भयमुक्त और स्वाभिमानी राजनीति के लिए
ओबीसी+दलित+मुसलमान के सामने तमिलनाडू पैटर्न
#समाज वीकली
ओबीसीनामा-43. भाग-6. लेखकः प्रोफे. श्रावण देवरे
ओबीसी और मराठों के बीच संघर्ष में ओबीसी ने कभी भी हिंसक या असंवैधानिक काम नहीं किया। उन्होंने जरांगे फैक्टर की हिंसक गतिविधियों का जवाब लोकतांत्रिक तरीके से सभा- सम्मेलन करके ही दिया है। और अब विधानसभा चुनाव में उन्होंने सर्वोच्च लोकतांत्रिक रास्ता अपनाते हुए अर्थात वोटिंग के जरिए करारा जवाब दिया है। ओबीसी के एकमुश्त वोटिंग का परिणाम आज हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है, इस विधानसभा चुनाव में पहली बार मराठा विधायकों की संख्या घटी और ओबीसी विधायकों की संख्या बढ़ी है।
प्रत्येक विधानसभा में 150 से अधिक मराठा विधायक होते थे। किन्तु, 2024 की विधान सभा में कुल 130 मराठा विधायक चुने गए हैं और उनमें से 19 विधायक कुनबी हैं,। विदर्भ और कोकण विभाग के कुणबी लोग गलती से भी खुदको मराठा नही कहते है। लेकीन आरक्षण पाने के लिए कुछ मराठा नेता कुणबी जाती को मराठा बनने की जबरदस्ती करते है। विधानसभा में ओबीसी विधायकों की संख्या कभी भी 25 से अधिक नहीं हुई, लेकिन इस विधानसभा में ओबीसी विधायकों की संख्या 60 से ऊपर हो गयी है. अगर इसमें 19 कुनबी विधायकों को भी शामिल कर लिया जाए तो ओबीसी विधायकों की संख्या 79 से ज्यादा हो जाएगी और मराठा विधायकों की संख्या 111 है।
कल संपन्न हुए मंत्रीमंडल के शपथविधी से पता चलता है की ओबीसी मंत्रीयों की संख्या काफी बढ गयी है। महाराष्ट्रा मे आजतक ओबीसी मंत्रीयों की संख्या कभी भी 2-4 से आगे नही गयी है। लेकिन अब यह संख्या 13 के ऊपर हो गई है। इस चुनाव में ओबीसी ने एक और जोरका झटका दिया है। जिन मराठा घरानों का लंबे समय से राजनीतिक प्रभुत्व रहा है उनके लिए शर्मनाक घटना घटी है। कांग्रेस के मराठा नेता बालासाहेब थोरात जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) गुट के जयंत पाटील इन दोनों घरानों की एक लंबी राजनीतिक परंपरा रही है। प्रत्येक चुनाव में उनकी वोटों की लीड डेढ़ लाख से ज्यादा होती थी! लेकिन इस चुनाव में ओबीसी वोटरों ने थोरात को हराकर घर बिठा दिया और जयंत पाटिल की बढ़त को महज 10 हजार वोटों तक सीमित कर दिया।
ओबीसी विधायकों व मंत्रियों की बढ़ी हुई संख्या, विजयी मराठा उम्मीदवारों की कम होती लीड एवं मराठा विधायकों की संख्या में हो रही कमी को देखते हुए यह सवाल पुंछा जा सकता है कि ऐसा चमत्कार ओबीसी मतदाताओं के अलावा और कौन कर सकता है? लेकिन ओबीसी द्वारा किए गए चमत्कारों का न तो विश्लेषण किया जाता है और न ही उन्हें इसका श्रेय दिया जाता है।
जिस तरह कुनबियों को मराठा के रूप में जबरदस्ती गिना जाता है, उसी तरह ओबीसी को भी अपने गोठे का गाय-बैल माना जाता है। इसमें मराठा ब्राह्मणों को दोष देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि तुम ओबीसियों ने अभी तक अपना सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व साबित ही नहीं किया है। ओबीसी आज भी आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से ब्राह्मणों-मराठों का गुलाम है। इस विधानसभा चुनाव में ओबीसी ने पहली बार अपना राजनीतिक अस्तित्व साबित किया है। लेकिन केवल राजनीतिक अस्तित्व स्थापित करने का प्रभाव अस्थायी ही होता है। इसलिए ओबीसी द्वारा किए गए चमत्कार पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं। पैसे बांटना, लाडली बहन और ईवीएम के तीनों मुद्दों के इर्द-गिर्द विश्लेषण की चर्चा घूम रही है। चुनाव के पहले ‘‘भाजपा का डीएनए ओबीसी का है’’, ऐसा बोलने वाले फडणवीस चुनाव के बाद ओबीसी शब्द भी मुंह से नहीं निकाल रहे हैं।
