(कँवल भारती)
(समाज वीकली) आदरणीय अध्यक्ष महोदय प्रोफ़ेसर माधव हाड़ा, प्रोफ़ेसर अवधेश प्रधान, विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सुब्रह्मणयन, आयोजक प्रोफ़ेसर प्रभाकरन हेब्बार इल्लत और उपस्थित छात्र-छात्राओं !!
सेमिनार के आयोजकों ने इस सत्र में मेरा विषय ‘भक्ति काल और जाति-प्रश्न’ रखा है। हालाँकि, मैंने इस विषय की अपेक्षा नहीं की थी। लेकिन मैं अपने अनुभवों से समझ सकता हूँ कि अगर वक्ता दलित जाति से है, तो उसके लिए जाति का प्रश्न ही उपयुक्त विषय समझा जाता है। यह एक परम्परा बन गई है। शायद उनकी दृष्टि में जाति का प्रश्न गैर-दलितों का नहीं है। अगर यह प्रश्न गैर-दलितों का नहीं है, तो दलितों का किस कारण से है? यह मेरे समझ में आज तक नहीं आया। क्या जाति का निर्माण दलितों ने किया है? मैं समझता हूँ कि आप में से कोई भी इस बात से सहमत नहीं होगा कि जातिव्यवस्था के निर्माता दलित हैं। फिर जिन लोगों ने जातिव्यवस्था बनाई है, यह विषय उनका क्यों नहीं होना चाहिए? लेकिन उन लोगों को जाति का प्रश्न चिंतित नहीं करता। और इसलिए चिंतित नहीं करता, क्योंकि जाति उनके लाभ की चीज़ है। उनके सारे प्रिवलेज जाति के कारण हैं। संविधान ने जाति को मान्यता नहीं दी। पर हिन्दू समाज संविधान से नहीं चलता, जाति से चलता है। इसलिए संविधान के शासन में भी वे अपने प्रिवलेज का उपभोग करते हैं। यह प्रिवलेज यानी विशेषाधिकार, जो जाति ने उनको दिया है, वह चीज़ है, जो उनको योग्य, श्रेष्ठ और उच्च होने का बोध कराती है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। वे न योग्य हैं, न श्रेष्ठ हैं और न उच्च हैं। सारा खेल प्रिवलेज का है। इस जाति ने उनको सिर्फ प्रिवलेज ही नहीं दिया है, उनको शासक भी बनाया है। जाति उनके लिए एक वरदान है, जबकि यही जाति शूद्रों के लिए अभिशाप है। अब आप आसानी से इस बात को समझ सकते हैं कि द्विजों को जाति क्यों नहीं परेशान करती? मैं समझता हूँ कि दलितों से यह पूछना कि वे जाति के बारे में क्या सोचते हैं, उनका मज़ाक बनाना है। जिस जाति ने उन्हें मनुष्य ही नहीं समझा, उसके बारे में वे कोई अच्छा विचार तो नहीं रखेंगे।
आप कृपया बोर न हों, मैं अपने विषय पर ही हूँ, और विषय को कम्प्लीट करके ही बैठूँगा। पर अपना दर्द तो बताना ही होता है।
अब मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें। मैं इस बात को जोर देकर कहता हूँ कि भारतीय इतिहास में दो काल खंड, केवल दो काल खंड, दलित जातियों के लिए वरदान बनकर आए। एक मुस्लिम काल और दूसरा ब्रिटिश काल। अगर भारत में मुसलमान और अंग्रेज न आए होते, तो दलितों का भाग्योदय इस देश में शायद कभी नहीं होता। इन्हीं दो युगों में दलितों को मनुष्य होने का अहसास हुआ। और उनमें गुलामी से मुक्ति की तड़प और जद्दोजहद पैदा हुई। मैं यह सोचकर आज भी काँप जाता हूँ कि अगर मुसलमान और अंग्रेज न आए होते, तो हमारा क्या होता? क्या हिन्दू राजे-रजवाड़े हमें मानवीय अधिकार देते? जो हिन्दू अपने कुओं से दलितों को पानी नहीं देते थे, क्या वे उनको शिक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार देते? ये प्रश्न मैं आप लोगों के विचार के लिए छोड़ता हूँ।
