विश्व किसान संघ की स्थापना व किसानों का उज्जवल भविष्य –पुनर्विलोकन

डॉ. रामजीलाल

विश्व किसान संघ की स्थापना व किसानों का उज्जवल भविष्य –पुनर्विलोकन

डॉ. रामजीलाल, समाज वैज्ञानिकपूर्व प्राचार्य,दयाल सिंह कॉलेजकरनाल (हरियाणा— भारत ) Email – drramjilal1947@ gmail.com

(समाज वीकली)- भारतीय किसानों की भांति यूरोपीयन देशों – ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, इंग्लैंड, फ्रांस, पोलैंड, पुर्तगाल, इटली, ग्रीस, चेक गणराज्य, स्पेन, नीदरलैंड इत्यादि के किसान भी अपने ‘भविष्य को बचाने लिए’ आंदोलनों के द्वारा सरकारों पर दबाव बना रहे हैं. जब एक ओर भारतीय और यूरोपीयन देशों के किसान आंदोलित हैं तो अमेरिका के किसान भी अपनी समस्याओं के समाधान के लिएआंदोलन कर रहे हैं. वैसे तो यूरोपीय देशों में  किसानों की अपनी स्थानीय परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग कारण हो सकते हैं. परंतु उनका  संग्रह करने के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी एक लंबी फहरिस्त है. इन देशों के किसानों की अधिकांश समस्यांए सामान्य हैं. यूरोप के किसानों पर एकओर विश्व व्यापार संगठन तथा दूसरी ओर यूरोपीय यूनियन के द्वारा किए गए निर्धारित मानक किसानों के लिए बहुत बड़ी समस्याएं हैं. यूरोपीय संघ की नौकरशाही के द्वारा तैयार किए गए कृषि संबंधी विनियम यूरोपीय देशों  किसानों के लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण हैं. इसके विनियम खद्यान्न उत्पादन की क्षमता को ‘सीमित’ करते हैं. नौकरशाही के द्वारा कीटनाशकों के उपयोग को सन् 2030 तक ‘आधे करने (50%) पर जोर दिया गया है. यूरोपीय संघ के द्वारा कठोर पर्यावरण संबंधी  मानकों अनुसार 4% भूमि को परति छोड़ना, कीटनाशकों के उपयोग से फसलें न उगाने पर बल देना, डीजल ईंधन पर सब्सिडी या कर छूट समाप्त करने की जो शर्तें किसानों पर लादी जाती हैं उनके परिणामस्वरुप किसानों में रोष,असंतोष और आंदोलन की भावना पैदा होती है. इनके अतिरिक्त यूरोप के सभी देशों में कृषि निवेशकों की कीमत में वृद्धि, किसानों के उत्पाद का उचित मूल्य न मिलाना, पर्यावरण के नियमों से परेशानी, सस्ता खाद्यान्न आयात करना, यूक्रेन -रूस युद्ध के कारण यूक्रेन से अधिक आयात पर कोटा व  शुल्क माफ करना, व चीनी, अनाज व मांस में अनुचित प्रतिस्पर्धा इत्यादि अन्य कारण हैं. इन सभी देशों में किसानों का सबसे बड़ा उद्देश्य उनके उत्पाद का उचित मूल्य प्राप्त करना है. अन्य शब्दों में जिस प्रकार भारत के किसान एमएसपी C2+50% की मांग कर रहे हैं इसी प्रकार की मांग इन देशों के किसान के आंदोलन में भी दृष्टिगोचर होती है.

यूरोपीय किसान आंदोलन का स्वरूप

भारतीय किसान आंदोलन की भांति यूरोपीय देशों में भी ट्रैक्टर मार्च की जाती है. किसानों के द्वारा ट्रैक्टरों कोअच्छी तरह सजाया जाता है और उन पर झंडे तथा बैनर लगाए जाते हैं. रंग-बिरंगे झंडों से सजे ट्रैक्टरऔर किसानों के हाथों में बैनर होते हैं और किसान ट्रैक्टरों के हूटर बजाते हुए सड़कों पर उतर आते हैं. स्पेन में विरोध का एक अति प्रशंसनीय तरीका दृष्टिगोचर  हुआ. गायों के गले में बांधने वाली घंटिया  और ढोल बजा सड़कों पर आते हैं. ट्रैक्टरों पर  स्पेन झंडे और किसानों के हाथों में बैनर पर उद्घोष था ‘खेती के बिना कोई जिंदगी नहीं’ और’ जिंदगी खत्म हो जाएगी’. अन्य शब्दों में यह इसी प्रकार का द्योतक है जिस प्रकार भारत में किसान आंदोलन  -एक (2020-2021)के समय उद्घोष था ‘नो फार्मर, नो फूड’ और  अन्य उद्घोष ‘नसल और फसल ‘को बचाने का भी था. इसी प्रकार यूरोपीय किसानआंदोलन के जरिए अपने ‘भविष्य’ को बचाने में लगे हुए हैं.