‘बड़े पैमाने पर पैसा बांटने के कारण भाजपा उम्मीदवार जीतकर आये’, ऐसा कहा जा रहा है। पैसे बांटने का मुद्दा मान भी लें तो सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस के थोरात और जयंत पाटिल जैसे राजनीतिक परिवारों का पैसा बीजेपी के पैसे से कम पड़ गया? लंबे समय से राजनीति में सत्ता सुख भोग चुके कांग्रेस के इन नेताओं के पास न केवल अपार धन है, बल्कि सहकारी शुगर फॅक्टरीज, को-ऑपरेटिव्ह संस्थाऐ, उनके मैनपावर, गुंडागीरी और सगे- संबंधियों का एक मजबूत नेटवर्क भी है। न तो भाजपा और न ही उसके अधिकांश उम्मीदवारों के पास इतना पैसा और इतने साधन हैं।
यदि ईवीएम घोटाले की बात स्वीकार कर ली जाए, तो विपक्षी दल भी उन मशीनों पर कई चुनाव जीत चुके हैं और अभी भी जीत रहे हैं। अगर ईवीएम से सत्ता हासिल की जा सकती है तो करोड़ों रुपये कौन खर्च करेगा? दलित, मुस्लीम, आदिवासी और ओबीसी की वोट बँक पाने के लिए क्यो उन जातीयोंको प्रधानमंत्री, राष्ट्रपती जैसे सर्वोच्च पदोंपर बिठाने की क्या जरूरत है? ईव्हीएम के माध्यमसे ऐसेही सभी वोटबँकपर डाका डाला सकता है। ईवीएम का उपयोग 100 प्रतिशत बिल्कुल नहीं किया जा सकता, इसका दुरुपयोग केवल सीमित स्थानों पर और सीमित सीमा तक ही किया जा सकता है। इस मध्यम मार्गी निष्कर्ष को स्वीकार करके चुनाव का विश्लेषण करना अधिक यथार्थवादी होगा कि ये मशीनें 10 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं बदल सकती हैं। लाडली बहन जैसी रेवड़ी वितरण योजनाओं का भी अतीत में बहुत उपयोग किया गया जा चुका है लेकिन ऐसी योजनाओं से राजनीतिक उथल-पुथल हुई है ऐसा दिख नहीं रहा है।
लोकतंत्र में राजनीतिक उथल-पुथल करने वाले चुनाव किसी न किसी प्रकार की लहर पर सवार होते हैं! 1977 में आपातकाल विरोधी लहर, 1992 में धार्मिक दंगों के बाद हिंदुत्व की लहर, 2014 में ओबीसी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा से पैदा हुई सुप्त ओबीसी लहर, ऐसी खुली या छुपी लहर पर सवार होकर ही राजनीतिक उथल-पुथल हुई है। लहर के पीछे के जातीय समीकरण की चर्चा न हो इसीलिए प्रस्थापितों की तरफ से पैसा, ईवीएम और लाडली बहन जैसे मुद्दे आगे किए जाते हैं और उन्हीं तक चर्चा को सीमित रखा जाता है।
2019 में फडणवीस साहब को ऐसी कौनसी लहर नजर आ रही थी, जिसपर सवार होकर वो बार बार कह रहे थे, की, ‘मैं फिर वापस आऊंगा’, ‘मै फिर से मुख्यमंत्री बनकर वापस लौटुंगा’। 2019 में फडणवीस मराठा वोटरों के भरोसे वापस आने की बात कह रहे थे, क्योंकि 2018 में उन्होंने मराठों को 16 फीसदी आरक्षण दिया था। लेकिन जैसा कि बालासाहेब प्रकाश अंबेडकर जी ने कहा था, मराठों ने भरोसा तोड़ा और उन्होंने अपनी जाती की मराठा पार्टियों को सत्ता में बिठाया। लेकिन ओबीसी ईमानदार होते हैं! वे कभी भरोसा नहीं तोड़ते, इसलिए इस चुनाव में फड़णवीस मुख्यमंत्री के रूप में वापस आये और भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर सशक्त तरीके से सत्ता में स्थापित किया। यह सब ओबीसी के कारण ही हुआ!
