महात्मा गांधी : भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बचाने का ‘सर्वोत्तम’ प्रयास : एक समीक्षा

#समाज वीकली 

डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत)
ईमेल.drramjilal1947@gmail.com

भारत के तीन महान क्रांतिकारियों – भगत सिंह (जन्म -28 सितंबर 1907- शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931– गांव बंगा-अब पाकिस्तान), सुखदेव (पूरा नाम- सुखदेव थापर, जन्म 15 मई 1907- शहीदी दिवस – 23 मार्च 1931– लुधियाना, पंजाब ) और राजगुरु (जन्म 24 अगस्त 1908- शहीदी दिवस 23 मार्च 1931 -पूरा नाम– शिवराज हरि राजगुरु -जन्म स्थान खेड़ा गांव, महाराष्ट्र – मराठी) को 23 मार्च 1931 को फाँसी दी गई थी. आज हम महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी, 1948 ) पर यह समीक्षा करेंगे कि उन्होंने भारत के इन तीन महान क्रांतिकारियों के जीवन को बचाने के लिए क्या प्रयास किए.

महात्मा गांधी एवं कांग्रेस के विरोधियों के द्वारा यह दुष्प्रचार निरंतर किया जा रहा है कि उन्होंने भारत के तीन महान क्रांतिकारियों की जान को बचाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया. यदि गांधी जी चाहते तो उनकी जान बच सकती थी. यह एक भ्रमात्मकऔर अवांछित दोषारोपण है.

महात्मा गांधी सत्य औरअहिंसा के मार्ग पर चलते हुए शांतिपूर्ण तरीके से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे. महात्मा गांधी के अनुसार साधन और साध्य में घनिष्ठ संबंध है. गांधीवादी तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, आमरण अनशन, असहयोग, बहिष्कार, धरने, प्रदर्शन, बातचीत, समझौता, समाचार पत्रों में लेख इत्यादि मुख्य है. इसके बिलकुल विपरीत यह प्रचार किया जाता है कि भगत सिंह और उसके साथी हिंसात्मक साधनों से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे. भगत सिंह ने दो घटनाओं–केंद्रीय असेंबली बम कांड (8 अप्रैल 1929) व जॉन सांडर्स की हत्या (-17 दिसंबर 1928) को छोड़कर कोई हिंसा नहीं की क्योंकि उनका मानना था कि विचारों को सान पर तेज करने व जनता को लामबंद करके ही क्रांति आ सकती है. भगत सिंह और उसके साथियों के द्वारा भी गांधीवादी अहिंसात्मक तरीकों को अपनाया. इन अहिंसात्मक तरीकों में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, नारेबाजी, न्यायपालिका में ब्यान, पोस्टर बाजी, समाचार पत्रों में लेखों का प्रकाशन, पत्र लिखना, जनता में प्रचार, महत्वपूर्ण दिवस –मई दिवस, लेनिन दिवस मनाना इत्यादि, अन्य देशों क्रांतिकारियों के साथ संपर्क स्थापित करना, उदेश्य प्राप्ति के लिए वार्ता एवं समझौता तथा जनता को लामबंद करने के साथ-साथ आत्मिक और भौतिक बल का प्रयोग मुख्य स्थान रखते हैं. क्रांति के लिए दोनों तरीकों का प्रयोग किया जा सकता है. केंद्रीय असेंबली बम कांड (8 अप्रैल 1929) में दिल्ली सेशन कोर्ट में सवाल भगत सिंह ने तर्क दिया कि “क्रांति” शब्द का मतलब हमेशा “खूनी संघर्ष” नहीं होता.