ध्यान रहे कि इसी मुस्लिम काल में भक्ति आन्दोलन आया। इस्लाम भारत में सातवीं शताब्दी में ही आ गया था। ज़ाहिर है कि जब इस्लाम आया, तो मुसलमान भी उसके साथ आए। दूसरे शब्दों में मुसलमानों के साथ ही इस्लाम आया। इसके साथ एक बड़ी क्रान्ति भाषा के क्षेत्र में आई। साहित्य में जो कुलीन, अभिजात्य भाषा थी, संस्कृत, उसका वर्चस्व टूटा, और स्थानीय बोलियाँ कविता की भाषा बनने लगी। ब्राह्मणों ने संस्कृत से इतर इस भाषा को घृणा की दृष्टि से देखा, और उसे असाधु, असंस्कृत, असभ्य, और अपभ्रंश कहकर तिरस्कृत किया। गुणाढ्य नाम के एक लेखक ने पैशाची भाषा में बृहत्कथा नाम का ग्रन्थ लिखा था। इस भाषा में लिखने के कारण वहाँ के राजा ने भरे दरबार में उसका अपमान किया था।
दूसरी बड़ी क्रान्ति जाति को लेकर हुई। आठवीं सदी में ही सिद्ध आ गए थे, जिनका समय बारहवीं सदी तक का है। ये 84 सिद्ध थे, जिनमें 28 सिद्ध शूद्र थे और 4 स्त्रियाँ थीं। अन्य सिद्धों में ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य सभी थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्यकाल में ज्ञान के क्षेत्र में वर्णव्यवस्था टूट गई थी। जातियां थीं, पर उनके वर्ण-कर्म में शिथिलता आ गई थी। वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण ही धर्मगुरु हो सकता था, पर यह बंधन इस काल में टूट गया था। शूद्रों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी धर्मगुरु हो गई थीं। इसी सदी में सरहपाद हुए। ये ब्राह्मण थे। पर उन्होंने वेद-शास्त्रों, यज्ञों, वर्णव्यवस्था और जाति का जबरदस्त खंडन किया। इन्हीं सिद्धों में एक मछेन्द्रनाथ थे, जिन्होंने नाथ-पंथ चलाया। इनके शिष्य थे गोरखनाथ। गोरखनाथ ने शिव-भक्ति को इतना लोकप्रिय और इतना व्यापक बनाया कि पूरब से लेकर पच्छिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक, ऐसा कोई प्रांत नहीं है, जहाँ की आम जनता में गोरखनाथ का प्रभाव न हो। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि आज भी देश के कोने-कोने में दलित-पिछड़ी जातियों की विशाल आबादी गोरखनाथ और उनके शिष्य जाहर पीर को, जो मुसलमान थे, अपना देवता मानती है।
इन्हीं सिद्धों और नाथों की परम्परा में भक्ति आन्दोलन आता है। जब भक्ति आन्दोलन आरम्भ हुआ, तो इसमें एक मजबूत धारा निर्गुण कवियों की थी, जो जाति के विरुद्ध थी। इसमें एक दूसरी धारा ब्राह्मणों ने चलाई, जो जाति के पक्ष में थी। यह धारा निर्गुण के प्रतिरोध, यानी काउंटर में चलाई गई। इसे हम सगुण धारा के नाम से जानते हैं। यह धारा विष्णु के अवतार राम और कृष्ण के नाम से चलाई गई। किन्तु किसी भी सगुण धारा के संत ने जाति का खंडन नहीं किया, बल्कि वे जातिव्यवस्था के प्रचंड समर्थक बने रहे। डा. आंबेडकर ने लिखा है कि संत ज्ञान देव अपनी ब्राह्मण हैसियत पर इतने मुग्ध थे कि जब पैथान के ब्राह्मणों ने उन्हें अपने समुदाय में स्वीकार करने से मना कर दिया, तो उन्होंने उनके बीच ब्राह्मण के रूप में मान्यता पाने के लिए, जमीन-आसमान एक कर दिया था। इसी तरह संत एकनाथ हुए, जिन्हें नायक के रूप में दिखाने के लिए ‘धर्मात्मा’ फिल्म बनाई गई, क्योंकि उन्होंने एक अछूत के साथ भोजन करने का साहस दिखाया था। ऐसा उन्होंने इसलिए नहीं किया था कि वह जाति के विरोधी थे, बल्कि यह मानकर किया था कि अगर इससे छूत लगी तो उसे वह गंगा में नहाकर शुद्ध हो जायेंगे। यथा—अन्त्यजाचा विठाल ज्यासि/ गंगा स्नाने शुद्धत्व त्यासि। यह वचन एकनाथी भागवत के अध्याय 28 में आया है। एक संत रामानंद थे, जिन्हें मिथ्या गुरु के रूप में कबीर और रैदास के ऊपर थोपा जाता है। वह कहते थे, हरि का भजे सो हरि का होई। पर जाति के खंडन में उनका कोई पद नहीं मिलता। कबीर की एक साखी है—‘साकत ब्राह्मण जिनि मिलें, बैसनो मिलो चंडाल/ अंक माल दे भेंटिए, मानो मिले गोपाल।’ अगर तुम्हें शाक्त, ब्राह्मण और वैष्णव-चंडाल मिले, तो शाक्त और ब्राह्मण से मत मिलना, क्योंकि वे तो दोनों एक ही हैं। पर अगर वैष्णव-चंडाल मिले तो उसे गले लगा लेना, क्योंकि उसे वैष्णव का दर्ज़ा मिला ही नहीं, वह अछूत ही माना जाता है। ये रामानन्द के बनाए हुए अछूत वैष्णव थे। वह ब्राह्मणों को तो विधिपूर्वक मन्दिर में मंत्रोच्चार के साथ दीक्षा देते थे, पर अछूतों को मन्दिर के बाहर खड़ा करके एक फर्लांग दूर से कहते, बोलो-राम राम। जब वे बोल देते, राम राम, तो रामानंद उनसे कहते, जाओ तुम्हारी दीक्षा हो गई, तुम वैष्णव हो गए। लेकिन उन्हें कभी मन्दिर के भीतर प्रवेश नहीं मिला। उन अछूत वैष्णवों से मन्दिर के बाहर सफाई का काम लिया जाता था।
यह मैंने कल भी बताया था कि भक्ति काल के निर्गुण और सगुण संतों को एक नहीं समझना है। इनको गडमड करने का अपराध रामविलास शर्मा और कुछ अन्य ब्राह्मण आलोचकों ने किया है, पर यह अपराध आप मत कीजिएगा। दोनों अलग-अलग हैं। अब मैं यह बताता हूँ कि ब्राह्मणों को सगुण धारा चलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका मुख्य कारण है इस्लाम, जिसने एकेश्वरवाद और मनुष्यों में, ख़ासकर निम्न जातियों के मनुष्यों में प्यार की वह धारा प्रावाहित की, कि ब्राह्मण-धर्म और वर्णव्यवस्था खतरे में पड़ गई थी। कई आलोचक जिनमें हजारीप्रसाद द्विवेदी मुख्य हैं, भक्ति साहित्य पर इस्लाम का प्रभाव नहीं मानते। वह कहते हैं, सब वेद-वेदान्त से आया है, कबीर की क्रान्ति भी वेद-वेदांत से आई है और तुलसी का वर्णाश्रम भी। है न अद्भुत ज्ञान! लेकिन वह हिंदी साहित्य की भूमिका में यह भी जोर देकर कहते हैं कि ‘अगर इस्लाम नहीं आया होता, तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा आज है।’ यानी वह भक्ति काल के साहित्य पर इस्लाम का चार आना प्रभाव मानते हैं। लेकिन यह चार आना प्रभाव भी ब्राह्मण संतों पर इतना ही पड़ा कि उन्होंने शूद्र जातियों को इस्लाम में जाने से रोकने के लिए छुआछूत के बंधन ढीले कर दिए थे, लेकिन समाप्त नहीं किए थे। और तुलसीदास तो शूद्रों के प्रति इतने कठोर थे कि शूद्र कवियों के उभार को वह कलियुग का दुष्प्रभाव मानते थे। उनको यह सहन नहीं था कि गुणों के कारण कोई शूद्र इतना ऊंचा बन जाए कि वह जन्मजात ब्राह्मणों को उपदेश देने लगे कि क्या हम तुमसे कुछ कम हैं—बादहिं सूद्र द्विजन्ह सम हम तुम ते कछु घाटि/ जानइ ब्रह्म सो विप्रवर, आँख देखावहिं डाटि।’
निर्गुण कवियों की सौन्दर्य-चेतना यह थी कि ‘ब्राह्मण को मत पूजिए, जो हो गुण से हीन/ पूजिए चरण चंडाल के, जो हो ज्ञान प्रवीन।’ यह संत रैदास का पद है। यह निर्गुण सौन्दर्य-चेतना समाज में सौ साल तक ब्राह्मणों को चिंतित करती रही। उसके विरोध में सोलहवीं सदी में तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था को स्थापित करते हुए यह स्थापना दी—‘पूजिए विप्र सील गुन हीना/ नाहीं ना शूद्र गुन ज्ञान प्रवीना।’ जिन लोगों ने रामचन्द्र शुक्ल को पढ़ा है, उन्हें मालूम होगा कि शुक्ल जी ने कबीर को दम्भी यानी अहंकारी कहा है, असभ्य और असंस्कृत कहा है। है न हैरानी की बात कि उन्हें ‘पूजिए विप्र सील गुन हीना/ नाहीं ना शूद्र गुन ज्ञान प्रवीना’ कहने वाले तुलसीदास में दम्भ, अहंकार और असभ्यता दिखाई नहीं दी, बल्कि कबीर में दिखाई दी, जो ऊंच-नीच का खंडन कर रहे थे। तुलसीदास ने मानस में जिन संतों की वंदना की है, उनमें ब्राह्मण ही उनके लिए प्रथम वन्दनीय हैं—‘बंदौं प्रथम महीसुर चरना/ मोह जनित संसय सब हरना।’ तुलसी के यहाँ यह जाति का कितना बड़ा समर्थन है।
इसलिए मैं अपनी बात पुन: दोहरा रहा हूँ कि भक्ति काल के निर्गुण और सगुण कवियों और संतों को एक मत समझ लेना। जाति-व्यवस्था का विरोध सगुणों ने नहीं किया, केवल निर्गुण संत-कवियों ने किया। जाति गैर-दलितों की चिंता का विषय न तब था और न आज है।
भक्ति काल में जाति के विरुद्ध सबसे बड़ा विद्रोह पंद्रहवीं सदी के निर्गुण संतों ने किया, और यह विद्रोह था समाज में ब्राह्मण की सत्ता को खारिज करना। किसी भी निर्गुण संत ने ब्राह्मण को अपना गुरु नहीं बनाया। यह जाति की जड़ पर पहला प्रहार था। क्योंकि जाति की जड़ केवल ब्राह्मण थी। इसलिए कबीर ने गगन-भेदी स्वर में कहा, ‘ब्राह्मण गुरु जगत का, साध का गुरु नाहीं/ उरझ-पुरझ कर मर गया चारों वेदा माहीं।’ उन्होंने कहा, होगा ब्राह्मण जगत का गुरु, पर वह साध का गुरु नहीं हो सकता। निर्गुण संत अपने को साध कहते थे, साधु नहीं। उन्होंने ब्राह्मण को नकारकर जाति की जड़ ही काट दी। क्योंकि ब्राह्मण ही जाति को स्थापित करता था। निर्गुण संत इस धारणा के थे कि क्यों बनाना ब्राह्मण को गुरु? उसके पास वेद-पुराणों की पोथियों का ज्ञान देने के सिवा है क्या? उसके पास लोक को मिथ्या और परलोक को सत्य बताने की शिक्षा देने के सिवा है क्या? वह शूद्र है, वह अछूत है, वह म्लेच्छ है, वह अधिकारी है, वह अनधिकारी है, यह लफ्फाजी करने के अलावा उसके पास है क्या? वह उच्चता की ग्रंथि से इस क़दर ग्रस्त है कि वह अपने सिवा सभी को नीच मानता है। अभी कल के सत्र में प्रोफ़ेसर माधव हाड़ा ने कहा था कि पश्चिम के मनीषी भारतीय मनीषियों को दोयम दर्जे का समझते थे। लेकिन वह यह नहीं बताते कि ब्राह्मण मनीषी भी शूद्र मनीषियों को दोयम दर्जे का मानते हैं। ब्राह्मण अपने शरीर पर छापे-तिलक लगाकर यह अहसास कराते हैं कि वह अन्य मनुष्यों के समान नहीं है, उनसे अलग हैं, उच्च हैं। इस तरह ब्राह्मण सामाजिक असमानता और सामाजिक अलगाव को पसंद करता है। ऐसे ब्राह्मण की आँखों में उँगली डालकर कबीर ने पूछा था—अगर तू जन्म से ही उच्च है, तो जन्म से ही ये तीन डंडे लेकर क्यों नहीं पैदा हुआ? जैसे सब पैदा होते हैं, वैसे ही तू भी एक बूँद से पैदा हुआ है। पर अगर तू अलग है, तो अन्य रास्ते से क्यों नहीं पैदा हुआ? अगर तू ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है, तो मुख से ही बाहर आता—’जो करता वर्ण बिचारा/ जन्मत तीन दंड अनुसारा/ जे तू बाँभन बभनी जाया/ आन वाट काहे नहिं आया।‘
