आंबेडकरी साहित्य निर्माण में एल. आर. बाली जी का योगदान
20 जुलाई : जन्मदिवस विषेष
डॉ. संजय गजभिए
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(समाज वीकली)- बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद उनके विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए आंबेडकरी साहित्य की अत्यावष्यकता थी। इस काल में आंबेडकरी साहित्य विपुल प्रमाण में उपलब्ध नहीं था। जो कुछ थोड़ा बहुत था वह मराठी में ही उपलब्ध था। हिन्दी में तो आंबेडकरी साहित्य नगन्य ही था। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी में आंबेडकरी साहित्य निर्माण करने की जिम्मेदारी जिन्होंने प्रमुखता से निभाई उनमें बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के सम्पर्क में रहे डॉ. भदन्त आनंद कौषल्यायन, माननीय सोहनलाल शास्त्री, आदरणीय एल.आर. बाली, एडवोकेट भगवान दास, तथा प्रो. डॉ. डी. आर. जाटव का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
उर्दू मासिक ‘क्रांति’, जिसका संपादन संतराम बी.ए. करते थे, (संतराम बी.ए. जात पात तोड़क मंडल, लाहोर के माध्यम से 1935 के दौरान से डॉ. बाबासाहेब के सम्पर्क में थे) इनका एल. आर. बाली जी के घर में 1946 तक, लगातार आना-जाना लगा रहा। संतराम बी.एस. ‘क्रांति’ मासिक में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के लेख और वक्तव्य अनुवादित करके प्रकाषित किया करते थे। इस ‘क्रांति’ मासिक के द्वारा बाली जी को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के विचारों का ज्ञान हुआ। भारत के बंटवारे के बाद वे दिल्ली चले आए और फिर वहीं 1947 से 1954 तक रहे।
दिल्ली में रहते हुए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के महान व्यक्तित्व को भलीभांति जानने, उनकी काम करने की विधि को समझने, उनकी विचारधारा से ज्ञानवान होने और उनके आंदोलन में सक्रिय रूप में शामिल होने का आदरणीय बाली जी को भरपूर अवसर मिला। बाली जी कहते है, ‘‘मेरे अन्दर यदि कोई गुण है तो वह बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की शिक्षाओं के कारण हैं। बहुत से शिक्षित व अशिक्षित लोग बाबासाहेब के पास जाया करते थे, जिनमें मैं भी एक था। मेरे सामने, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की कृपालता और उनके संघर्ष के फलस्वरूप अनेक व्यक्ति बड़े अधिकारी बने, वे कोठियों व कारों के मालिक बने और अंत में मौत द्वारा दबोचे गए अथवा मौत आने के इन्तज़ार में दिन काट रहे हैं, उनमें से बहुतों को कृतघ्या कहना भी इस शब्द का अपमान करना है।’’ किन्तु बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर से बाली जी ने जो गुण हासिल किए, उसका उपयोग उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए न करते हुए संपूर्ण भारतीय समाज की भलाई के लिए किया। जैसा की बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर भारतीय समाज का आदर्श समाज में रूपांतरण करना चाहते थे।
अंतिम बार, जब आदरणीय एल.आर. बाली जी 30 सितम्बर, 1956 को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर से मिले तो बाबासाहेब बहुत बीमार थे। उनके निवास स्थान, दिल्ली स्थित अलीपुर रोड के बंगला नंबर 26, पर वे घंटों बैठे रहे। वहां उन्होंने फैसला कर लिया कि बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने जिस मशाल को प्रज्वलित किया है उसे वे उसे अपने जीवन के अंतिम श्वास तक प्रज्वलित रखेगे। अपने दृढ़ संकल्प को पूरा करने के लिए जिस दिन (अर्थात् 6 दिसंबर, 1956 को) बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हुआ, उसी दिन उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। चंूकि वे सरकारी नौकरी में स्थायी थे, इसलिए सेवा-शर्तों के अनुसार नौकरी से मुक्त होने के लिए उन्हें एक माह का वेतन जमा कराना पड़ा। वे 1957 से आंबेडकर मिषन के प्रचार-प्रसार में जुट गये। 5 सितंबर, 1959 को उनके द्वारा संपादित ‘भीम पत्रिका’ का प्रथम अंक प्रकाषित हुआ और 1963 से अन्य साहित्य प्रकाषित करने का काम शुरू किया, जो निरंतर उनके निधन 7 जुलाई, 2023 जारी थे।
पिछले 51 वर्षों में कितने ही साथी आंबेडकरी मिशन में आए, कुछ का देहांत हो गया, कुछ भटक गए, कुछ लालच व स्वार्थवश शत्रु की ‘सेना’ में जा शामिल हुए, फिर भी चाहे गिने-चुने ही लोग क्यों न हो, उन्होंने देश-विदेश में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का ध्वज बुलन्द रखा हुआ है। इनमें आदरणीय एल.आर. बाली जी प्रमुख है। इन 51 वर्षों में आदरणीय बालीजी को जिन मुसिबतों का सामना करना पड़ा यदि उनकी जगह अन्य कोई होता तो कब का इस मार्ग को छोड़ चुका होता। परंतु बालीजी ही ऐसे व्यक्ति है जो अपने देश और समाज की भलाई के लिए मुसिबतों में भी मार्ग ढूंढ ही लेते थे। तभी तो वे मरते दम तक भी समाजोद्धार के मार्ग में फौलादी चट्टान की तरह खड़े थे। ऐसी फौलादी चट्टान को कौन डिगा सकता है।
कुछ दशक पूर्व बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का प्रचार करना तो दूर उनका नाम तक भी जूबान पर लाना प्रतिक्रियावादियों, जातिवादियों, विषमतावादियांे और पूंजीपतियों के पालतू वफादरों द्वारा एक ‘पाप’, एक अपराध माना जाता था और इसलिए आंबेडकर मिशन के लिए काम करना अपनी जान हथेली पर रखने जैसा था। लेकिन अब वह दिन लौट गए। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि अब सभी प्रकार की संगठनाओं के गुटों का काम बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का नाम लिए बगैर नहीं चलता।