यूरोपीय देशों के किसान आंदोलनों में सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण  बेल्जियम के किसानों के आंदोलन का है.यूरोपीय यूनियन के 27 देशों के कृषि मंत्रियों की बैठक यूरोपियन यूनियन के हेड क्वार्टर, बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में 26 फरवरी 2024 को हो रही थी. यूरोपियन यूनियन के हेड क्वार्टर (ब्रसेल्स )से लगभग 100 मीटर दूर किसानों ने 900 ट्रैक्टरों को झंडों और बैनरों से सजाकर ट्रैक्टर यात्रा निकाली. यूरोपियन यूनियन के हेड क्वार्टर की ओर बैरियर –कंक्रीट की बाधाओं और कंटीले तारों– को –तोड़ कर किसान आगे बढ़ते चले गए. विश्व व्यापार संगठन की किसान विरोधी उदारवादी नीतियों  का जम कर विरोध किया क्योंकि कृषि व्यापार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में है. परिणामस्वरूप किसानों को अपने उत्पाद का सही मूल्य न मिलने के कारण सीमांत किसान बर्बाद हो रहे हैं. किसानों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए पुलिस पर अंडे और पटाखे फेंके, सड़कों पर पुराने टायरों (रबर के ढेर) और पुआल में आग भी लगाई. जवाबी कार्रवाई में पुलिस के द्वारा वाटर कैनन का प्रयोग किया गया. परंतु ड्रोन से अश्रु गैस के गोले नहीं फेंके जैसा कि पुलिस के द्वारा शम्भू बार्डर पर किया गया.

(https://www.dailypioneer.com/2024/world/farmers-converge-on-eu—s–hq-in-fresh-show-of-force.html)

किसान आंदोलन के प्रति यूरोपियन देशों की सरकारों का दृष्टिकोण:

 किसान आंदोलन के प्रति यूरोपियन देशों की सरकारों का दृष्टिकोण सहानुभूति पूर्ण होता है.वहां की सरकारों के द्वारा किसानों के विरुद्ध पुलिस का प्रयोग अति न्यूनतम किया जाता है.यूरोपीय देशों में दक्षिण पंथी प्रतिनिधि भी किसानों का समर्थन करते हैं क्योंकि वह कृषि व किसानों को देश का आधार मानते हैं .यहां फ्रांस का उदाहरण देना उचित रहेगा. फ्रांस में प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय किसान मेला लगाया जाता है.इस अंतरराष्ट्रीय किसान मेले में सत्ताधारी और विपक्षीदल अपने-अपने आयोजन करते हैं. इस प्रकार के आयोजन भारत में पिछली शताब्दी में राजनीतिक व सांस्कृतिक सम्मेंलन मेलों में हुआ करते थे. फ्रांस के किसानों के विरोध के बावजूद भी 60वां अंतरराष्ट्रीय कृषि मेला आयोजित किया गया. इस मेले में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो जब पहुंचे तो किसानों ने सीटियां में जाकर उनका विरोध किया. फ्रांस के राष्ट्रपति ने विरोध के बावजूद भी घोषणा की कि वे किसानों के साथ है. परंतु किसानों के साथ पुलिस के द्वारा कोई बल का प्रयोग नहीं किया गया.

