा 10 ए में संशोधन किया गया है कि पांच क्षेत्रों – औद्योगिक गलियारों, पीपीपी (सार्वजनिक निजी भागीदारी परियोजनाओं), ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं, रक्षा उत्पादन और आवास निर्माण योजनाओं – के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में पूर्व अनुमति और एसआईए की बाध्यता नहीं होगी। इन क्षेत्रों के लिए बहुफसली सिंचित जमीन भी सीधे ली जा सकती है। सरकार ने यह अध्यादेश लाने का फैसला संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने पर 29 दिसंबर को किया। राष्ट्रपति ने जल्दबाजी का कारण पूछा तो सरकार के तीन मंत्री उन्हें स्पष्टीकरण दे आए और राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। एलएआरआर ऐक्ट 2013 से किसानों-आदिवासियों की उनकी जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया में जो भूमिका बनी थी, अध्यादेश ने उसे खत्म कर फिर से नौकरशाही और कारपोरेट घरानों को दे दिया है। इन संशोधनों के पक्ष में भाजपा नेता जो तर्क दे रहे हैं, वे कानून बनने के समय देने चाहिए थे। जाहिर है, अध्यादेश लाकर सरकार ने आम चुनाव में कारपोरेट घरानों के समर्थन का मोल चुकाया है।
ऐसा माना जाता है कि कारपोरेट घरानों ने मनरेगा, भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्यान्न सुरक्षा कानून जैसे कदमों से खफा हो मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की जगह नरेंद्र मोदी पर दांव लगाया था। मनमोहन सिंह शास्त्रीय ढंग से नवउदारवाद के रास्ते पर चलने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री थे। जबकि नरेंद्र मोदी अंधी छलांगें लगा रहे हैं। भाजपा का मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री बताने का प्रचार निराधार था। हालांकि, चुनावी जीत में वह प्रचार काफी कारगर रहा। वे भारत में नवउदारवाद के जनक और प्रतिष्ठापक के बतौर सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में याद किए जाएंगे। उन्होंने भारत की आर्थिक नीतियों और उनके लक्ष्य को संविधान की धुरी से उतार कर नवउदारवादी प्रतिष्ठानों – विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच, विविध बहुराष्ट्रीय कंपनियों आदि – की धुरी पर प्रतिष्ठित कर दिया। वे पूरी समझदारी से मानते थे कि विकास का प्रचलित पूंजीवादी रास्ता ही ठीक है। हर्षद मेहता प्रकरण से लेकर भ्रष्टाचार के अद्यतन घोटालों तक उनकी पेशानी पर शिकन नहीं आती थी, तो इसीलिए कि वे ईमानदारी से मानते थे कि पूंजीवादी विकास का रास्ता भ्रष्टाचार से होकर गुजरता है। नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह का ही विस्तार हैं, इसलिए उनकी सरकार में वही सब नीतियां और कारगुजारियां हैं। लेकिन दोनों में फर्क भी है। मनमोहन सिंह न सत्ता के भूखे थे, न नवउदारवादी उपभोक्तावाद की चकाचौंध से आक्रांत। नरेंद्र मोदी के अति उत्साह के पीछे ये दो कारक सर्वप्रथम हैं।
यह संविधान की मूल भावना में है और 1987 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि अध्यादेश आपात अथवा असामान्य स्थिति में ही लाना चाहिए। ध्यान किया जा सकता है कि अध्यादेशों का सिलसिला मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री काल में ही शुरू हो गया था। वाजपेयी सरकार ने उसे तेजी से आगे बढ़ाया। यूपीए सरकार भी अध्यादेशों की सरकार थी। लेकिन सात महीना अवधि की मौजूदा सरकार ने संसद के सत्र के समानांतर और समाप्ति पर नौ अध्यादेश लाकर संसदीय लोकतंत्र को अभी तक का सबसे तेज झटका दिया है। यह कहना कि अध्यादेशों से संसदीय लोकतंत्र को आघात पहुंचता है, जैसा कि कुछ अंग्रेजी टिप्पणीकारों ने भी कहा है, महज तकनीकी आलोचना है। सवाल है कि पहले की या मौजूदा सरकार ऐसा क्यों करती हैं? इसका उत्तर यही हो सकता है कि सरकारें यह कारपोरेट पूंजीवाद के वैश्विक प्रतिष्ठानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट घरानों के हित में करती हैं।