आदरणीय एल. आर. बाली जी 68 वर्ष पूर्व बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से अवगत हो गए थे। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के जीवित रहते उनकी जितनी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका था, वे सभी मूल रूप में, आज भी बतौर सौगातमय यादगार उनके घर पर सुरक्षित है। इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार के षिक्षा विभाग द्वारा प्रकाषित बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर राईटिंगस एण्ड स्पीचेज़’ के सभी खंडांे का उन्होंने बड़ी गंभीरता से अध्ययन और चिंतन-मनन करके सामान्य जनों के लिए इसका सार ‘डॉ. आंबेडकर कलम का कमाल’ के रूप में दो खंड़ों में प्रकाषित किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संबंधी सामग्री संपूर्ण भारत के अतिरिक्त इंग्लैंड, अमेरिका, कनाड़ा आदि देषों से भी एकत्रित की। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के साहित्य का उनके पास घर पर इतना भंडार है जो भारतवर्ष में शायद ही किसी के पास होगा।
इन 68 वर्षों में वह कौन सी आफत है जो बाली जी पर नहीं टूटी। उन्होंने भारतीय समाज को विज्ञानवादी और आदर्ष समाज में ढालने के लिए हवालात के दुःख झेले, सरकारी और गैर-सरकारी मुकदमों की परेषानियां सही। कभी अपनों का परायापन, कभी साथियों का विष्वासघात, तो कभी साधनहीनता के थेपेड़े झेले। इन सब के बावजूद उन्होंने आंबेडकरी मिषन का प्रचार-प्रसार का काम बिना रूके और बिना थके जारी रखा। उन्होंने आंबेडकरी विचारों का विषाल साहित्य निर्माण किया। जिसका सक्षिप्त में वर्णन किया जा रहा है।
डॉ. आंबेडकर जीवन और मिशन
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के ‘जीवन और मिशन’ पर इतने बड़े रूप में हिन्दी में लिखी गई यह पहली किताब है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की कोई प्रामाणिक और उपयोगी जीवन-गाथा राष्ट्रभाषा हिन्दी में न होने की बात बालीजी को लगातार खलती रही। इसलिए जब 1964-65 के रिपब्लिकन पार्टी के अखिल भारतीय मोर्चे में उन्हें गिरफ्तार करके जेल में रखा गया, तब उन्हें अपने जीवन के उनके कर्तव्यों में से इस महान और महत्वपूर्ण कर्तव्य अर्थात बाबासाहेब की जीवन-गाथा लिखने का अवसर मिला। जेल से बाहर आने पर जो कुछ उन्होंने लिखा था उसे पंजाबी भाषा में प्रकाषित किया। लेकिन उनका मन संतुष्ट न हो सका। फिर उन्हें विदेष में जाने का अवसर मिला। वे जिस देष में भी गए वहां से बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के सम्बन्ध में उन्हें जो भी जानकारी प्राप्त हुई उसे उन्होंने इकट्टा करना शुरू किया। विषेष तौर उन्हें इंग्लैण्ड से अधिक और प्रामाणिक सामुग्री मिली। इसके अतिरिक्त बाबासाहेब से सम्बन्धित और अधिक सामुग्री प्राप्त करने के उद्देष्य से वे भारत के लगभग सभी प्रांतों में घुमे, अनेक व्यक्तियों से मिले और बहुत-सी लायब्रेरियों में अध्ययन किया। उन्होंने बाबासाहेब द्वारा लिखित तमाम प्रकाषित और अप्रकाषित पुस्तकों को पढ़ा। उनके अनेक जगहों पर दिये भाषणों को एकत्रित करने में जुझते रहे। ‘डॉ. आंबेडकर जीवन और मिशन’ इस किताब का प्रथम संस्करण 1 मई, 1974 को नागपुर से प्रकाषित हुआ था। इस किताब में बालीजी ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के सम्बन्ध में इतनी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी दी है जो अन्यत्र नहीं मिलती। 2006 में प्रकाषित नया संषोधित संस्करण 416 पृष्ठ समेटे हुए है। इस ग्रंथ को बालीजी ने आंबेडकरी आंदोलन के अपने निष्ठावान साथी कर्मवीर अॅड. हरिदास बाबू आवळे को समर्पित किया है। इसके साधारण संस्करण की किंमत 200 रूपये है।
डॉ. आंबेडकर ने क्या किया?
368 पृष्ठों की इस किताब में आदरणीय बाली जी ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा किए गए कार्यों का बारिकी से अध्ययन करके बहुत ही अच्छा विष्लेषण किया है। जो कोई बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के कार्यों की बहुत ही कम समय में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करना चाहता हैं, उसके लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित हो सकती है। इस किताब का प्रथम संस्करण, 1991 में प्रकाषित हुआ था। इस किताब को बालीजी ने अपने बेटों राहुल और आनन्द को इस आषा के साथ समर्पित किया है कि वे बुद्धधम्म के प्रचार-प्रसार के कार्य में सदा निरंतर सक्रय रहेंगे, क्योंकि ऐसा करना मानवता की सेवा करना है। द्वितीय संस्करण की किंमत 120 रूपये है।
डॉ. आंबेडकर और भारतीय संविधान
बाली जी द्वारा इस किताब में संविधान के इतिहास का वर्णन किया गया है। साथ ही यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर किस प्रकार का संविधान बनाना चाहते थे और वे कैसा संविधान बना पाए? इस किताब का प्रथम संस्करण 1980 में प्रकाषित हुआ था। द्वितीय संस्करण में यह किताब 208 पृष्ठ समाए हुए हैं। द्वितीय संस्करण में इसकी किंमत मात्र साठ रूपये थी। बालीजी ने अपनी इस कृती को उन बंगालियों और पंजाबियों को जिन्होंने 1946 में संयुक्त मोर्चा बनाकर महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मंडल के नेतृत्व में संघर्ष करके बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को बंगाल विधान परिषद् से संविधान सभा के चुनाव में सफल बनवाया था उन्हें समर्पित किया है।
डॉ. आंबेडकर कलम का कमाल
महाराष्ट्र सरकार ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की रचनाओं के अभी तक 21 खंड प्रकाषित किए हैं। इसके साथ ‘डॉ. आंबेडकर सोर्स मैटीरियल’ का एक खंड है। इस तरह संपूर्ण साहित्य के कुल 22 खंड है। जिनमें से तीन खंड मराठी भाषा में है। यह खंड हजारों पृष्ठों में समाए हुए है। साधारण पाठकों को इन अंग्रेजी खंडों को समझ पाना इतना सरल नहीं है। इसलिए बालीजी ने उक्त सभी खंडों का सार दो खंडों में ‘डॉ. आंबेडकर कलम का कमाल – सम्पूर्ण वाडमय का सार’ नाम से प्रकाषित किया है। इसका पहला खंड सितम्बर-2007 और दूसरा खंड सितम्बर-2008 में प्रकाषित हुआ है। पहला खंड 303 पृष्ठ समेटे हुए है। इसका मूल्य 150 है। इस खंड को बालीजी ने अपने सहयोगी माननीय कृष्ण कुमार बोधीजी को समर्पित किया है। दूसरा खंडा 456 पृष्ठ समेटे हुए है। इसकी किंमत 250 रूपये है। इस खंड को माननीय जगीरी बैंस जी को समर्पित किया गया है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की सारी रचनाओं को संक्षिप्त में जानने के लिए यह एक अच्छा साहित्य है।
आंबेडकर मिशन क्या है?
