(समाज वीकली)- आज दिन में एक बड़ी ही बुरी खबर आई। दिल्ली में स्थित पत्रकारिता का मशहूर कॉलेज में पढ़े मेरे साथी और नामचीन हिंदी अखबार के जर्नलिस्ट का इन्तेकाल हो गया। मौत की क्या वजह थी यह अभी हमें मालूम नहीं है। क्या यह कोरोना का केस था यह भी कहना मुश्किल है। मगर, आंखों को यकीन नहीं हो रहा है और कानों पर भरोसा नहीं हो रहा है कि पत्रकार दोस्त भरी जवानी में हमसब को छोड़कर चले गए।
बहुत साल पहले की बात है। जर्नलिस्ट दोस्त हिंदी पत्रकारिता में थे। मैं इंग्लिश जर्नलिज्म वाले बैच में था। भाषा की दीवार कॉलेज में भी खड़ी थी। इंग्लिश जर्नलिज्म के लोग अंग्रेजी में बात करते थे, और हिंदी बोलने वालों को “देहाती” समझते थे। मैं इंग्लिश जरूर बोलता था, मगर मेरा “टोन” बिहारी था। इसलिए मुझे हिंदी सहाफत के दोस्तों से बात करने में कोई अपमान महसूस नहीं हुआ।
मुझे याद है मरहूम दोस्त अक्सर खादी का कुर्ता पहनकर कॉलेज आते थे। उनका कुर्ता ब्राउन कलर का होता था। कुरते का कपड़ा खुरदुरा और मोटा होता था। मगर उनकी बात बड़ी ही मुलायम और महीन थी। हमेशा हंस कर पूछते, “कॉमरेड क्या हाल है?”
कॉमरेड कहते जरूर थे, मगर पत्रकार दोस्त कहीं से भी मार्क्सवादी नहीं थे। लैंग्वेज और एक्सप्रेशन उन्होंने मार्क्सवाद से जरूर उधार ले लिया था। मेरे मरहूम दोस्त का संबंध पूजा पाठ कराने वाली जाति से था। वह अंदर से पहले अपनी जाती के थे, फिर वह किसी और विचारधारा के।
मगर मुझसे जब भी बात होती तो वह मजदूर और गरीब का पक्ष लेते थे। उनको यह बखूबी मालूम था कि किस से क्या बोलने पर वह खुश रहता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बड़े शहर में वे हिंदी अखबार के लिए काम करते थे। मीठी जबान और लोगों को खुश रखने के हुनर ने, उनको अपने इलाके में एक जाना माना पत्रकार बना दिया था। लोग उनको पुलिस और प्रशासन और नेताओं में पैठ रखने वाला बड़ा आदमी समझते थे। दोस्त अपनी कामयाबी से खुश थे कि उन्होंने ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से सैंकड़ों मील दूर आ कर, पश्चिम उत्तर प्रदेश को अपनी कर्म भूमि बना ली थी।
अपने महरूम दोस्त के बारे में जब मैं सोचता हूं तो बड़ी बेचनी होती है। इतना कामयाब और सत्ता के करीब लोग भी मौत के सामने बे-सहारा नजर आ रहे हैं। मुझे नहीं मालूम कि उनकी मौत में कोरोना का कुछ रोल है या नहीं। मगर, कोरोना काल में जिस तरह पत्रकार मर रहे हैं वह इस बात को साबित करता है कि सब की भलाई में ही खुद की भलाई है। पत्रकार लोगों के अंदर यह बड़ा घमंड होता है कि वे कोई मामूली आदमी नहीं हैं, बल्कि वे वीआईपी हैं। एक फोन अगर उन्होंने नेताजी को लगा दिया तो एम्स के डॉक्टर उनकी सेवा करने के लिए हाथ जोड़कर खड़े हो जाएंगे। मगर, अब यह दिखने लगा है कि सो-कॉल्ड वीआईपी ट्रीटमेंट सिर्फ एक छलावा है। जब तक पब्लिक हेल्थ सेक्टर मजबूत नहीं होगा तबतक न गरीब की जान महफूज है और न अमीर की जान सही सलामत है।
