जातिवार जनगणना राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग- जयंत जिज्ञासु (राष्ट्रीय प्रवक्ता, राष्ट्रीय जनता दल)
(समाज वीकली)- समाजवादी चिंतक जगनन्दन यादव की पुण्यतिथि पर चंद्रावती देवी महिला पीजी कॉलेज, मेहनगर, आज़मगढ़ में आयोजित सामाजिक न्याय सम्मेलन में राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. जयन्त जिज्ञासु ने कहा,
“सामाजिक न्याय का संघर्ष दरअसल आदमी से इंसान बनने की यात्रा का संघर्ष है.
जाति जनगणना का प्रश्न राष्ट्रनिर्माण का प्रश्न है. सामाजिक समता व बंधुता का प्रश्न मनुष्यता का प्रश्न है और जातिवार जनगणना के हासिल को उसी की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. कर्पूरी ठाकुर, रामनरेश यादव, लालू प्रसाद, शरद यादव, मुलायम सिंह, कांशीराम व रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने अपने समय में मुश्किल लड़ाई लड़ी.
तेजस्वी यादव ने अपने संकल्प के बूते बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में जाति आधारित गणना करा कर देश भर में एक मिसाल पेश की है. अखिलेश यादव, स्टालिन, सिद्धारमैया, राहुल गाँधी, मल्लिकार्जुन खड़गे समेत इंडिया ब्लॉक के अनेक नेता आज राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना कराने की बात स्पष्ट लहजे में कर रहे हैं.
जातिवार जनगणना की मांग इसलिए महत्वपूर्ण है कि अलग-अलग क्षेत्रों में ओवर-रीप्रेज़ेंटेड व अंडर-रीप्रेज़ेंटेड लोगों का एक हकीकी डेटा सामने आ सके जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं व संविधानसम्मत सकारात्मक सक्रियता की दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके.
बिहार सरकार ने देश में पहली बार जाति आधारित गणना करा कर सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए अति पिछड़ों का आरक्षण 18 प्रतिशत से बढ़ा कर 25 फ़ीसदी, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण सीमा को 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की सीमा को 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 2 प्रतिशत, तथा पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की सीमा को 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया है, यानी सामाजिक रूप से कमज़ोर तबकों के लिए आरक्षण सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया है। सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को पूर्ववत रखा गया है। इन सभी वर्गों के लिए आरक्षण की कुल सीमा को बढ़ाकर 75 प्रतिशत किया गया है। यह एक तरह से जननायक की आकांक्षाओं का सम्मान है.
वो कौन-सा डर है जिसके चलते आज़ादी के बाद आज तक कोई भी सरकार जातिवार जनगणना नहीं करवा सकी?
दरअसल, जैसे ही सारी जातियों के सही आंकड़े सामने आ जाएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ओबीसी ईबीसी की हकमारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी की शोषक है. वे मुश्किल से जमात बने हज़ारों जातियों को फिर आपस में लड़ा नहीं पाएंगे और हर क्षेत्र में उन्हें आरक्षण व समुचित भागीदारी बढ़ानी पड़ेगी.
सिर्फ ओबीसी की ही क्यों, भारत की हर जाति के लोगों को गिना जाए. जब गाय-घोड़ा-गधा-कुत्ता-बिल्ली-भेड़-बकरी-मछली-पशु-पक्षी, सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं?
आखिर पता तो चले कि भीख मांगने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला लगाने वाले, फुटपाथ पर सोने वाले लोग किस समाज से आते हैं. उनके उत्थान के लिए सोचना वेलफेयर स्टेट की ज़िम्मेदारी है और इस भूमिका से वह मुंह नहीं चुरा सकता.
इसलिए, जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक मामला नहीं, बल्कि राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है. जो भी इसे अटकाना चाहते हैं, वे दरअसल इस देश के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं.
हज़ारों सालों से जिनके पेट पर ही नहीं, बल्कि दिमाग पर भी लात मारी गई है, उनकी प्रतिष्ठापूर्ण ज़िंदगी सुनिश्चित करना इस समाज व देश के सर्वांगीण विकास के लिए वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है.
अंततोगत्वा, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना से ही भारत का भला होगा, ‘हम भारत के लोग’ के जीवन में खुशहाली आएगी.”
*इंस्टॉल करें समाज वीकली ऐप* और पाए ताजा खबरें
https://play.google.com/store/apps/details?id=in.yourhost.samajweekly