एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट
(समाज वीकली)
उत्तर प्रदेश की नगीना लोकसभा सीट इसलिए चर्चा में है क्योंकि इस सीट से पहली बार आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद जीते हैं। चंद्रशेखर का मुकाबला भाजपा, बसपा तथा इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी से था। इसमें चंद्रशेखर 1,51,473 वोटों से जीते हैं। उन्होंने कुल 5,12,552 वोट प्राप्त किए और भाजपा के प्रत्याशी ने 3,61,079, समाजवादी पार्टी ने 1,02,374 तथा बसपा के प्रत्याशी ने 13,272 वोट प्राप्त किए।
चंद्रशेखर की काफी अच्छी वोटों से जीत का कारण मुख्यतया नगीना संसदीय क्षेत्र की आबादी का गणित है। नगीना एक एससी जाति की आरक्षित सीट है। यहाँ पर मतदाताओं की संख्या तकरीबन 16 लाख है। इसमें लगभग 46% मुसलमान तथा 21% दलित तथा लगभग 30% चौहान, सैनी तथा अन्य मतदाता हैं। इस लोकसभा क्षेत्र में पाँच विधानसभा क्षेत्र आते हैं जिनमें नटहौर, नजीबाबाद, नगीना, धामपुर तथा नूरपुर शामिल हैं।
पहले नगीना बिजनौर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा रहा है जो बाद में 2007 में हुए परिसीमन में नगीना लोकसभा क्षेत्र बना है। मुसलमानों तथा दलितों के उच्च प्रतिशत के करण यह लोकसभा सीट दलित राजनीति का केंद्र रही है। यहाँ से ही 1989 में मायावती बसपा के प्रत्याशी के तौर पर सांसद चुनी गई थीं और 1985 में कांग्रेस की मीरा कुमार चुनाव जीत चुकी हैं। 2019 में इस सीट से सपा-बसपा गठबंधन से बसपा प्रत्याशी गिरीश चंद्र जीते थे।
नगीना सीट पर चंद्रशेखर की जीत का मुख्य कारण मुस्लिम वोटर का पूर्ण तथा दलित वोटर के भी बड़े हिस्से का समर्थन रहा है। इस क्षेत्र को मायावती अपना गढ़ मानती आई है परंतु इस बार दलितों तथा मुसलमानों ने भाजपा हराओ के उद्देश्य से मायावती को वोट न दे कर चंद्रशेखर को वोट दिया है। इसी लिए बसपा प्रत्याशी बेहद कम वोट पाकर चौथे नंबर पर रहा है।
कुछ लोग चंद्रशेखर की जीत को नई दलित राजनीति की शुरुआत मान रहे हैं। यह विचारणीय है कि चंद्रशेखर का न तो कोई दलित एजंडा है और ही कोई प्रगतिशील विचारधारा। वह काशीरम की जिस बहुजन राजनीति को आगे बढ़ाने की बात करतें हैं उसकी विफलता तो सब के सामने है। कांशीराम की सबसे बड़ी उत्तराधिकारी मायावती इसी बहुजन राजनीति पर ही काम करती हैं। इस बहुजन राजनीति ने न सिर्फ भाजपा के साथ गठजोड़ किया बल्कि हिन्दुत्व के विचार को दलितों में ले जाने की वाहक भी बनी है। इसलिए केवल दलित-मुस्लिम गठजोड़ से भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति को हराना संभव नहीं होगा। इसके लिए तो एक बृहद लोकतान्त्रिक गठबंधन तथा कार्पोरेटपरस्त एवं वैश्विक वित्तीय पूंजी की पोषक आर्थिक राजनीति के विरुद्ध एक वैकल्पिक जनपक्षधर आर्थिक नीति की जरूरत है। अतः हमारा निश्चित मत है कि दलितों को अस्मिता की राजनीति से बाहर निकल कर बृहद लोकतान्त्रिक वर्गीय गठबंधन का हिस्सा बनना चाहिए। इसके केंद्र में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, मजदूरों, किसानों और नौजवानों के मुद्दे होने चाहिए। यह विचारणीय है कि जाति की राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करती है जिसे परास्त करना हमारा मुख्य लक्ष्य है