आंबेडकर मिशन न तो किसी को दलित रहने देना चाहता है, न शोषित तथा न किसी को विषेषाधिकार देने के पक्ष में है और न किसी के अधिकार छीनने के पक्ष में। यह तो ऐसे समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है जिसमें न वर्ग हो और न वर्ण।
आंबेडकर मिशन में कई लोगों को निजी क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति की किरण दिखाई पड़ती है। अतः वे इसके नाम पर तरह-तरह की बे-बुनियाद बातें फैलाते हैं। कई लोग बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के प्रति श्रद्धा तो शुद्ध मन से रखते हैं, परन्तु कई कारणों से उनके मिषन के प्रति परिपूर्ण रूप से ज्ञानवान् न होने की वजह से कई गलत बातें अनजाने में फैला रहे हैं। इससे समाज शत्रूओं को तो लाभ हो रहा है, परन्तु मेहनतकष दलित व शोषित दिन-ब-दिन पिसे जा रहे हैं।
अतः एक ऐसी पुस्तक की बहुत सख्त जरूरत थी जिसमें आंबेडकरी मिशन की प्रामाणिक रूपरेखा प्रस्तुत की गई हो। आंबेडकरी जगत् के प्रख्यात विद्वान आदरणीय लाहौरी राम बाली, सम्पादक, ‘भीम पत्रिका’ ने, जो कि पिछले 68 वर्षों से आंबेडकर मिषन के प्रचार-प्रसार में जूटे थे, ‘आंबेडकर मिशन क्या है?’ इस किताब के माध्यम से इस कमी को काफी हद तक पूरा कर दिया है। उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के साहित्य, भाषणों और उनके मूल व उनकी कार्यप्रणाली से जीवन में जो कुछ आंबेडकर मिशन को ईमानदारी से समझा है, उसे बिना किसी भय या लालच के इस पुस्तिका में प्रस्तुत कर दिया है।
इस पुस्तिका को बाली जी ने अंग्रेजी में लिखा था। परन्तु बहुसंख्यक लोगों की आवष्यकता को ध्यान में रखते हुए इसे आयुष्मति सोमा सबलोक ने हिन्दी में अनुवादित कर दिया है। इस किताब की भूमिका लिखने वाले आदरणीय प्रो. डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात ने भूमिका में लिखा है कि, ‘‘यह पुस्तिका हर प्रांतीय भाषा में अनुवादित होनी चाहिए ताकि आंबेडकर मिशन के नाम पर जाने-अनजाने फैलाए जा रहे धुंधलके को दूर किया जा सके।’’ इस किताब की किंमत केवल तीन रूपये रखी गई थी।
गुजरात आंदोलन के परिणाम
गुजरात में आरक्षण के विरोध में दलितों पर अन्याय-अत्याचार ढाए गए। गुजरात आंदोलन उस समय ज्वालामुखी की तरह से था जो बाहर से शांत प्रतीत होता था किन्तु इसकी गहराई में अग्नि के भंडार छूपे हुए थे। साम्प्रदायिक हिन्दुओं ने देष में कई स्थानें पर उपद्रव करके आरक्षण की तय शुदा पद्धति पर प्रष्न-चिन्ह लगा दिया था। कई तरह के संदेह पैदा हो गए थे और घृणा की एक देषव्यापी लहर दौड़ा दी गई थी।
गुजरात के आरक्षण विरोधी तत्व देश-भर में विष फैलाते फिर रहे थे। वे पूरे देष में एक बड़े आंदोलन की तैयारी में थे। कम्युनिस्टों और कुछ अन्य प्रगतिषील लोगों को छोड़कर शेष, सभी हिन्दू आरक्षण विरोधियों की पीठ थपथपा रहे थे, उनको भारी रकमें देते थे और नाना प्रकार के षडयंत्र रचने के लिए घातक शास्त्रों के रूप में साधन जुटाते थे।
आरक्षण विरोधी अभियान प्रतिक्रियावादी बल्कि मनुवाद को बहाल करने का एक यत्न मात्र था। इस दौर में बालीजी ने गुजरात आंदोलन के परिणाम की जानकारी जनता के सामने रखने के लिए जुलाई, 1981 में यह किताब प्रकाषित की थी। इस किताब की किंमत मात्र 2 रूपये रखी गई थी। इस किताब को बालीजी ने उन सूरवीरों को समर्पित किया जिन्होंने गुजरात में साम्प्रदायिक और गुन्डों के हमलों और नरसंहार का मुकाबला किया।
बुद्ध धम्म सार और विकास
इस किताब में बाली जी ने बुद्ध धम्म के सार और उसके विकास का दर्षन कराया है। बुद्धधम्म को समझने के लिए कोई भी व्यक्ति कम से कम समय में धम्म की अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकता है। इस किताब की किंमत मात्र 3 रूपये रखी गई थी।
सरकारी सेवाओं में आरक्षण क्यों?