नवउदारवादी दौर में चुनाव अत्यंत मंहगे हो गए हैं। खबरों के अनुसार पिछले आम चुनाव में भाजपा ने बीस से पच्चीस हजार करोड़ और कांग्रेस ने दस से पंद्रह हजार करोड़ रुपया खर्च किया। यह धन कारपोरेट घरानों से आता है। प्रधानमंत्री बनने के दावेदार नेता पूंजीपतियों के संगठनों/सम्मेलनों में शामिल होकर खुले आम कहते हैं, हमें जितवाइये हम आपका काम करेंगे। भारतीय लोकतंत्र को कारपोरेट घरानों ने हाईजेक कर लिया है। भूमि अधिग्रहण कानून लागू होने के चार महीने बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में बनी भाजपा सरकार ने उसे बदलने की मंशा जाहिर कर दी थी। तीस प्रतिशत समर्थन को वह मतदाताओं की नहीं, कारपोरेट घरानों की देन मानती है। ऐसे में बड़े बिजनेस घरानों का हित सरकार के लिए सर्वोपरि हो जाता है। चुनाव में कारपोरेट घरानों का धन नहीं रुकेगा तो उनके हित में लाए जाने वाले अध्यादेश भी नहीं रुकेंगे।
इस अध्यादेश से जल, जंगल, जमीन का पहले से उलझा मसला और जटिल होगा। मंहगा मुआवजा मिल जाने से किसानों-आदिवासियों का ‘मोक्ष’ नहीं हो जाता है। ज्यादातर किसान छोटी जोत वाले होते हैं। जमीन अधिग्रहण के चलते उनमें ज्यादातर न घर के रहते हैं न घाट के। मोटा मुआवजा अक्सर फिजूलखर्ची और व्यसन में जल्दी ही खत्म हो जाता है। बहुत कम लोग मुआवजे का समझदारी से दूरगामी उपयोग कर पाते हैं। गांव की जमीन पर निर्भर रहने वाली दलित एवं कारीगर जातियों को 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून के समय से ही कोई मुआवजा राशि, आवासीय प्लॉट या नौकरी नहीं मिलती है। ऐसे में बिना पूर्व अनुमति और सामाजिक प्रभाव आकलन के जमीन अधिग्रहण से सामाजिक विग्रह तो बढ़ेगा ही, नक्सली हिंसा में इजाफा हो सकता है।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि कुछ भले लोगों का नवउदारवादी दायरे में सरकार के सलाहकार बन कर किसानों-आदिवासियों-मजदूरों को कुछ राहत दिलवाने का गैर-राजनीतिक प्रयास स्थायी नहीं हो सकता। उन्हें समझना होगा कि जनता की जिस जागरूकता और सक्रियता की वे बात अपने एनजीओ कर्म के तहत करते हैं, उसका बिना राजनीतिक सक्रियता के कोई अर्थ नहीं है।
कांग्रेस समेत ज्यादातर पार्टियों ने इस अध्यादेश का विरोध किया है। कई जन संगठन, किसान संगठन और महत्वपूर्ण लोग भी विरोध में हैं। जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने अपने बयानों और लेखों में अध्यादेश की कड़ी आलोचना दर्ज की है। हो सकता है भाजपा का किसान प्रकोष्ठ भी विरोध करे। उससे संबद्ध मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने सरकार के खिलाफ हाल में हुई कोल माइंस वर्कर्स यूनियन की सांकेतिक हड़ताल में अन्य मजदूर संगठनों के साथ मिल कर हिस्सा लिया है। यह विरोध तभी सार्थक है जब ये सब पार्टियां और संगठन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का भी विरोध करें। यानी विकास के उपभोक्तवादी-पूंजीवादी मॉडेल का विरोध।
विरोध के साथ कुछ फौरी कदम भी उठाने चाहिए। राजनीतिक पार्टियों को भूमि अधिग्रहण कानून की मजबूती के साथ, जैसा कि सोशलिस्ट पार्टी की मांग है, एक भूमि उपयोग आयोग (लैंड यूज कमीशन) बनाने की पहल करनी चाहिए। उसमें किसानों और आदिवासियों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में किसान आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उसके कई महत्वपूर्ण विचारक और नेता रहे हैं। आजादी के बाद चौधरी चरण सिंह से लेकर नंजुदास्वामी व किशन पटनायक तक खेती-किसानी के स्वरूप व समस्याओं पर गहराई से विचार करने वाले लोग हुए हैं। इस विरासत को विकास के विमर्श का हिस्सा बनाना चाहिए।
(पुनश्च: अंतत: सरकार को अध्यादेश वापस लेना पड़ा था। कृषि-संकट के विद्वान विशेषज्ञों द्वारा अभी तक कोई ऐसा शोध सामने नहीं आया है, जिसमें ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून 2013’ में संशोधन के लिए लाए गए अध्यादेश की वापसी के बाद/बावजूद विभिन्न उपयोगों के लिए अधिग्रहित की जमीन के मामलों में सरकार का क्या रवैया रहा है।)