भारत के किसान आंदोलन 2 की पृष्ठभूमि

कोरोना काल में भारत सरकार के द्वारा 5 जून 2020 को तीन अध्यादेश जारी किए गए.इन अध्यादेशों को संविधान की धारा 143 के अनुसार कानून का रूप देने के लिए संसद में पेश किया गया. राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात 27 सितंबर 2020 को लागू कर दिया. यह तीन विधेयक हैं: 1.किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020; 2. मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक, 2020 पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) 3.समझौता; और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 . सरकार के द्वारा यह प्रचार किया गया कि यह कानून ‘किसान हितैषी’ हैं . जबकि किसानों ने इन्हें ‘किसान विरोधी’ मानते हुए ‘काले कानूनों’ की संज्ञा दी  और इनको कॉरपोरेट तथा धनी व्यावसायिक कंपनियों के लिए लाभदायक माना.किसानों का मानना था कि इनसे किसनों की ‘फसल और नस्ल’ दोनों समाप्त हो जाएंगे. यह सर्वविदित है कि किसानों ने 25 नवंबर 2020 को ‘दिल्ली चलो आंदोलन’ प्रारंभ किया. यह आंदोलन 378 दिन चला और इसमें लगभग 750 किसान मौत का ग्रास हुए. 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तरफा घोषणा के बाद इन तीनों कानूनों को वापस ले लियाऔरसंसद ने नया विधेयक पारित किया. इस विधेयक पर राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात यह तीनों कानून ‘समाप्त’ हो गए. 11 दिसंबर 2022 को किसानों ने ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया और तीनों कानूनों की वापसी के पश्चात किसानों की भी ‘घर वापसी’हो गई. यह  किसान आंदोलन   इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है. परंतु किसानों को जो वायदे  किए गए थे वे पूरे नहीं हुए. इसलिए किसानों को किसान आंदोलन – दो शुरू करना पड़ा.

किसान आंदोलन -दो : किसानों की मुख्य मांगें 

किसान आंदोलन -दो (फरवरी 2024–) में किसानों की मुख्य मांगें — न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP -C2+50%) के संबंध में कानून का निर्माण, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों – बुनियादी ढांचे, अनुसंधान और विकास में निवेश करवाना, किसानों के कृषि ऋण की माफी,किसानों को बिजली की दरों में रियायत , विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को रद्द करवाना , किसान  आंदोलन(2020-21)  के दौरान किसानों के विरुद्ध दर्ज मुकदमों की वापसी, भारत को डब्लूटीओ से बाहर (Quit WTO) आने की मांग, लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों को न्याय, कृषि उत्पादों – फल, दूध, सब्जियों, मांस पर आयात शुल्क कम करवाना व भत्ता बढ़ावाना, 60 वर्ष की आयु से अधिक के प्रत्येक किसान को ₹10,000 की मासिक पेंशन, मनरेगा के तहत न्यूनतम कृषि कार्य के लिए न्यूनतम दैनिक मजदूरी   ₹700 प्रति दिन  और एक  वर्ष में 200 दिन के काम की गारंटी, किसानों को प्रदूषण कानून से मुक्त करवाना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सुधार करवाना, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को लागू करवाना, कीटनाशक, बीज और उर्वरक अधिनियम में संशोधन करवाना व कपास सहित सभी फसलों के बीजों की गुणवत्ता में सुधार करवाना इत्यादि हैं. (https://zeenews.india.com/hindi/business/kisan-andolan-2024-what-is-msp-for-which-farmers-are-protesting-why-govt-fail-to-convience-them/2108204 )

किसान आंदोलन के प्रति भारत का सरकार का दृष्टिकोण

भारत में सरकार का दृष्टिकोण यूरोपीय देशों की सरकारों के विपरीत है. भारत के प्रधानमंत्री के द्वारा भारत को लोकतंत्र की जननी कहा है परंतु वास्तविक स्थिति यह है देश में कहीं ना कहीं हररोज हड़ताल और आंदोलन होते हैं. सरकार   समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ होती है. इसका नवीनतम उदाहरण हम किसान आंदोलन –एक (ONE) और किसान आंदोलन –दो (Two) का दे सकते हैं. किसान आंदोलन –एक (2020-2021) 378 दिन चलाऔर इस में लगभग 750 किसान अकाल मृत्यु का ग्रास हुए थे. किसान  निलंबित मांगों के लिए मांगों को लागू करवाने के लिए ‘किसान आंदोलन दो’(TWO) कर रहे हैं. प्रजातांत्रिक  हल निकालने की अपेक्षा सरकार के द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग पर कीलें ठोकना, कंक्रीट की दीवारें खड़ी करना, अवरोध खड़े करना, पुलिस  तथा अर्धसैनिक बलों का प्रयोग करना, ड्रोन के जरिए अश्रु गैस छोड़ना,  वाटर केनन के जरिए ठंडे पानी की बौछार करना, घरों में नजर बंद करना, जेलों में बंद करना, किसानों पर लाठी चार्ज करना इत्यादि वास्तव में गैर लोकतांत्रिक है. किसान आंदोलन एक तथा किसान आंदोलन 2   के संबंध में सरकार दृष्टि कोण प्रजातांत्रिक मानकों के आधार पर औचित्यपूर्ण नहीं है.