भारतीय समाज, विषेषत: इस के हिन्दू भाग की, कुछ ऐसी अमानवीय विषेषताएं है जो संसार के किसी अन्य समाज में व्यापक नहीं हैं। उन विषेषताओं में है:
(1) जन्म पर आधारित क्रमवार सामाजिक असमानता
(2) जातिगत-भेदभाव
(3) अछूतपण
(4) धर्म-मूलक आर्थिक शोषण और
(5) पक्षपात पर आधारित अन्याय व दमन।
देश के सामाजिक ढांचे को ध्यान में रखते हुए ही भारत के संविधान की प्रस्तावना में कहा गया : ‘‘भारत एक समाजवादी धर्म निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य है जो समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय देने का दृढ संकल्प करता है, और इस उद्देष्य की पूर्ति के लिए संविधान में विविध उपबंध किए गए। सरकारी सेवाएं जहां आजीविका का एक साधन है, वहां यह प्रषासन में भागीदार होने का भी स्रोत है। इस के अतिरिक्त दो और बड़े कारण हैं जो आरक्षण को उचित ठहराते हैं।
(1) समान अवसरों का उपलब्ध न होना और
(2) साम्प्रदायिक होना।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया? इस ग्रंथ में लिखा है, ‘‘आरक्षण की मांग शासक-वर्ग के आक्रमणकारी साम्प्रदायिकता के बचाव के लिए की जाती है, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में गुलाम-श्रेणियों पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं।’’
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोग सरकारी सेवाओं में आरक्षण होने के कारण प्रषासन में भागीदार बने जिस के फलस्वरूप प्रषासन का साम्प्रदायिकता विष कम हुआ और वह किसी सीमा तक न्यायी भी बनी। चूंकि दलितों के पास न जमीन है, न व्यापार, न उद्योग है और न ही ऐसे अन्य आजीविका साधन है इसलिए उन्हें सरकारी-सेवाओं में, चाहे कुछ ही मात्रा में सही रोजगार के अवसर प्राप्त हुए। इस किताब के माध्यम से आदरणीय बालीजी ने सरकारी सेवाओं में आरक्षण की आवष्यकता क्यों है यह बताया है। 48 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र 3 रूपये रखी गई थी।
जात युद्ध से कैसे निपटें?
आदरणीय बालीजी ने विभिन्न विषयों पर आंबेडकरी-दृष्टिकोण की व्याख्या करने के लिए पुस्तकमाला का प्रकाषन आरम्भ किया था। उसी पुस्तकमाला की यह एक कड़ी थी ‘जात युद्ध से कैसे निपटें?’ यह किताब जात युद्ध के सम्बन्ध में है जो दलितों के विरूद्ध देष भर में छिड़ चुका था। इस किताब का प्रकाषन 15 अगस्त, 1980 को किया गया था। इसकी भूमिका ऑल इंडिया समता सैनिक दल के अध्यक्षीय मंडल के सदस्य डॉ. के. एम. कांबले ने लिखी थी। 32 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र दो रूपये रखी गई थी।
बौद्ध हिन्दू नहीं
इस किताब में यह सिद्ध किया गया है कि, बुद्धधम्म हिन्दूइज्म से मौलिक तौर पर सर्वथा भिन्न है। हिन्दू नेताओं का बारमबार यह कहना कि बुद्धधम्म हिन्दूइज्म ही का एक अंग है न कवेल कोरा झूठ और शरारत है बल्कि ऐसा प्रचार एक योजनाबद्ध ढंग से इसलिए किया जा रहा है ताकि अछुत हिन्दूइज्म की गुलामी से मुक्त न हों और हिन्दू उनकी संख्या को अपने साथ दिखा कर हिन्दू-राज के मनसूबे बनाते रहें। 40 पृष्ठों की इस किताब को 10 मार्च, 1982 को प्रकाषित किया गया। बालीजी ने यह किताब आदर्ष बौद्ध महिला बहन गुरूड़ बाई को समर्पित किया है। इस किताब की किंमत मात्र 2 रूपये रखी गई थी।
मंडल आयोग रिपोर्ट और प्रतिक्रिया
पिछड़ा वर्ग कमिषन जो उसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल के नाम पर मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध हुआ है, की रिपोर्ट में की कई सरकारी सेवाओं में आरक्षण सम्बन्धी एक सिफारिष के विरोध में देषभर में हलचल बल्कि अराजकता मची हुई थी। मंडल आयोग के विरूद्ध चलाए गए आन्दोलनों और गुंडागर्दी ने यह सिद्ध कर दिया था कि हिन्दू समाज अभी भी बीमार है और उस के मन में दलितों व पिछड़े वर्गों के विरूद्ध जो घृणा है वह तनिक भी कम नहीं हुई है।
पिछड़े वर्गों को यह भलिभांति मालूम हो जाना चाहिए कि उनकी सामाजिक तुच्छता व बहुपक्षीय पिछड़ेपन का कारण हिन्दूवाद, यानी ब्राह्मणवाद है। सच कहा जाए तो ब्राह्मणवाद टिका हुआ ही पिछड़े वर्गों की उस आस्था व श्रद्धा पर है। 64 पृष्ठों की इस किताब को बालीजी ने पंजाब के प्रमुख बुद्धिवादी माननीय राम सरन दास बंगा को समर्पित की है। मार्च, 1991 को प्रकाषित इस किताब की किंमत मात्र 6 रूपये रखी गई थी।
गांधी, गीता और आंबेडकर
लेखक लिखते है कि, ‘‘महाराष्ट्र स्थित विनोभा भावे के पवनार ‘परमधाम’ की यात्रा ने उन्हें यह किताब लिखने के लिए उकसाया।’’ बालीजी ने 2 फरवरी, 2004 को विनोबा जी के ‘परमधाम’ को देखा। वहां पर उन्होंने जो दृष्य देखा उस दृष्य को देखकर उन्होंने इस किताब को लिखा। देषवासीयों को गीता की वास्तविकता से अवगत कराने के लिए इस किताब का प्रथम संस्करण अप्रैल, 2004 में प्रकाषित किया गया। यह किताब कुल 48 पृष्ठ समेटे हुए है। इसकी किंमत 20 रूपये हैं। इस किताब को बालीजी ने इंग्लैंड के भिक्षु चन्द्रबोधी जी को समर्पित किया है।
आंबेडकर मिषन अर्थात आंबेडकरइज़्म
आंबेडकर मिषन के कई प्रकार के शत्रु पैदा हो चुके हैं क्यांेकि वह धर्म, समाज और राजनीति में मौलिक परिवर्तन लाना चाहते थे। उनकी सारी विचारधारा ही ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद की समाप्ति का कार्यक्रम पेष करती है।
आंबेडकर मिशन के सबसे बड़े व खतरनाक शत्रु वे लोग हैं जो ‘आंबेडकरी होने का दावा करते हैं किन्तु डॉ. आंबेडकर के किसी भी सिद्धांत, आदेष व निर्देष पर आचरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। खुद तो अज्ञान रूपी अंधे हैं किन्तु वे दूसरों को मषाल दिखा कर मार्ग सुझाने का कपट कर रहे हैं यानी अंधा दिखाए रोषनी।
आंबेडकर मिशन अर्थात आंबेडकरइज्म की सही व साफ जानकारी उपलब्ध कराना ही इस पुस्तक का मकसद है। 160 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य 75 रूपये है। इस किताब का प्रथम संस्करण जून, 2002 में प्रकाषित हुआ था। बालीजी ने इस किताब को उनके शुरू से सहयोगी रहे सच्चे आंबेडकरी माननीय अमन चैन को समर्पित किया है।
डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में धर्म
बालीजी द्वारा 27 मार्च, 1990 को डॉ. बाबा साहब आंबेडकर समाज विज्ञान संस्थान महू, इंदौर में पढ़ा गया निबंध ‘डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में धर्म’ पुस्तक रूप में प्रकाषित किया गया। इस किताब में डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में धर्म का क्या स्थान था? यह बताया गया है।
डॉ. आंबेडकर और हिन्दू कोड बिल
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने कानून द्वारा भारत में जैसी सांस्कृतिक क्रान्ति की नींव रखी, उसका मूल्यांकन अभी तक किसी ने भी गहराई और उदारतामयी ढंग से नहीं किया। लेखक द्वारा यह किताब उसी उद्देष्य की पूर्ति का एक प्रयत्न है।
इस किताब में (1) हिन्दू कोड़ बिल का इतिहास (2) इसका उद्देष्य (3) इस के समर्थकों व आलोचकों का ब्यौरा (4) पण्डित नेहरू का हिन्दू कोड बिल सम्बन्धी रोल और (5) आंबेडकर द्वारा पारिपादित सांस्कृतिक क्रान्ति की उपलब्धियों व सफलताओं आदि का वर्णन किया गया है। सितम्बर, 1983 में प्रकाषित इस किताब में कुल 28 पृष्ठ है। इसकी किंमत मात्र 2 रूपये रखी गई थी।
अछूत हिन्दू क्यों बने रहें?
