(समाज वीकली)
बेशर्मी और निर्लज्जता की हदें पार करते महामहिम!
– रामस्वरूप मंत्री
राष्ट्रपति के बाद राज्यपाल का पद ही संवैधानिक गरिमा में सबसे ऊपर माना जाता है लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं जिन राजनेताओं को राज्यपाल की कुर्सी पर बैठाया है उन्होंने न केवल संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया है बल्कि राजभवन में बैठकर एक पार्टी के नेता जैसा व्यवहार करते हुए सारी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है इसमें महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह सबसे आगे हैं संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार करने में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी पीछे नहींहै ताजा मामला महाराष्ट्र के गवर्नर की कुर्सी पर बैठे भगत सिंह कोश्यारी का है यहां तो बागड़ ही खेत को खा रहा है। ऐसे में उस संविधान का क्या होगा जिसकी रक्षा की जिम्मेदारी इन महामहिम के कंधों पर है। उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने मंदिरों को अभी तक नहीं खोले जाने पर सवाल उठाया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने पत्र में कुछ ऐसी आपत्तिजनक बातें कह दी हैं जो इस तरह के किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए शोभा नहीं देती हैं और ऐसा कुछ कहने और लिखने से पहले उसे 100 नहीं 1000 बार सोचना चाहिए।
संविधान की अनदेखी कर मनमाने तरीके से काम करने और अपने सूबे की सरकार के लिए नित-नई परेशानी खड़ी करने के लिए कुख्यात महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी ने एक बार फिर उद्दण्डता और निर्लज्जता का परिचय देते हुए साबित किया है कि वे राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बने रहने की न्यूनतम पात्रता भी नहीं रखते हैं। कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन के दौरान बंद किए गए मंदिरों को खोलने की अनुमति न दिए जाने पर सवाल उठाते हुए राज्यपाल कोश्यारी ने सूबे के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को जिस बेहूदा लहजे में पत्र लिखा है, वह न सिर्फ मुख्यमंत्री का बल्कि देश के उस संविधान का भी अपमान है, जिसकी शपथ लेकर वे राज्यपाल के पद पर बैठे हैं।
पत्र में उन्होंने सेकुलरिज्म का मजाक उड़ाने के अंदाज में ठाकरे से पूछा है कि क्या आप अब सेकुलर हो गए हैं? और उसी के साथ यह भी जोड़ दिया है कि आप तो हिंदुत्व के बड़े चैंपियन बनते थे और भगवान राम के भक्त थे तथा शपथ लेने के बाद सबसे पहले आपने अयोध्या की यात्रा कर भगवान राम का दर्शन किया था। और इसके साथ ही उसमें कहा गया है कि अगर बार और रेस्टोरेंट खोले जा सकते हैं तो देवी-देवताओं को क्यों ताले में बंद रखा जाना चाहिए? दिलचस्प बात यह है कि इसमें केवल हिंदुओं के मंदिर और उनके देवताओं का जिक्र है। कहीं भी न तो मस्जिद की बात की गयी है और न ही किसी गिरिजाघर की। इसमें उनसे जुड़े मुस्लिम और ईसाई समुदाय का भी जिक्र नहीं है।
मंदिर के नाम पर भाजपा के इस राजनीतिक उपक्रम को मुखरता प्रदान करते हुए राज्यपाल कोश्यारी ने नेता प्रतिपक्ष के अंदाज में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखे पत्र में न सिर्फ बंद पड़े मंदिरों को खोले जाने पर विचार करने को कहा, बल्कि तंज करते हुए लिखा है, ”आप तो हिंदुत्व के मजबूत पक्षधर रहे हैं। खुद को राम का भक्त बताते हैं। क्या आपको धर्मस्थलों को खोले जाने का फैसला टालते रहने का कोई दैवीय आदेश मिला है या फिर क्या आप अचानक ‘सेक्युलर’ हो गए हैं, जिस शब्द से आपको नफरत थी।’’
बहरहाल इस पत्र पर उद्धव ठाकरे ने कड़ी आपत्ति दर्ज की है जवाबी पत्र में उन्होंने उसको छुपाया भी नहीं है उन्होंने कहा है कि उन्हें अपनी साख के लिए किसी गवर्नर के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने उल्टे मुंबई को पाक अधिकृत कश्मीर का दर्जा देने वालों का स्वागत करने और उनसे मिलने के लिए उनकी आलोचना भी कर डाली। उन्होंने सवालिया अंदाज में पूछा है कि आपका कहने का मतलब मंदिर को खोलने का अर्थ है हिंदुत्व और नहीं खोलने का मतलब है सेकुलरिज्म? और इससे आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा कि आपको नहीं भूलना चाहिए कि सेकुलरिज्म संविधान का अभिन्न हिस्सा है जिसकी शपथ लेकर आप इस संवैधानिक पद पर बैठे हैं। और इसके साथ ही उन्होंने कहा कि लोगों की भावनाओं का ख्याल रखते समय हमें उनके जीवन की रक्षा को प्राथमिकता में रखना होगा। और उसी उद्देश्य से लॉक डाउन को एकाएक नहीं खोला जा रहा है।
एनसीपी मुखिया शरद पवार ने भी इस पर आपत्ति जताई है उन्होंने पीएम मोदी को पत्र लिख कर इस पर कड़ा एतराज जाहिर किया है। उन्होंने कहा है कि वह स्वतंत्र विचार रखने के गवर्नर के अधिकार की कद्र करते हैं। लेकिन उन्होंने जिस तरह से पत्र को सार्वजनिक किया है और उसमें उन्होंने जो भाषा लिखी है वह किसी भी तरह से उस पद पर बैठे शख्स के लिए उचित नहीं है। दरअसल ठाकरे और पवार जिस संविधान और उसमें लिखे गए सेकुलरिज्म की बात कर रहे हैं उससे संघ प्रशिक्षित इस जमात का कुछ लेना-देना ही नहीं है। वह इसके ध्वंस पर ही अपनी हिंदू राष्ट्र की इमारत खड़ी करना चाहती है। लिहाजा उसे अपमानित करने और नीचा दिखाने का वह कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती। इनके लिए संविधान समेत मौजूदा दौर की सारी संस्थाएं वहीं तक उपयोगी हैं जहां तक वे उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में सहयोग करती हैं। अब अगर कहीं भी वह रास्ते का कांटा बन रही हैं तो उन्हें बेहद निर्लज्जता से हटा दिया जा रहा है या फिर उनकी अनदेखी कर दी जा रही है। हाल में संसद से किसान विधेयक को पारित कराने के लिए जो रास्ता अपनाया गया था वह इसकी सबसे बड़ी और ताजी मिसाल है।
दरअसल, सेक्युलरिज्म यानी पंथनिरपेक्षता किसी पार्टी का नारा नहीं बल्कि हमारे स्वाधीनता संग्राम से जुडा मूल्य है, जिसे केंद्र में रखकर हमारे संविधान की रचना की गई है। 15 अगस्त, 1947 को जिस भारतीय राष्ट्र राज्य का उदय हुआ, उसका अस्तित्व पंथनिरपेक्षता यानी सेक्युलरिज्म की शर्त से बंधा हुआ है। पंथनिरपेक्षता या कि धर्मनिरपेक्षता ही वह एकमात्र संगठक तत्व है, जिसने भारतीय राष्ट्र राज्य को एक संघ राज्य के रूप में बनाए रखा है।
जाहिर है कि संविधान और खासकर उसके इस उदात्त मूल्य के बारे में कोश्यारी की समझ या तो शून्य है या फिर वे समझते-बूझते हुए भी उसे मानते नहीं हैं। दोनों ही स्थिति में वे राज्यपाल के पद पर रहने की पात्रता नहीं रखते हैं। लेकिन जिस केन्द्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने कोश्यारी को राज्यपाल नियुक्त किया है, उस सरकार से या राष्ट्रपति से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वे कोश्यारी को बर्खास्त कर संविधान के प्रति अपनी निष्ठा और सम्मान प्रदर्शित करेंगे। अगर उन्हें ऐसा करना ही होता तो बहुत पहले ही कर चुके होते, क्योंकि कोश्यारी इससे पहले भी अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा को कई बार लांघ चुके हैं।
यह ताकतें जानती हैं कि संविधान और संसद को बुल्डोज करके ही उनके हिंदुत्व का कारवां आगे बढ़ेगा इसलिए उसे नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़तीं पूरे देश को अध्यादेशों के सहारे चलाया जा रहा है और बीच बीच में उन पर किसान बिलों की तरह मुहर लगवा ली जा रही है। इसके पहले यूपी के मुख्यमंत्री पद पर कल्याण सिंह नाम का एक स्वयंसेवक बैठा था जिसने नेशनल इंटीग्रेशन कौंसिल के सामने शपथ ली थी कि वे अयोध्या में बाबरी मस्जिद को महफूज रखने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाएंगे। लेकिन जब वह यह शपथ ले रहे थे उस समय भी जान रहे थे कि वह झूठ बोल रहे हैं और उसका कत्तई पालन करने नहीं जा रहे हैं। और फिर सत्ता में उनकी मौजूदगी में ही बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई जिसके लिए बाद में उन्हें सुप्रीम कोर्ट से एक दिन की जेल की सजा भी मिली थी।
दरअसल संघी जमात को नागरिकों की मौजूदा जिंदगी और उनके भौतिक सुख सुविधाओं से कम जीवन के बाद के उनके पराभौतिक और इहलौकिक जीवन से ज्यादा मतलब है और इस कड़ी में भगवान, मंदिर और उससे जुड़ी तमाम चीजें संविधान, संसद और संस्थाओं के मुकाबले प्राथमिकता हासिल कर लेती हैं। जो इंसान को अपनी मौजूदा जिंदगी की जगह मृत्यु के बाद की स्थितियों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती हैं लिहाजा वर्तमान जीवन और उससे जुड़े भौतिक जगत को सुंदर बनाना और उसके लिए काम करने की जगह मंदिर-पूजा-पाठ और अगले जन्म की बेहतरी पर फोकस कर देना उसकी नियति बन जाती है।और उनका शोषण भी आसान हो जाता है। क्योंकि जनता की न तो चेतना बढ़ने दी जाएगी और न ही उसको अपने अधिकारों का ज्ञान होगाऔर इसको सुनिश्चित करने के लिए पूंजीपतियों ने सत्ता में कोश्यारी और मोदी जैसों को बैठा दिया है। अनायास मोदी अपनी किताब में नहीं लिखते हैं कि मैला ढोते हुए सफाई कर्मियों को आध्यात्मिक सुख का एहसास होता है लिहाजा यहां मंदिर का खुलना उनकी राजनीति के विस्तार की पहली शर्त और जरूरत दोनों है और उसके बंद होने का मतलब उनकी सांसों का उखड़ना है।