30 अक्टूबर 1928 को साइमन आयोग जब लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुंचा तो रेलवे स्टेशन के बाहर आयोग के विरुद्ध अहिंसक व शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के अथाह जन सैलाब के द्वारा ‘साइमन कमीशन गो कमीशन बैक’ के नारे आकाश में गूंज रहे थे. इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे. लाहौर के पुलिस अधीक्षक, जेम्स ए. स्कॉट ने पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज करने का आदेश दिया. लाला लाजपत राय के शरीर पर स्वयं लाठियां से प्रहार किया. जिसके परिणाम स्वरूप 17 नवंबर 1928 को लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई. भारतीय जनता विशेष तौर पर युवा वर्ग ने इसको राष्ट्रीय अपमान समझा. इस राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए भगत सिंह और उसके साथी जेम्स ए. स्कॉट को मौत के घाट उतार कर राष्ट्रीय अपमान का बदला लेना चाहते थे. परंतु गलती से उन्होंने जेपी सांडर्स को जेम्स ए स्कॉट समझ लिया और उसकी हत्या (17 दिसंबर 1928) कर दी. जिसके परिणाम स्वरूप उन पर लाहौर में मुकदमा चला गया जिसको ‘लाहौर षड़यंत्र केस (1930.) नाम से पुकारते हैं

10 जुलाई 1929 को जेपी सांडर्स की हत्या (लाहौर षड़यंत्र केस) का मुकदमा शुरू हुआ. 7 अक्टूबर 1930 को ट्रिब्यूनल ने तीनों महान क्रांतिकारियों -भगत सिंह, सुखदेवऔर राजगुरु को 24 मार्च 1931 को फांसी देने की सजा की तिथि निर्धारित की. ट्रिब्यूनल के निर्णय अनुसार इन क्रांतिकारियों को 24 मार्च 1931 को फाँसी दी जानी थी, परंतु जन आक्रोश को देखते हुए एक दिन पूर्व 23 मार्च 1931 शाम को 7.30 पर लाहौर की जेल की पिछे से दीवार तोड़ कर केंद्रीय जेल में फांसी दे गई.

देश के इन महान क्रांतिकारी वीरों के जीवन को बचाने के लिए महात्मा गांधी ने क्या प्रयास किया? यह एक यक्ष प्रश्न है. इस प्रश्न के संबंध में दो विरोधी विचार हैं:

प्रथम, महात्मा गांधी की छवि विच्छंद करने के लिए यह प्रचार किया जाता है कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा से बचाने के लिए प्रभावशाली ढंग से प्रयास नहीं किया और केवल औपचारिकता निभाई है. यह दोषारोपण करने वालों में गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन, हर्बर्ट एमरसन गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्य), यशपाल, मन्मथ नाथ गुप्त, इत्यादि मुख्य हैं. इनका मानना है कि गांधी -­इरविन दिल्ली समझौता की शर्तों में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी से बचाने की शर्त नहीं रखी गई. 18 जनवरी 1931 को रोज नामचे में लिखा:

‘दिल्ली में समझौता हुआ उसे अलग और अंत में मिस्टर गांधी ने भगत सिंह का उल्लेख किया. उन्होंने फांसी की सजा रद्द करवाने के लिए कोई पैरवी नहीं की पर साथ ही उन्होंने वर्तमान स्थितियों में फांसी को स्थगित करने के विषय में कुछ भी नहीं कहा.’ 20 मार्च 193 1 को महात्मा गांधी ने हर्बर्ट इमर्सन (गृह सचिव वायसराय की काउंसिल के सदस्य) से मुलाकात की . इस संबंध में एमरसन ने रोज नामचे में लिखा :

‘मि. गांधी इस मामले में अधिक चिंतित मालूम नहीं हुए. मैंने उनसे कहा कि यदि फांसी के फलस्वरूप व्यवस्था नहीं हुई तो यह बड़ी बात होगी. मैंने उसे कहा कि वह कुछ करें ताकि अगले दिनों में सभाएं न हो और लोगों के उग्र व्याख्यानों को भी रोके. इस पर उन्होंने स्वीकृति दे दी और कहा जो भी मुझ से हो सकेगा करूंगा.”

द्वितीय, इस समय भगत सिंह और उसके साथियों को बचाने के लिए प्रयासों संबंधित महात्मा गांधी द्वारा किया गया पत्राचार सार्वजनिक हैं. जिसका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह दोषारोपण की भगत सिंह और उसके साथियों को बचाने के लिए महात्मा गांधी द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया. यह अवांछित, अनुचित, सरासर गलत और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है. महात्मा गांधी का वायसराय को लिखा पत्र, जिसमें भगत सिंह की फांसी को फांसी को स्थगित करने की मांग की गई थी. इस दृष्टिकोण का समर्थन करने वालों में नेताजी सुभाष बोस, डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या, मीरा बेन, एडवोकेट आसिफ अली, इतिहासकार वी एन दत्ता, न्यूज़ क्रॉनिकल (लंदन) के पत्रकार रॉबर्ट बर्नेज़, भगत सिंह के एक साथी जितेन्द्र नाथ सान्याल, सी. एस. वेणु. सुभाष चंद्र बोस इत्यादि मुख्य है .

महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 4 मई 1930 को मुकदमे से सम्बंधित न्यायाधिकरण के गठन की आलोचना की थी. 11 फरवरी 1931 को भगत सिंह व उसके साथियों को फांसी की सजा से बचाने के लिए की गई अपील को प्रिवी कौंसिल (लंदन) के दवारा ठुकरा दिया गया .इसके पश्चात महात्मा गांधी–इरविन समझौते के लिए 17 फरवरी 1930 से 5 मार्च 1930 तक मीटिंगें हुई और पत्राचार भी हुआ. महात्मा गांधी ने 18 फरवरी 1931 को भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन से फांसी को कम करने की बात की. महात्मा गांधी ने वायसराय से कहा; “अगर आप वर्तमान माहौल को और अधिक अनुकूल बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह की फांसी को स्थगित कर देना चाहिए”. वायसराय लॉर्ड इरविन ने महात्मा गांधी को उत्तर दिया, “मैं आपका बहुत आभारी हूँ कि आपने इस बात को इस तरह से मेरे सामने रखा. सजा को कम करना एक कठिन बात है, लेकिन निलंबन निश्चित रूप से विचार करने योग्य है”. 7 मार्च 1931 को महात्मा गांधी ने दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए कहा: “मैं किसी को भी फांसी पर चढाय़े जाने के लिए पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता .भगत सिंह जैसे बहादुर व्यक्ति के लिए तो बिल्कुल नहीं”.19 मार्च, 1931 को गांधी ने फिर से लॉर्ड इरविन से सजा कम करने की अपील की, जिसे इरविन ने मीटिंग की प्रोसिडिंग में नोट कर लिया. 20 मार्च, 1931 को महात्मा गांधी ने लॉर्ड इरविन के गृह सचिव हर्बर्ट इमर्सन से मुलाकात की . गांधी जी ने इरविन से 21 मार्च 1931 और फिर 22 मार्च 1931को फिर मुलाकात की और उन्हें सजा कम करने के लिए राजी किया.23 मार्च 1931 को गांधीजी ने वायसराय को एक भावुक पत्र लिखा था.उन्होंने लिखा:

“शांति के हित में अंतिम अपील की आवश्यकता है. हालाँकि आपने मुझे यह बताने में बहुत ईमानदारी दिखाई कि भगत सिंह और दो अन्य लोगों की मौत की सज़ा कम करने की आपकी उम्मीद बहुत कम है,.’ आपने कहा कि आप शनिवार को मेरे प्रस्तुतीकरण पर विचार करेंगे. .. यदि पुनर्विचार के लिए कोई जगह बची है, तो मैं आपका ध्यान निम्नलिखित की ओर आकर्षित करता हूँ.

लोकप्रिय राय सही या गलत तरीके से सजा में कमी की मांग करती है. जब कोई सिद्धांत दांव पर नहीं होता है, तो अक्सर उसका सम्मान करना कर्तव्य होता है. वर्तमान मामले में संभावना है कि, यदि उसकी सजा में कमी (Commutation) कर दी जाती है, तो आंतरिक शांति को बढ़ावा मिलने की सबसे अधिक संभावना है. फांसी की स्थिति में, शांति निस्संदेह खतरे में है… इन लोगों की जान बचाना सार्थक है, यदि इससे कई अन्य निर्दोष लोगों की जान बच सकती है… . यदि आपको लगता है कि निर्णय में त्रुटि की थोड़ी सी भी संभावना है, तो मैं आपसे आग्रह करूँगा कि आप इस कार्य को आगे की समीक्षा के लिए स्थगित कर दें,’’

इस पत्र पर टिप्पणी करते हुए वायसराय इरविन ने लिखा; “जब मैंने श्री गांधी को मेरे सामने सजा में कमी के लिए मामला रखते हुए सुना, तो मैंने सबसे पहले इस बात पर विचार किया कि यह निश्चित रूप से कितना महत्वपूर्ण था कि अहिंसा के पुजारी को अपने स्वयं के मूल रूप से विरोधी पंथ के भक्तों के पक्ष में इतनी गंभीरता से वकालत करनी चाहिए…”. परंतु तय तिथि (24 मार्च 1931) से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को, भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई.