एक अछूत जब बुद्ध धम्म को अपनाता था तो उसको आरक्षण के तहत मिलनेवाली सारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता था। क्योंकि इस देष में संवैधानिक तौर पर दलित जब तक हिन्दू धर्मी बना रहता था तभी तक वह आरक्षण का पात्र हो सकता था। हिन्दूइज्म को बचाने की सत्ताधारी टोले की इस गहरी चाल का पर्दाफाष करने के लिए इस किताब को लिखा गया था। यह किताब 14 अगस्त, 1981 को प्रकाषित की गई थी। 20 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र पांच रूपये रखी गई थी।
भारत के असली शासक कौन?
सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, उस पर कहने की तो एक राजनीतिक दल अथवा कुछ विभिन्न राजनीतिक दलों का अधिकार है किन्तु हकीकत में हुकूमत दलालों, चोर बाज़ारी करने वालो, जखीरेबाजों, मुनाफाखोरों, तस्करों और सफेदवस्त्रधारी अपराधियों की तिकोन नाचा करती है। वे सब एकजुट होकर न्याय-प्रणाली को भी अपने पावों तलें रौंद डालते हैं।
इन ‘असली शासकों’ की चक्की में पीसे जाते हैं वे करोड़ों गरीब मजदूर व गरीब साधारण किसान जिनकी कहीं कोई पहुंच नहीं, कहीं कोई सुनवाई नहीं। दुराचक्र व दुष्ट व्यवस्था चलाते जा रहे हैं, गरीब पिसते जाते है और बदकिस्मती के विष्वासों के सहारे बेबसी व्यापक होती जाती है। इस प्रकार बालीजी ने इस किताब में भारत के असली शासक कौन है? इसका खुलासा किया है। 60 पृष्ठों कि यह किताब 30 अगस्त, 1988 को प्रकाषित हुई थी। इसकी किंमत मात्र 5
रूपये थी।
भारत में सांविधानिक और मानवीय अधिकारों का हनन
यह किताब सांविधानिक व मानवीय अधिकारों, उनके हनन और हत्याओं के तौर तरीकों पर रौषनी डालती है। इस किताब को पढ़ने से सांविधानिक और मानवीय अधिकारों के हनन के साथ ही देष के कमजोर वर्गों की सही हालत का ज्ञान होता है। 50 पृष्ठों की इस किताब को 28 सितम्बर, 1988 को प्रकाषित किया गया था। इसकी किंमत मात्र 5 रूपये रखी गई थी। लेखक ने इस किताब को मराठी भाषा की क्रान्तिकारी कवियित्री आयुष्मती हिराताई बनसोडे (दादर, मुम्बई) को समर्पित किया है।
शोरी का शोर
हिन्दुवाद के ठेकेदार अरूण शौरी द्वारा किताब लिखकर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर पर उछाले गए किचड़ का लेखक एल. आर. बालीजी ने ‘षोरी का शोर’ नामक किताब से उत्तर दिया है। साथ ही उन्होंने इस किताब के माध्यम से अरूण शौरी को खुली चुनौती देते हुए लिखा था, ‘‘हम आप से खुली बहस करना चाहते हैं। स्थान, तिथि व समय आप तय करें। मंच का प्रबन्ध हम करेंगे, आपको आने-जाने का (दिल्ली से बाहर) का दूसरे दर्जे का रेल-किराया भी हम ही देंगे। आप हमारी चुनौती को कबूल करें, हमें आषा है कि जिस साहसपूर्ण योग्यता के
साथ आप भारतरत्न डॉ. आंबेडकर पर कीचड़ उछालते है, उसी प्रकार दिलेरी का सबूत देते हुए आप हमारी चुनौती स्वीकार करेंगे।’’ यह किताब सम्यक प्रकाषन, दिल्ली से 14 अक्टूबर, 1998 को प्रकाषित हुई थी। 34 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र 10 रूपये थी।
रंगीला गांधी
इस किताब में बालीजी ने गांधी को बहुत बड़ा पाखण्डी, ढोंगी, पूंजीपतियों व विषेष अधिकारियों का रक्षक, मजदूरों व दलितों का दुष्मन, क्रांतिकारी देष-भक्तों का शत्रु और समाजवाद का कट्टर विरोधी बताते हुए गांधी की पोल खोली है। यह किताब हिन्दी, मराठी और पंजाबी भाषा मंे प्रकाषित हो चुकी है। 16 पृष्ठों की यह किताब बुद्ध विहार ट्रस्ट के संस्थापक माननीय रतन लाल सांपला की प्रेरणा व सहायता से प्रकाषित की गई है। इस किताब की किंमत मात्र 6 रूपये है।
डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में लोकतंत्र
आदरणीय बालीजी ने डॉ. आंबेडकर की मानवतावादी दृष्टिकोण से लोकतंत्र की व्याख्या की है। और लोकतंत्र की विफलता के लिए जिम्मेदार तत्वों पर भी प्रकाष डाला है। 32 पृष्ठों की इस किताब का प्रथम प्रकाषन फरवरी, 2002 में हुआ था और इसकी किंमत 10 रूपये थी।
संविधान पर डाका
इस किताब में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि संविधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों से दलितों को किस प्रकार से वंचित रखने का प्रयास किया गया है। इस किताब में विषेषकर गरीबी, नारी-दमन, बाल-षोषण, दलित-दासता का उल्लेख किया गया है। 80 पृष्ठों की इस किताब का प्रथम संस्करण मार्च, 2001 में प्रकाषित हुआ था। इसकी किंमत मात्र 20 रूपये थी। बालीजी ने यह किताब अपने आंदोलनकारी साथी माननीय गुरनाम चाहल को समर्पित की है।
गाय और गुलामी
मांस खाना या न खाना, किस पक्षी व पषु का खाना या न खाना, हर किसी की पसंद और नापसंद पर निर्भर होना चाहिए न कि किसी धार्मिक-आदेष अथवा कानून के प्रतिबंध पर। किन्तु हमारे देष, भारत में खाने-पीने, पहनने यहां तक कि चलने-फिरने, खुषी-गम, आपसी रिष्तों और संबंधों सभी पर मज़हब का हुक्म चलता है। बालीजी ने इस किताब में गाय और गुलामी सम्बन्धी अपना तर्कपूर्ण दृष्टिीकोण रखा है। 32 पृष्ठों की यह किताब 24 सितम्बर, 2003 को प्रकाषित की गई थी। इसकी किंमत 10 रूपये थी।
महात्मा रावण