 पंजाब से जन चौक के पत्रकार अमरीक की रिपोर्ट के अनुसार, ‘’शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे किसानों और मज़दूरों पर आंसू गैस का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया जिससे हजारों किसान-मज़दूर अस्थमा, सीने में दर्द और आंखों की समस्याओं से पीड़ित हैं। रबड़ की गोलियां चलाईं गईं। एसएलआर और 12 बोर की राइफल का इस्तेमाल किया गया, जिससे किसान शहीद हो गया। किसानों को हरियाणा पुलिस ने अवैध हिरासत में लिया। 23 फरवरी को पंजाब के तकरीबन 500 किसान व मज़दूर ज़ख्मी हुए( https://janchowk.com/zaruri-khabar/there-will-be-a-permanent-kisan-morcha-trains-will-travel-to-delhi-on-march-6-and-will-be-stopped-on-march-10/)

यूरोपियन देशों के किसान आंदोलन और भारत के किसान आंदोलन में समानताएं:

यूरोपियन देशों के किसान आंदोलन और भारत के किसान आंदोलन में समानताएं अधोलिखित हैं :

  1. शहरों में रहने वाले लोग किसान आंदोलनों के विरूद्ध हैं. दोनों क्षेत्रों के शहरी  क्षेत्र में रहने वाले लोगों को कृषि कार्य में करते हुए क्या समस्याएं आती हैं इनका उनका ज्ञान नहीं है. केवल यही नहीं अपितु अधिकांश अर्थशास्त्री भी उनकी समस्याओं को समझने में असफल नजर आते हैं.शहरी लोगों की आम धारणा हैकि किसानों के पास ट्रैक्टर, गाड़ियां, मोटरसाइकिल, मोबाइल, बढ़िया ड्रेस, इत्यादि हैं. इसलिए यह गरीब नहीं हैं अथवा किसान ही नहीं हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि कारों और गाड़ियों में चलना शहरी पढ़े लिखे लोगों का एकाधिकार है. किसानों के बच्चे शिक्षित हैं और उनको रोजगार न मिलने का कारण कृषि क्षेत्र में कार्य करना पड़ता है. परन्तु शिक्षित होने के कारण उनकी जीवन शैली में भी  परिवर्तन आता है. आज हम किसानों की तुलना 19वीं व 20 वीं शताब्दी  के उन किसानों से नहीं कर सकते जिनके तन पर मैले व फटे हुए कपड़े होते थे.क्या यह वर्ग किसानों को उस स्थिति में देखना चाहता है जो नील उत्पादक किसानों थी अथवा हैदराबाद रियासत के किसानों की जब 1890 के दशक में सामंतों की जमीन की बाही करने के लिए हलों को  बैलों की अपेक्षा किसानों व कृषि श्रमिकों के द्वारा खिंचा जाता था..
  2. दोनों क्षेत्रों मेंविदेशी व स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा उत्पादित विदेशी महंगे बीटीबीज, उत्पाद कम, कीड़े लगने की समस्या, कृषि में प्रयोग होने वाले निवेश — कृषि उर्वरक, कीटनाशक दवाइयां, यूरिया खाद, डीजल,  लेबर व कर्षि उपकरणों का महंगा होना,  सूखा व बेमौसमी बारिश, ओलावृष्टि व बाढ  के द्वारा फसल की बर्बादी इत्यादि के कारण कृषि कार्य महंगा और घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है.