मगर, कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं, जो अब भी सरकार की गुलामी कर रहे हैं। स्वास्थ, रोजी, रोजगार और शिक्षा के सवालों को उठाने से कहीं ज्यादा उनको मंदिर मस्जिद के झगड़े को आग लगाने में मजा आता है। सरकार के कान पकड़ने से ज्यादा वे विपक्ष को उल्टा दोषी ठहराने में अपना वक्त गुजारते हैं। रोजी, रोटी और मकान के बजाय वे जज़्बाती इश्यूज को प्राइमटाइम में जगह देते हैं। देश में हो रहे आरक्षण पर हमले का विरोध करने के बजाय वह जातिवादी मानसिकता से संक्रमित बाबा को स्टूडियो में बुलाकर उनका महिमा मंडन करते थे।
ऐसा नहीं है कि इन पत्रकारों को मालूम नहीं कि देश में क्या चल रहा है। मगर, अपनी जाति के स्वार्थ से वे ऊपर नहीं उठ पाते। धार्मिक संकीर्णता को भी कभी वे सवालों के कटघरे में नहीं डालते। अखबार के मालिक की चाटुकारिता को ही वे अपनी सफल पत्रकारिता मानते हैं। मीडिया का मालिक सरकार के ‘हां’ में ‘हां’ मिलाकर अपना मुनाफा बढ़ता है। मीडिया में अभी भी चांद मुट्ठी भर जातियों का कब्जा है, जो गांव में जमीन के मालिक और धार्मिक स्थल के भी ठेकेदार हैं। शहर में सारी प्रॉपर्टी भी इन्हीं जातियों के नाम हैं। वहीं, देश की बड़ी आबादी मीडिया से बाहर है। आज भी आप को किसी बड़े अखबार के ‘टॉप पोजिशन’ पर कोई दलित और आदिवासी नहीं मिलेगा।
मेरे मरहूम दोस्त को भी इन सवालों से कुछ ज्यादा सरोकार नहीं था। निजी बातचीत में बातें अच्छी करते थे। किसी को नाराज नहीं करते थे। और अपना काम भी चुपके से बनाते रहते थे।
ऐसी सोच ने देश का बड़ा नुकसान किया है। आज भारत स्वस्थ के क्षेत्र में काफी पिछड़ रहा है। भारत से बहुत छोटी ‘इकोनॉमी’, जैसे श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश, कई मामलों में भारत से अच्छा काम कर रही है। पत्रकारों ने हेल्थ मसले को कभी जोर और शोर से नहीं उठाया। आज जब आग लगी हुई है, तो वे भी बच नहीं पा रहे हैं।
आप को जानकर हैरानी होगी कि खुद को वीआईपी समझने वाले पत्रकार बड़ी तादाद में मर रहे हैं। मीडिया खबर के मुताबिक कोरोना काल में बहुत सारे पत्रकारों की सैलरी काट ली गई, सैलरी रोक दी गई, नौकरी से निकाल दिया गया। अब तक दो सौ से ज्यादा पत्रकार मर गए हैं। बहुत सारे पत्रकारों को धमकी देकर ऑफिस बुलाया जा रहा है, जो काम वह घर से कर सकते हैं। फील्ड में जाने वाले पत्रकारों को प्रोटेक्शन भी नहीं मिल पा रहा है। दवा और इलाज की जिम्मेदारी मीडिया कंपनी लेने से भाग रही है, सरकार भी उनको प्रायोरिटी बेसिस पर टीका लगाने में कामयाब नहीं हुई है।
आज जब मैं अपने महरूम दोस्त के बारे में सोचता हूं तो एक बात दिल में उठ रही है। कितना अच्छा होता, अगर उन्होंने अपनी ज़िंदगी रोजी, रोटी और स्वस्थ के सवालों को उठाने में लगाते?
अगर ऐसा करते तो शायद सरकार की नीति में बदलाव होता और इसका फायदा उनको भी मिलता और आम जनता को भी।
अगर नीति में बदलाव नहीं भी होता तो कम से कम खुशी तो इस बात की होती कि उन्होंने ने अपनी कलम को लोगों के दुख और दर्द के लिए उठया।
यह सवाल सिर्फ मेरे मरहूम दोस्त के लिए ही नहीं है, बल्कि देश के ज्यादातर पत्रकारों के लिए है।
क्या पत्रकारिता बिरादरी अब भी सबक लेने को तैयार है?