इस किताब में बालीजी ने हिन्दुओं के प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण के खलनायक रावण के व्यक्तित्व की विद्वत्ता को सामने लाया है। 48 पृष्ठों की इस किताब का द्वितीय संस्करण अप्रैल, 1997 में प्रकाषित हुआ था। इस किताब की किंमत 10 रूपये थी। इस किताब को बालीजी ने यूरोप भर में आंबेडकरी मिषन के प्रचार और प्रसार में निष्ठा से कार्यरत माननीय चानन चाहल को समर्पित की है।
धर्म परिवर्तन जरूरत और महत्त्व
14 अक्टूबर, 1956 को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने महाराष्ट्र के नागपुर में भारत में सबसे वयोवृद्ध बौद्ध भिक्खू आदरणीय चन्द्रमणी जी से बुद्ध धम्म की दीक्षा ग्रहण की। स्वयं बौद्ध बनते ही उन्होंने अपने लाखों अनुयाईयों को स्वयं बुद्ध धम्म की दीक्षा दी। हिन्दूइज्म को त्यागते समय बाबासाहेब ने कहा था, ‘‘मैं नरक से छूटा …. मेरा पुनर्जन्म हो रहा है।’ यह शब्द क्यों कहे गए? क्या वाकई हिन्दूवाद ‘नरक’ समान है, पीड़ादायक शोषक व अत्याचारी है। एक तो इस पुस्तक में संक्षेप में इसकी व्याख्या की गई है। दूसरा पुस्तक में यह बताया गया है कि ‘धर्म परिवर्तन क्यों जरूरी है और तीसरे, यह कि धर्म परिवर्तन का क्या महत्व है। इस किताब का प्रथम संस्करण अक्टूबर, 1999 में प्रकाषित हुआ था। 48 पृष्ठों की इस किताब की किंमत 10 रूपये थी। बालीजी ने इस किताब को इंजीनियर मलकियत हीर (कैनडा) द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से प्रकाषित किया था।
डॉ. आंबेडकर का हिन्दूकरण
हिन्दू राष्ट्रवादियों, जिन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विष्व हिन्दू परिषद्, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, षिव सेना और उन सभी का राजनीतिक मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी, डॉ. भीमराव आंबेडकर के हिन्दूकरण के अभियान में जुटे हुए है। महाराष्ट्र में तो विषेषकर, चूंकि उनका यह अभियान षिखर पर है, इसलिए आम लोगों बल्कि कुछ प्रमुख ‘अम्बेडकरियों’ को भटकाने में हिन्दू राष्ट्रवादी सफल हुए दिखाई देते हैं।
डॉ. आंबेडकर का महान व्यक्तित्व चूंकि अब जगह-जगह चर्चा का विषय बना है, दलित वर्गों में उनका गुणगान किए बगैर कोई अपनी बात कह ही नहीं सकता और उनका मिषन यानी संदेष करोड़ों भारतियों में चेतना, जागरित और विद्रोह-स्रोत बन रहा है, इसलिए हिन्दू राष्ट्रवादियों को ‘अन्धे को अन्धेरे में बहुत ही सूझी’ के अनुसार बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का ख्याल आया है। बाबासाहेब की विचारधारा जो एकदम स्पष्ट है, उसे गंधलाने की कुचेष्टा करने लगे हैं ताकि दलित वर्गों से उनका मसीहा ही छीन लें और उनको पथविहीन जंगल में भटकने के लिए छोड दें।
बाली जी ने इस किताब के माध्यम से आंबेडकरीयों को चेताया है कि किस प्रकार से दुष्मन डॉ. आंबेडकर का हिन्दूकरण करके आंबेडकरीयों की आंखों में धूल झोक रहे हैं। 32 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र 4 रूपये रखी गई थी। डॉ. आंबेडकर मौलिक समाज सुधारक बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर एक अद्वितीय बुद्विजीवी थे, वे बेमिसाल बुद्धिवादी थे और न्याय प्रेमी थे। इसलिए न्याय की हिमाकत करते समय उन्होंने किसी वर्ग विषेष को ध्यान में नहीं रखा बल्कि उन्होंने अन्याय के षिकार सभी स्त्री-पुरूषों को न्याय दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष किया। संघर्ष भी ऐसा जो क्या समाज और क्या मजहब सभी के ठेकेदारों को ललकारता चला गया।
न्याय की हिमाकत करते समय डॉ. आंबेडकर के अपने ही मौलिक सिद्धांत थे, अपनी ही नई सोच थी। उनके साधन भी अपने ही थे। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर सदा न्याय के हिमायती बने रहे। प्रषंसा हुई कि निन्दा, वे अपने काम में जुटे रहे – न रूके, न कपट के आगे झुके। यह उनके व्यक्तित्व की महानता है। बालीजी ने इस किताब में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर कैसे मौलिक समाज सुधारक थे इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी है। 64 पृष्ठों की यह किताब प्रथम संस्करण के रूप में 14 अप्रैल, 1998 को प्रकाषित की गई थी। इस किताब की किंमत मात्र 20 रूपये थी। हिन्दुत्व समस्याओं की समस्या हिन्दुत्व क्या है? उसके द्वारा उत्पादित समस्याएं क्या है और वह भारतीय समाज बल्कि पूरी मानवता को कैसे पतन की गहरी खाई में धकेल सकता है, इन विषयों पर इस पुस्तिका में प्रकाष डाला गया है। 16 पृष्ठों की यह किताब सितम्बर, 2003 में प्रकाषित की गई थी। इस किताब की किंमत 5 रूपये है।
आंबेडकर बनाम गांधी
इस किताब में बालीजी ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व और कार्य से मोहनदास करमचंद गांधी के व्यक्तित्व और कार्य की तुलना की है। इस किताब के द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है कि गांधी युग ने किस प्रकार भारत का विनाष कर डाला। साथ ही इस किताब की भूमिका में लेखन ने गांधीवादियों को ‘आंबेडकरवाद बनाम गांधीवाद’ पर बहस करने की खुली चुनौती भी दी थी। 190 पृष्ठों की इस किताब का प्रकाषन 10 फरवरी, 1986 को किया गया था। और इसकी किंमत मात्र 20 रूपये थी।
क्या गांधी महात्मा थे?