ये सब चमत्कार भुजबल साहब के नेतृत्व में हुआ! लेकिन उन्हें कैबिनेट से गच्चा दे दिया गया। इसका स्पष्टीकरण अभी तक कोई भी नहीं दे रहा है। शायद उन्हें राज्यसभा में भेजकर केन्द्रीय मंत्री बनाने की बात कही जा सकती है, ओबीसी के एकमात्र महानायक को नाराज रखना फडणवीस और अजीत पवार दोनों के लिए आत्मघाती होगा। ओबीसी को नाराज करने से शरद पवार का क्या हाल हुआ, यह हमने इस चुनाव में देखा है। ऐसी बुरी हालत फड़णवीस और अजित पवार की न हो, इसके लिए वे भुजबल साहब को नाराज नहीं रखेंगे।
व्यक्तिगत या पारिवारिक रिश्तों में बिना शर्त प्यार किया जा सकता है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक रिश्तों में यह हानिकारक साबित होता है। असुरक्षा की हीनभावना व भय से ग्रस्त कोई भी समाज नियम व शर्त रखने की स्थिति में नहीं रहता। मुसलमानों ने अपनी जान बचाने के लिए, दलितों ने अपना आरक्षण बचाने के लिए और ओबीसी ने सुरक्षा के लिए बीजेपी-कांग्रेस जैसी प्रस्थापित पार्टियों का समर्थन किया, लेकिन वे कभी भी चुनाव से पहले ऐसी कोई शर्त नहीं रख सके। यह समझते हुए कि समाज के ये तीनों घटक भयवश बिनाशर्त समर्थन देते हैं इसे ध्यान में रखते हुए प्रस्थापित पार्टियों ने लगातार दंगे और हिंसा कराकर दहशत की राजनीति की है।
दलित-मुसलमानों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में आई जरूर लेकिन उनके लिए कॉंग्रेसने दंगे रुकवाये हों या दलितों के लिए आरक्षण का बैकलॉग भरा हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। ओबीसी ने कभी हिंदू बनकर तो कभी ओबीसी के तौर पर भाजपा का समर्थन किया, फिर भी भाजपा सरकार ने न कभी ओबीसी का आरक्षण बचाया और न ही उन्हें धर्म में सम्मानजनक स्थान दिया।
कांग्रेस, भाजपा और उनके गठबंधन में शामिल छोटी बड़ी पार्टियां ये जुमलेबाजी करके मुस्लिम-दलित-ओबीसी का वोट लेते हैं, सत्ता में आते हैं और बार-बार वही दंगे-फसाद और दहशत-हिंसा की राजनीति करके इन समाज घटकों को असुरक्षित रखते हैं।
ओबीसी, दलित और मुसलमानों को सुरक्षा और स्वाभिमान की राजनीति चाहिए तो वह मराठा-ब्राह्मण जातियों की पार्टियों द्वारा संभव ही नहीं है, क्योंकि इन सत्ता के लालची जातियों का अस्तित्व ही मूलतः दलित+ओबीसी+मुसलमानों की गुलामगीरी और भयग्रस्तता पर निर्भर है। जातीय व धार्मिक दंगे करवाकर उनके द्वारा दलितों+मुस्लिम+ओबीसी को असुरक्षित किया जायेगा। तभी ये पार्टियां बार बार सत्ता में आती रहेंगी।
धार्मिक और जातीय दंगों को स्थायी रूप से रोकने के लिए समाज के इन कमजोर और पिछड़े वर्गों के पास तमिलनाडु पैटर्न के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। तमिलनाडु की दलित+ओबीसी+मुस्लिम जनता ने रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में तमिलनाडु पैटर्न बनाया। पिछले साठ वर्षों में तमिलनाडु में एक भी धार्मिक या जातीय दंगा-फसाद नहीं हुआ है। समाज के सभी वर्गों को जनसंख्या के अनुपात में अधिकार और सहूलियतें मिलती हैं।
मजबूत राजनीतिक विकल्प खड़ा किए बिना ओबीसी, दलित और मुस्लिम को असुरक्षा से मुक्ति नहीं मिल सकती। तमिलनाडु पैटर्न को स्वीकार करके समाजनीति – राजनीति की गई तभी एक मजबूत विकल्प खड़ा हो सकता है! लंबे समय से लगातार यशस्वी हो रहे तमिलनाडु पैटर्न को अपनाने की बुद्धि यहाँ के ओबीसी, दलित और मुसलमानों में जल्द आयेगी ऐसी आशा करते हैं।
तब तक के लिए, जय ज्योति, जयभीम, सत्य की जय हो!
– प्रोफे. श्रावण देवरे, संस्थापक-अध्यक्ष,
ओबीसी राजकीय आघाडी,
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ईमेल: [email protected]
लेखन तिथि: 13 दिसंबर 2024
मराठी से हिन्दी अनुवाद- चन्द्रभान पाल
*महत्वपूर्ण नोट: 1) आर्टिकल का यह छठा पार्ट (P6) Forward Press ने 6 जनवरी 2025 को पब्लीश किया है, उसकी लिंक-
https://www.forwardpress.in/2025/01/news-analysis-maharashtra-assembly-election-result-6/
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