सौ से ज्यादा जन संगठन केंद्र और राज्य सरकारों से अपना संवैधानिक कर्तव्य निभाने के लिए आवाज़ उठा रहे हैं
समाज वीकली
सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई में फिर से लाखों लोगों के खिलाफ बेदखली के आदेश जारी होने का खतरा है – वो जिनके अधिकारों को गलत व् गैर कानूनी रूप से खारिज कर दिया गया है। हम केंद्र और राज्य सरकारों से भारत के आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने और हमारे देश के इन सबसे उत्पीड़ित लोगों के खिलाफ अदालती आदेशों, आंतरिक विनाशकारी प्रयासों और घोर अवैधताओं का उपयोग कर उन्हें और प्रताड़ित व् उत्पीड़ित बंद करने का आह्वान करते हैं।
2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में वाइल्डलाइफ फर्स्ट एंड ऑर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड ऑर्स (WP 109/2008) मामले की सुनवाई होनी है। यह मामला वन अधिकार अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देता है, जो एक ऐसा कानून है जिसे पारंपरिक वनवासी समुदायों – ज्यादातर आदिवासियों – के अधिकारों को मान्यता देने की मांग करने वाले लम्बे संघर्ष और राष्ट्रव्यापी आंदोलन के बाद पारित किया गया था। इस कानून का उद्देश्य भारत के वन कानूनों द्वारा किए गए “ऐतिहासिक अन्याय” को ठीक करना था – अंग्रेजों से विरासत में मिले इन कानूनों ने सरकारी वनों को मनमाने ढंग से घोषित करके और वनवासियों को उनके उपभोग कि भूमि और उन्हीं के जंगलों जिनकी रक्षा के लिए वे अक्सर लड़ते रहे हैं, में “अतिक्रमणकारी” का नाम देकर करोड़ों लोगों को बेसहारा और वंचित कर दिया है।
लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों दोनों ने इस कानून का घोर उल्लंघन किया है और भारी संख्या में अधिकारों के दावों को अवैध रूप से खारिज कर दिया है। 2019 में, एकतरफा सुनवाई के बाद जिसमें केंद्र सरकार इस कानून का बचाव करने में विफल रही, सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किए गए दावेदारों को बेदखल करने का आदेश दिया था। क़ानून के खिलाफ जाते हुए , इस आदेश ने 17 लाख से अधिक परिवारों को बेदखली के खतरे में डाल दिया । देशव्यापी विरोध के बाद कोर्ट ने अपने आदेश को स्थगित कर दिया और खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने के लिए कहा। लेकिन उसके बाद के वर्षों में केंद्र सरकार ने कभी भी इस प्रक्रिया को गंभीरता से लेने की कोशिश नहीं की – और या तो कोई समीक्षा नहीं की गई या बेतरतीब ढंग से, मनमानी समीक्षाओं के परिणामस्वरूप खारिज किए गए दावे बार-बार दुबारा खारिज कर दिए गए। अब, 2 अप्रैल को, इस मामले के पीछे सेवानिवृत्त वन अधिकारी और वन्यजीव एनजीओ फिर से वन वासियों के बेदखली की मांग करना चाहते हैं।
हम केंद्र और राज्य सरकारों को इस देश के वनवासियों के प्रति उनके कर्तव्य की याद दिलाते हैं। खास तौर पर, हम केंद्र सरकार से अपील करते हैं कि वह अदालत में इस कानून का बचाव करे और वन प्रशासन और बड़ी कंपनियों द्वारा आदिवासियों और वनवासियों के उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए सक्षम बनाने के अपने दृष्टिकोण – जो कई कानूनों और नीतियों में साफ़ स्पष्ट होता है – को बंद करें। हम मांग करते हैं कि केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करे कि इस गुमराह करने वाले मामले को खारिज कर दिया जाए और केंद्र व् सभी राज्य सरकारें वनवासियों के अपनी भूमि पर अधिकार और वनों का प्रबंधन और संरक्षण करने के अधिकारों को मान्यता दें, जैसा कि वन अधिकार अधिनियम द्वारा अपेक्षित है।