मोहनदास करमचंद गांधी पर, जिनको महात्मा गांधी के नाम से मषहूर कर दिया गया हैं, इतना कुछ लिखा गया है कि उस साहित्य में दर्ज झूठों और प्रतिकूलताओं को पढ़ते हुए इन्सान का मस्तिष्क चकरा जाता है। इस किताब में लेखक ने सिद्ध किया है कि, गांधीजी का जीवन ऐसा नहीं है जो किसी को प्रेरणा दे सके। 112 पृष्ठों की इस किताब को बालीजी ने अपने आंदोलनकारी साथी गुरनाम चाहल को सादर समर्पित किया है। जनवरी, 2000 में प्रकाषित इस किताब की किंमत मात्र 30 रूपये थी।
विद्रोह के चिन्ह बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर
नागपुर विष्वविद्यालय ने 92वीं आंबेडकर जयन्ती के अवसर पर बालीजी को भाषणमाला के लिए निमंत्रित किया था। वहां उनके तीन भाषण 18, 19 और 20 अप्रैल, 1983 को हुए थे। इन भाषणों को ‘विद्रोह के चिन्ह – बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर’ इस षिर्षक से पुस्तक रूप में 23 मार्च, 1985 को प्रकाषित किया गया था। इस किताब में बाबासाहेब के जीवन-काल को तीन भागों में बाटा गया है : (1) 1891 से 1937 तक, 46 वर्ष (2) 1937 से 1952 तक, 15 वर्ष और (3) 1952 से 1956 तक, 4 वर्ष। 48 पृष्ठों की इस किताब की किंमत 3 रूपये थी।
डॉ. आंबेडकर कानून द्वारा क्रांति
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने दलित वर्गों यानी अछूतों, श्रमजीवियों और महिलाओं के कल्याण और बेहतरी के लिए कानून का कैसे इस्तेमाल किया और कानून द्वारा कैसे-कैसे परिवर्तन हुए। कैसी क्रांति आई। इन तथ्यों को उजागर किया है। इस किताब को इतने सरल रूप से लिखा गया है कि इसमें दर्ज बातें जन-साधारण को समझ में आसानी से आ जाती है। 64 पृष्ठों की इस किताब का प्रकाषन अगस्त, 2000 में किया गया था। इसकी किंमत 15 रूपये थी। बालीजी ने इस किताब को इंजीनियर मलकियत हीर को समर्पित किया है।
पुरोहित को पटा
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने Anti-Priest Craft Association (पुरोहित-विरोधी कला मंडल) का संविधान लिखा था। इस संविधान को पढ़कर आदरणीय बालीजी को ‘पुरोहित को पटा’ यह किताब लिखने की प्रेरणा मिली। यह किताब हिंदू पुरोहित से संबंधित है। 32 पृष्ठों की इस किताब की किंमत मात्र 10 रूपये हैं। इस किताब को आयुष्मान धर्मदास चंदनखेडे के जन्मदाता मातापिता कालकथित जयवंताबाई बळीराम चंदनखेडे को समर्पित किया है।
आंबेडकर अपनाओं देष बचाओ
यह किताब में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के कुछ सिद्धांतों और कार्यक्रमों की व्याख्या की गई है। इन सिद्धांतों और कार्यक्रमों को अपनाकर कार्य शुरू कर दिया जाए तो देष में सामाजिक अलगाव दूर हो सकता है और गतिहीनता भी समाप्त हो सकती है। 40 पृष्ठों की इस किताब का प्रकाषन सितम्बर, 1983 को हुआ था। इस किताब की किंमत मात्र 2 रूपये थी।
शहीदे आज़म भगत सिंह के असली वारिस कौन?
इस पुस्तक द्वारा भगत सिंह के परिवार की पृष्ठभूमि, उनके व्यक्तित्व, उनके विचारों और उन द्वारा अपनी शहादत के उद्देष्यों की व्याख्या करने का यत्न किया गया है। कई महत्वपूर्ण बातें जैसे ‘अछूतोद्धार’ पर भगत सिंह के विचारों को अनेक बार जनता से छुपाया जाता है, उन्हें ठीक ढंग से दर्ज किया गया है। 48 पृष्ठों की इस किताब का प्रथम संस्करण 10 मार्च, 2007 को प्रकाषित हुआ है। बालीजी ने इस किताब को अबादपुरा, जालंधर (पंजाब) आंबेडकरी मिषन में कार्यरत माननीय बारू राम जस्सल को समर्पित किया है। इस किताब की किंमत मात्र 15 रूपये है।
हिन्दुइज्म धर्म या कलंक?
इस किताब को लिखने का एक इतिहास है। बात 1969 की है। जम्मू व कष्मीर प्रांत के प्रसिद्ध नगर जम्मू में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की 78वीं जयन्ती पर आयोजित एक सार्वजनिक सभा में बालीजी को आमंत्रित किया गया था। कृष्ण नगर में हुई भारी सभा में डॉ. बाबासाहेब के हिन्दुइज्म विषयक विचारों की चर्चा करते हुए बालीजी ने उन्हीं के 1944 के एक व्याख्यान के हवाले से अपने भाषण में यह कहा, “Vedas contained nothing but tomfoolery” अर्थात् – वेदों में मूर्खता के सिवा और कुछ है ही नहीं)।
उपरेक्त शब्द बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के थे उन पर किसी को मुकदमा चलाने का साहस नहीं हुआ। परन्तु वहीं वाक्य दुहराने पर जम्मू व कष्मीर सरकार ने रजवाड़ाषाही के समय के एक काले कानून-जम्मू व कष्मीर सुरक्षा नियम जिसे अभी तक अंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सका था, क्योंकि जम्मू व काष्मीर प्रांत भारत का एक ‘अटूट-अंग’ होने के बावजूद अपना अलग विधान कायम रखें हुए था, के तहत उन पर मुकदमा चालू कर दिया गया। धारा लगाई गई ‘नियम 28’ जिसके अधीन सात वर्ष तक के दण्ड की सजा दी जा सकती है। उन्हें गिरफतार किया गया। 25 हजार रूपये देकर उनकी जमानत ली गई। उन पर दोष यह लगाया गया कि उन्होंने हिन्दुओं की धार्मिक-भावनाओं को ठेस पहुंचाई है और हिन्दू धर्म का अपमान किया है। पूरे अढ़ाई वर्ष मुकदमा चला। जालंधर से (जहां बालीजी रहते है), जम्मू पहुंचने के लिए दस घंटे लगते हैं। इस तरह काफी धन व्यय होने के अतिरिक्त बीस घण्टों का समय केवल एक बार जाने-आने में लग जाता। उन्होंने मुकदमे को एक जहमत (कष्ट) न समझ कर रहमत (कृपालुता) समझ लिया। एक तो मुकदमे में अपनी सफाई पेष करने के लिए और दूसरे हिंदुइज्म सम्बन्धी अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए उन्होंने हिन्दुओं के तथाकथित धर्म-ग्रंन्थों का अध्ययन शुरू कर दिया।
जम्मू में बालीजी के साथियों में बाबू अॅडवोकेट मिलखी राम और अमर नाथ सेक्रेटरी के नाम उल्लेखनीय है। इनकी दौड़-धूप के कारण उनके विरूद्ध मुकदमें में तमाम सरकारी गवाह भयभीत हो गए और चूंकि वे गवाही देने से कतराने और झिझकने लगे थे, इसलिए सरकार को विवष होकर मुकदमा वापस लेना पड़ा। बालीजी का उस समय हिन्दुइज्म पर पुस्तक लिखने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन वे ज्यों-ज्यों अध्ययन करते गए, त्यों-त्यों उनका निष्चय बदलता गया, उन्होंने सोचा जिस जानकारी को उन्होंने इतने परिश्रम से प्राप्त किया है उससे औरों को क्यों वंचित रखे। इस तरह यह पुस्तक अस्तित्व में आई।
बाली जी ने इस पुस्तक के उद्देष्य बताते हुए लिखा है, ‘‘यह पुस्तक लिखने के अनेक उद्देष्य है: पहला उद्देष्य तो यह बताना है कि हिन्दुइज्म जिस का सही नाम ब्राह्मणवाद है और जिसे गलती से धर्म का नाम दिया जाता है, धर्म न होकर नियमों, उपनियमों, प्रतिबंधों, रूढ़ियों, अनैतिक प्रथाओं, घृणा व भेदभाव पूर्ण आदेषों और अमानवीय रीतियों का समूह है। अतः इस का सर्वनाष अनिवार्य है। दूसरा उद्देष्य, यह बताना कि जिन देवियों को हिन्दुओं के सामने महात्मा अवतार पूजनीय व हिन्दू नायक कह कर पेष किया जाता है उनके व्यक्तित्व और चरित्र कैसे थे? तीसरा उद्देष्य है, भारतीयों को यह बताना कि ब्राह्मणवाद भारत की सबसे बड़ी समस्या है। जब तक इसको नहीं सुलझाया जाता देष में न शांति स्थापित हो सकती है और न देष उन्नति ही कर सकता है। पुस्तक का चौथा उद्देष्य, बौद्धों द्वारा संचालित क्रांति और उसके विरोध में उठी प्रतिक्रांति की व्याख्या करना है।’’ इस किताब में 266 पृष्ठ है। सुगत प्रकाषन, नागपुर द्वारा 6 दिसम्बर, 1988 को प्रकाषित इस किताब की किंमत 66 रूपये थी। बालीजी ने इस किताब को माननीय एल. षिवलिंगईया जी को समर्पित किया है।
आदरणीय एल.आर. बाली जी आंबेडकरी समाज में एक उच्चकोटी के विद्वान है इसमें को संदेह नहीं है, न ही इस बात को कोई नकार सकता है। परंतु उन्होंने जिस आंबेडकरी साहित्य का निर्माण किया वह अपनी विद्वत्ता बताने के लिए नहीं किया। आंबेडकरी समाज में ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो बड़े-बड़े साहित्य लिखते है परंतु ऐसे साहित्य साधारण, गरीब आंबेडकरीयों की पहुंच से बाहर होते है। ये साधारण और गरीब आंबेडकरी ही सच्चे आंबेडकरी बनकर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के काल से आंबेडकरी आंदोलन के वाहक है। इन्हीं की बदौलत आंबेडकरी आंदोलन टिका हुआ है। बालीजी ने ऐसे साधारण और गरीब तबके को ध्यान में रखकर साहित्य निर्माण किया है। इनके द्वारा प्रकाषित साहित्य की किंमत अत्यल्प है और साधारण और गरीब आदमी की पहूंच में है।
यह सब बालीजी इसलिए कर पाए है क्योंकि उनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं था। उनका एक ही प्रमुख उद्देष्य था, आंबेडकरी आंदोलन को गतिमान करने के लिए बाबासाहेब द्वारा जलाई गई ज्योती में मरते दम तेल डालते रहना ताकि आंबेडकरी आंदोलन की ज्योती अखंड जलती रहे।
ऐसे महान आंबेडकरी बुद्धिजीवी को उनके जन्मदिवस पर विनम्र अभिवादन!