न्यूज़ क्रॉनिकल (लंदन) के पत्रकार रॉबर्ट बर्नेज़ ने अपनी पुस्तक ‘द नेकेड फ़कीर’ में उल्लेख किया है कि गांधी, के तर्कों के कारण लॉर्ड इरविन ‘’वास्तव में सजा को निलंबित करने के बारे में सोच रहे थे, लेकिन ब्रिटिश पंजाब की नौकरशाही ने उन्हें दबा दिया, जिन्होंने सजा कम किए जाने पर सामूहिक रूप से इस्तीफा देने की धमकी दी.”

सुधी पाठकों को यह भी बताना जरूरी है कि हत्या से एक महीने पहले जॉन सांडर्स की भारत के वायसराय के पीए की बेटी से सगाई हुई थी.इसलिए जॉन सांडर्स की मौत के कारण ब्रिटिश सरकार बौखला गई और उसका क्रोध एवं प्रतिशोध सातवें आसमान पर था . ब्रिटिश सरकारऔर ब्रिटिश पंजाब की नौकरशाही दबाव के कारण वायसराय इरविन सजा को कम करने के लिए तैयार नहीं हुए.

सी.एस. वेणु ने भी लिखा था: “…यह रहस्य नहीं रह सकता कि श्री गांधी ने “भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी से बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया. अगर भगत सिंह श्री गांधी के अपने बेटे होते, तो वे इस मामले में इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते थे.”

राष्ट्रीय अभिलेखागार की ओर से प्रकाशित ‘अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक व अन्य अंकों पर आधारित’ किताब में महात्मा गांधी के लेख पुस्तक में सम्मिलित किया गया है . इस लेख में महात्मा गांधी ने भगत सिंह के गुणों –देश भक्ति, देश प्रेम , अदम्य साहस और कुर्बानी की अतुलनीय प्रशंसा की .अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हुए उन्होंने ने लिखा कि अंग्रेजी सरकार के पास क्रांतिकारियों के हृदय को जीतने का ‘स्वर्णिम अवसर ‘था परंतु सरकार इसमें असफल रही .उन्होंने भगत सिंह और उसके साथियों की प्रशंसा करते आगे लिखा ‘हमारी स्वतंत्रता को जीतने के लिए भगत सिंह और उसके साथी मरे हैं”. भगत सिंह की मृत्यु के पश्चात जो जन भावावेश उत्पन्न हुआ इस संबंध में महात्मा गांधी ने कहा ‘परिवार के अतिरिक्त किसी की जिंदगी के संबंध में आज तक दिन इतना अधिक भावावेश नहीं किया गया जितना कि सरदार भगत सिंह के लिए किया गया है”.

महात्मा गांधी के आलोचकों के द्वारा किया गया दोषारोपण कि उन्होंने भगत सिंह और उसके साथियों की जान बचाने के लिए केवल औपचारिकता निभायी है,यह ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. उपरोक्त विवरण से निम्न बातें साराशत: स्पष्ट होती हैं:

1. महात्मा गांधी ने न्यायाधिकरण के गठन की आलोचना की; 2. वे सिद्धांततः मृत्युदंड के खिलाफ थे; 3. वे भगत सिंह, सहदेव और राजगुरु को फांसी दिए जाने के पूरी तरह खिलाफ थे; 4. महात्मा गांधी सजा कम करने के पक्ष में बातचीत और पत्राचार करते रहे, लेकिन पंजाब के सिविल सेवकों के दबाव और वायसराय के अड़ियल रवैये के कारण सफल नहीं हो सके, जिन्होंने सामूहिक रूप से इस्तीफा देने की धमकी दी थी।

अंतत: नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आत्मकथा –‘द इंडियन स्ट्रगल, 1920-42’, पृ. 184) में लिखा है कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह को बचाने का अपना ‘सर्वोत्तम’ प्रयास किया.

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