और छूत की बीमारी तो ब्राह्मण को इतनी भयानक थी कि अगर उस पर किसी दलित की छाया भी पड़ जाती तो वह तुरंत स्नान करता था। कल अवधेश प्रधान जी ने अपने व्याख्यान में भक्तमाल का जिक्र करते हुए उसे सगुण-निर्गुण कवियों के समन्वय का महान ग्रन्थ बताया था। लेकिन यह ग्रन्थ समन्वय का नहीं, बल्कि निर्गुण कवियों का विकृत चरित्र-चित्रण करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को नाभादास ने सोलहवी सदी में तुलसीदास के काल में ही लिखा था। नाभादास को शूद्र बताया जाता है। मैं नहीं जानता कि यह ग्रन्थ नाभादास ने लिखा था, या उनके नाम से किसी ब्राह्मण ने लिखा था। लेकिन यही वह ग्रन्थ है, जिसने कबीर और रैदास को रामानंद का चेला बनाने की कहानियां गढ़ी हैं। इसी भक्तमाल में वर्णन मिलता है कि कबीर को जब रामानंद से वार्ता के लिए बुलाया गया तो रामानन्द ने बीच में मोटे टाट का पर्दा डलवाकर बात की थी, ताकि कबीर की छाया पड़ने से उनको छूत न लगे। क्या छुआछूत में विश्वास करने वाला ऐसा विचित्र प्राणी कबीर का गुरु बनने योग्य था? क्या कबीर उसे अपना गुरु बनाते? कदापि नहीं। कबीर कहते हैं—‘गुरु तो ऐसा चाहिए, जो देई ब्रह्म बनाए।’ जो चेले की देह को भी ब्रह्म बना दे। कबीर ने बड़ी प्यारी बात कही है कि ब्राह्मण की स्थिति ऐसी है, जैसे अंधों की नाव, जिसमें सब अंधे बैठे हुए हैं और जिधर चाहते हैं उसे ले जाते हैं, उनका कोई लक्ष्य नहीं है—कबिरा ब्राह्मण की कथा, सो अंधों की नाव/ सब अंधे मिलि बैठहीं, भावै तहाँ ले जाव।’
निर्गुण संतों का ईश्वर निरंजन था, जाति-वर्ण से रहित। उनके निर्गुण ईश्वर का न रूप था, न वर्ण था, न गोत्र था, न कुल था और न कोई धाम था। लेकिन सगुण संत एक निराकार ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। उनका काम एक ईश्वर से चल ही नहीं सकता था, आज भी नहीं चलता है। क्योंकि निराकार ईश्वर का मंदिर नहीं बनाया जा सकता, उसकी मूर्तियाँ नहीं बनाई जा सकतीं, उसके नाम की लीलाएं नहीं रची जा सकतीं। अगर सगुण ब्राह्मण एक निरंजन परमात्मा को मानते, तो उन्हें सामाजिक समानता पर जोर देना पड़ता। फिर वर्णव्यवस्था का क्या होता, जिसको स्थापित करने के लिए उन्होंने तमाम अवतार और कथाएं गढ़ीं? ध्यान रखिए, सगुण देवताओं की स्थापना उनकी आवश्यकता थी, क्योंकि उन्हें वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय व्यवस्था घोषित करना था, जो वे ब्रह्मा को उसका निर्माता बनाकर ही कर सकते थे।
कबीर ने ऐसी भक्ति का खंडन किया है, और ऐसे भक्तों को फटकार लगाई है, जिनके लिए जाति पहले थी। उनके ये पद देखिए—
जब तक नाता जाति का, तब तक भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई शूरमा, जाति बरण कुल खोय।
जहाँ भक्ति वहाँ भेष नहिं, वर्णाश्रम हू नाहिं।
नाम भक्ति जो प्रेम सों, सो दुर्लभ जग माहिं।
अंत में मैं रैदास साहेब की कुछ सखियों के साथ विराम लूँगा। उन्होंने दलित जातियों को पराधीन कहा था। हालाँकि राजनीतिक रूप से सभी भारतीय पराधीन थे, पर सामाजिक रूप से दलित ही पराधीन थे। उन्होंने कहा कि दलित ऐसे पराधीन हैं, जिनसे कोई प्रेम नहीं करता—
पराधीनता पाप है जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन से कौन करे है प्रीत।
ब्राह्मण उसको जानिए, जो ब्रह्म में लीन।
जाति वर्ण माने नहीं, रैदास यही है दीन।।
मुसलमान से दोस्ती हिन्दुवन से कर प्रीत।
रैदास ज्योति सब हरि की, सब हैं अपने मीत।।
लेकिन बकौल कबीर, जब ‘सूद्र म्लेच्छ बसे मन माहीं/ आतम राम सु चीन्हा नाहीं।’ जिन सगुण संतों के हृदयों में सूद्र और म्लेच्छ बसे थे, तो उनकी भक्ति भी पाखंड थी। आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया।