(समाज वीकली)- यह कौन सी आफ़त मानव जाति पर आ गिरी है? डेढ़ साल गुज़र जाने के बाद, इंसानियत के अश्क बहने बंद नहीं हुए हैं। पहले बड़ी से बड़ी बीमारी होने पर भी, इन्सान इंतनी जल्दी साथ नहीं छोड़ता था। दिल और जिगर का ओपरेशन होने के बाद भी मरीज़ बर्षो तक हमारे बीच जीता रहता था। मगर कोरोना का वायरस एक पल के अन्दर घर का घर तहस नहस कर रहा है।
आज सुबह सुबह जेएनयू से पढ़े एक दोस्त का फ़ोन आया और उन्होंने बताया कि वे कोरोना पॉजिटिव हैं। कुछ ही साल पहले, दोस्त की नौकरी सिक्किम की बड़ी यूनिवर्सिटी में लगी थी। उन्होंने ने बताया कि वहां का हवा, पानी और फिज़ा दिल्ली और बड़े शहरों की तरह आलूदा नहीं है। अप्रैल के महीने में जब मैं कूलर खरीदने के लिए पैसे का इन्तेजाम कर रहा था, तब मेरे दोस्त चादर ओढ़ कर मज़े कर रहे थे। “यहाँ अभी भी गुलाबी सी ठंडक है। यहाँ गर्मी नहीं लगती।“
दोस्त की यह बात सुनकर मैंने सोचा, “काश! दिल्ली में सिक्किम बस जाता । फिर न कूलर खरीदने का झंझट होता और न ही बहार पसीने बहते और न ही सड़क, छत और फर्श गर्म तवे की तरह तपते।”
पहले मुझे हैरानी हुई सिक्किम जैसे खूबसूरत और कुदरत की गोद में बसी जगह में कोरोना कैसे पहुँच सकता है? वहां तो महानगरों जैसी भीड़ भी नहीं होती और न ही प्रदुषण।
“क्या कोरोना वहां भी पहुँच गया?”
दोस्त ने जवाब दिया कि वे अभी सिक्किम में नहीं बल्कि अपने आबाई वतन बुंदेलखंड में हैं। फिर जो उन्होंने कहा वह बड़ा ही दर्दनाक था, “पापा पास्ड अवे।”
आप के पापा गुज़र गएँ!
आज सुबह दोस्त ने यह मेसेज किया। दोस्त के मनहूस मेसेज पढने के बाद भी इस पर यकीन नहीं हो रहा था। दोस्त के पापा का चेहरा मेरी आँखों के सामने अभी भी झलक रहा है।
उनकी उम्र उनकी ज्यादा नहीं थी। सिक्सटी से थोडा ज्यादा होगा। कुछ ही साल पहले दोस्त ने उन्हें जेएनयू घुमाया था। अगर कोई जेएनयू आए और 9-तल्ला ऊँची लाइब्रेरी न देखे तो उसका घूमना पूरा नहीं समझा जाता।
लाइब्रेरी के गेट पर दोस्त ने अपने पापा से मुझे मिलवाते हुए कहा, “पापा यह अभय हैं, लाइब्रेरी में बहुत पढ़ता है।“
दोस्त के पापा ने खूब मुस्कुराया। उनके साथ दोस्त की माँ भी थीं। मैंने दोनों को नमस्कार कहा और फिर कुछ देर तक बात हुई। दोस्त के पापा पर उम्र का असर नहीं दिख रहा था। बदन बिल्कुल फिट और चुस्त था। सावले चेहरे पर मुस्कान दीपक के तरह चमक बिखेरी हुई थी। दोस्त के पापा ने मुझे अपने यहाँ आने की भी दावत दी।
मगर, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनसे दोबारा मुलाक़ात नहीं हो पाएगी।
दोस्त ने आगे बताया कि पापा के बीमार होने पर वह सिक्किम से घर आया था। उनका इलाज काफी दिनों तक चला। कोरोना नेगेटिव होने के बाद भी उनको कोरोना के सारे लक्षण थे। कई दिनों तक ऑक्सीजन लेवल’ कम रहा। ऑक्सीजन की सप्लाई भी उन्हें दी गई। वे ज़िन्दगी और मौत के बीच कई दिनों तक़ जंग लड़ते रहें। ऑक्सीजन लगने के एक हफ्ते के बाद आख़िरकार वे जंग हर गएँ।
“कोरोना का पहला हफ्ता आप के हाथ में है, दूसरा हफ्ता डॉक्टर के हाथ में है, और तीसरा हफ्ता किसी के हाथ में नहीं है”। मेरे दोस्त ने इस बीमारी के बारे में अपने कडवे अनुभव को साझा किया। फिर उसने कोरोना को हलके में न लेने की नसीहत की।
आज दोस्त समेत उनका पूरा परिवार कोरोना के चपेट में हैं। पूरा परिवार पॉजिटिव हो गया है। इतमिनान की बात यह है कि तक उनमें किसी की हालत “सीरियस” नहीं है और सब ठीक हैं।
जब मैं अपने दोस्त के घर पर पड़ी आपदा के बारे में सोच रहा हूँ तो मेरी रूह कांप जा रही है। अगर घर में एक बीमार हो जाता है तो बाकी लोग तीमारदार बन जाते हैं और इस मुश्किल से निकलने की कोशिश करते हैं। मगर जब पूरा घर ही अस्पताल में तब्दील हो जाये तो इससे कैसे लड़ना जाए?
ऐसी ही एक पहाड़ से भी भारी मुशीबत मेरी एक सीनियर पत्रकार साथी के घर पर पड़ी है। पत्रकार साथी का ताल्लुक मेरे ही जिले से हैं और वे हिंदी के एक नामचीन साप्ताहिक में सीनियर एडिटर हैं। जर्नलिस्ट दोस्त उम्र में बड़े हैं, लेकिन मेरे जैसे छोटों की बात भी बड़े गौर से सुनते हैं। उनको अख़बार की दुनिया में दशकों का अनुभव हैं, फिर भी अपनी बात दूसरों पर कभी नहीं थोपते। वे दूसरों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। पिछले लॉकडाउन के दौरान उनसे घंटों बात होती थी। वह हिंदी अख़बार की साम्प्रदायिकता और सत्ता के सामने घुटने टेक देने वाली सहाफत से काफी दुखी थे।
वे बताते थे कि किस तरह सत्ता बदलने से अख़बार के एडिटर बदल जाते हैं और फिर कोई निहायत ही अनुभवहीन आदमी को ऑफिस में सब का बॉस बना कर बैठा दिया जाता हैं। ऐसे बॉस पत्रकारिता के उसूल के साथ नहीं बल्कि नफरत फैलाने वाले एजेंडे के साथ आते हैं। ऐसे बॉस ऑफिस में पत्रकारिता छोड़कर, बाकी सबकुछ करते हैं।
पत्रकार दोस्त को सहाफत विरासत में मिली थी। उनके वालिद साहेब लम्बे वक़्त से अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू अख़बार से जुड़े रहें हैं। बड़े पत्रकार होने के बावजूद भी उनके वालिद साहेब ख़ामोशी से काम करना पसंद करते थे। आज कल के पत्रकारों की तरह उनको किसी पार्टी का लठैत बनना कतई पसंद नहीं था।
मज़े की बात यह है कि दोस्त के वालिद साहेब ढ़लती उम्र में भी खुद को चुस्त रखने के लिए वर्ज़िश किया करते थे। फिर बाक़ी वक़्त पढ़ा करते थे।खूब पड़ा करते थे। उनको हर फिल्ड का नॉलेज था।
मगर कोरोना ने पत्रकार दोस्त के घर को भी उजाड़ दिया है। कुछ ही दिन पहले कोरोना वबा दोस्त के वालिद साहेब की मौत का सबब बना है। वालिद की मौत के आंसू अभी आँखों से सूखे भी नहीं थे कि वालिदा भी दुनिया से चल बसी। खाविंद की वफात के छह दिन बाद वे भी इन्तेकाल कर गईं।
आज दोस्त पूरी तरह से टूट गए हैं। बाप और माँ दोनों का साया सर से उठ गया। वह आज यतीम हो गए हैं।
कई बार मैं सोचता हूँ कि उनसे बात करूँ, मगर हिम्मत नहीं होती। कैसे उनको फेस करूँ? तस्सली और सब्र दिलाने के लिए कहाँ से अल्फाज़ लाऊं?
इस सब के बावजूद मुल्क की सरकार कोरोना के खिलाफ जंग लड़ने के लिए कमरबस्ता नहीं दिख रही है। गंगा में अब पानी से ज्यादा लाश दिख रही है, फिर भी उनके दिल पिघल नहीं रहे हैं।
शासकों के पास बहुत वक़्त था, मगर उन्होंने कभी भी दिल से कोरोना से लड़ने के लिए तैयारी नहीं की। उनका सारा ध्यान चुनाव जीतने, मीडिया मैनेज करने और ‘अपने मुहं मियां मिठ्ठू बनने’ में लगा रहा।
अगर अब भी उनमें इंसानियत बची हुई है तो उन्हें देश का पैसा और मुल्क की ताक़त ताकत, किसी ईमारत या महल बनाने में नहीं, बल्कि अस्पताल बनाने और ऑक्सीजन पैदा करने में लगाना चाहिए।
– अभय कुमार
जेएनयू
15 मई, 2021