3. दोनों क्षेत्रों के किसानों के द्वारा अपने उत्पादों के ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की मांग निरंतर की जा रही है. भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य C2 + 50% फार्मूले के आधार कानूनी  जामा पहना कर लागू करवाने के लिए किसान संघर्षरत हैं. ( https://frontline.thehindu.com/the-nation/agriculture/farmers-protests-in-europe-and-india-common-goals/article67888471.ece)

4. भारत तथा यूरोपीय क्षेत्र के किसान आंदोलनों में विश्व व्यापार संगठन की नीतियों का बहुत अधिक विरोध है. डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) के 13 वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (एमसी) कृषि संबंधी सब्सिडी के संबंध में गतिरोध का समाधान नहीं हो सका. (https://www.dailypioneer.com/2024/columnists/wto-deadlock-over-agricultural-subsidies.html/)

इसके अतिरिक्त यूरोपीय किसान यूरोपीय यूनियन के द्वारा निर्मित नीतियों का विरोध भी करते हैं.

यूरोपियन देशों के किसान आंदोलन और भारत के किसान आंदोलन में असमानताएं:

दोनों क्षेत्रों के किसान आंदोलनों में अधोलिखित असमानताएं भी विद्यमान हैं:

यूरोपियन क्षेत्र में किसानों का समर्थन दक्षिण पंथी विचारधारा के राजनेताओं के द्वारा तथा राजनीतिक दलों के द्वारा खुलकर किया जाता है. क्योंकि वहां के किसान उनका एक बहुत बड़ा वोट बैंक है तथा के  अधिकांश राजनेता किसान परिवारों से आते हैं. इसके बिलकुल विपरीत भारत में दक्षिण पंथी विचारधारा का नेतृत्व करने वाले संगठन -भारतीय जनता पार्टी और इसके समर्थक दल किसान आंदोलन का समर्थन नहीं करते क्योंकि यह इसको राजनीति से प्रेरित मानते हैं. हमारा अभिमत है कि राजनीति ‘मां के गर्भ से लेकर मृत्यु की गोद  तक’ जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को प्रभावित करती है. राजनीतिक नेता सरकारों की नीतियों, निर्णय़ों, योजनाओं व कानूनों  निर्माण करते हैं और यह सभी किसानों को प्रभावित करते हैं. किसानों के पर राजनीति करने का दोषारोपण वह लोग कर रहे हैं जो स्वयं राजनीति करते हैं. क्या विरोधाभास है? भारत में किसान आंदोलन –एक और किसान आंदोलन- दो का खुलकर समर्थन कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी और वाम दलों  के द्वारा किया गया है. किसान नेताओं ने राजनीतिक दलों  के नेताओं को समर्थन देने के लिए धन्यवाद किया है परंतु उनको मंच साझा करने के लिए नहीं देते. यूरोप के अधिकांश देशों में किसान आंदोलनों में राजनेताओं के साथ मंच साझा करने में कोई परहेज नहीं है.

केवल यूरोप और भारत में नहीं है अपितु संसार के प्रत्येक महाद्वीप में किसानों की लगभग एक  जैसी समस्याएं हैं. विश्व भर के किसानों को यह मालूम है कि उनके विरुद्ध अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठन- डब्ल्यूटीओ, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ इत्यादि, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कॉर्पोरेटस हैं. इसलिए हमारा मानना है कि दुनिया भर के किसानों को एकीकृत होकर संघर्ष करना चाहिए. किसानों के संघर्ष को समुचित तरीके से संचालन हेतु ‘विश्व किसान संघ’ (WFO) के निर्माण की आवश्यकता है. इस संगठन के कार्यालय विश्व के सभी देशों में होने चाहिए. प्रत्येक देश में होने वाले किसान आंदोलन में विश्व भर के किसानों का योगदानऔर सहयोग अनिवार्य है अन्यथा आने वाले समय में किसानों के सम्मुख अनेक समस्याएं उत्पन्न होंगी औरअलग-अलग रहकर किसान अपने संघर्ष में कामयाब नहीं होंगे.

द कम्युनिस्ट (1848) में सभी देशों के सर्वहारा की एकता पर बल देते हुए उद्घोष दिया गया, “दुनिया के श्रमिकों, एक हो जाओ! आपके पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है.” इसी उद्घोष का अनुसरण करते हुए विश्व के किसानों को एक जुट होना चाहिए ताकि भविष्य में होने वाले संभावित खतरों से उनके हितों की सुरक्षा हो सके. विश्व किसान संघ की स्थापना  करके  विश्व भर के किसान अपने ‘भविष्य’ -नस्ल व फसल को सुरक्षित कर सकॆगें. विश्व किसान संघ  की स्थापना किसानों व मानवता के लिए अचूक रामबाण सिद्ध होगा.

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