(समाज वीकली)
गरीबों की कौन सुनता है? अगर आपको जात बिरादरी के ‘स्केल’ पर नीचे रखा गया है, और संसाधन से भी महरूम किया गया है, तो समझ लीजिए आसमान में स्थित हेल्पलाइन आपका कॉल नहीं लेता। क्यों आसमान से फूलों की वर्षा कभी किसी दलित बस्ती पर नहीं होती? मगर धार्मिक किताबों में इसका उल्लेख ज़रूर मिलता है जब कभी भी दलित अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने को आगे आता है, तो इससे स्वर्ग के खम्भे हिलने लगते हैं। आइए, एक ऐसे ही दलित मजदूर की बात आज करते हैं, जो आजकल कोरोना से संक्रमित है और जिंदगी और मौत से लड़ रहा है। पहले सिस्टम ने उससे रोटी छीन ली थी, और अब कोरोना वायरस उसे जीने नहीं दे रहा है।
कुछ रोज पहले की बात है, सोशल मीडिया पर जेएनयू के साथियों ने एक पोस्ट को कई बार शेयर किया। पोस्ट में बतलाया गया कि जेएनयू का एक सफाई कर्मचारी को इलाज के लिए पैसे की सख्त ज़रूरत है। कोरोना से बीमार सफाई कर्मचारी को सांस से संबंधित बहुत सारे ‘कॉम्प्लिकेशन’ जकड़ चुके थे।
इलाज के लिए अस्पताल में जगह पाना आज के दौर में कितना मुश्किल है, यह आप को मुझे बतलाने की जरूरत नहीं है। हेल्थ सर्विस को पहले से ही पैसे के बाजार में बेच दिया गया है कोरोना ने तो सिर्फ इस तल्ख हकीकत को सामने ला दिया है।
मैं बिहार से हूं, और बिहार के आम लोग नेताओं से अक्सर एक ही वरदान मांगते हैं कि वे उन्हें दिल्ली में स्थित एम्स में इलाज कराने की सिफारिस कर दें। मुझसे भी मेरे इलाके के कई सारे लोगों ने पूछा कि “आप का एम्स में कोई जान पहचान है, कोई पैरवी है?”
पिछले साल लॉकडाउन लगने से पहले, कुछ साथी आगरा से दूर और भरतपुर के पास अकबर के द्वारा बसाया गया फतेहपुर सीकरी किला देखने गये थे। फूल पैंट और शर्ट के ऊपर ‘नेहरू जैकेट’ पहने और छोटी दाढ़ी रखे हुए, हमारा स्थानीय गाइड मुझे अचानक से एक कोने में ले गया और पूछा, “आप को तो कुछ जुगाड़ होगा एम्स में…?”
दूसरों की क्या बात करूं, बहुत पहले मेरे सगे बड़े भाई दिल के मर्ज से बीमार थे। उस वक्त मैं पटना में ‘ग्रेजुएशन’ कर रहा था। एम्स में भैया को ले जाने के बारे में लोगों ने मुझे सलाह दी। उन दिनों में पटना से प्रकाशित होने वाला मशहूर उर्दू अखबार ‘कौमी तंजीम’ से जुड़ा हुआ था। मैं वहां रिपोर्टिंग करता था। मेरे चीफ रिपोर्टर बड़े बड़े नेताओं के करीब से जानते थे। एक दिन मुझे वे गोलघर ले गए। गंगा के किनारे और गांधी मैदान से सटा हुआ गोलगर है। पास में राजनीतिक सभा चल रही थी। सभा में उस वक्त के केन्द्रीय मंत्री सी.पी ठाकुर मौजूद थे। मेरे सीनियर रिपोर्टर ने मुझे उनसे मिलाया और सारी बात बताई। बाद में उनहोंने ठाकुरजी से एम्स के लिए एक सिफरिसी लेटर ले लिया। लेटर पा कर मुझे बड़ी खुशी हुई। मन ही मन इतरा भी रहा था कि “रिपोर्टर हूं कोई मामूली इंसान थोड़े ही हूं… अब तो मेरा काम कोई नहीं रोक सकता…वीआईपी ट्रीटमेंट होगा…..”
मंत्रीजी के खत को मैंने सबको दिखाया। फिर कुछ दिन बाद भाई साहेब को लेकर दिल्ली पहुंचा। एम्स में लाइन लगाई और पुर्जी बना। इलाज भी शुरू हुआ। मगर धक्के बहुत खाने पड़े और चक्कर बहुत लगाना पड़ा। फिर मंत्रीजी की चिट्ठी की याद आई। पेशे से और आदत से पत्रकार तो था ही, इसलिए एम्स का ‘हार्ट डिपार्टमेंट’ खोजने में देर न लगी। उस ज़माने में ह्रदय विभाग में कोई प्रोफेसर तलवार थे। उनको बड़ा डाक्टर समझा जाता था। एम्स में स्थित उनके चेम्बर में दाखिल हुआ और उनको बड़े ‘कॉन्फिडेंस’ से मंत्रीजी की चिट्ठी को थमा दिया।
मगर मेरी सारी उम्मीदों के खिलाफ, चिट्ठी का कोई असर न दिखा। डॉक्टर तलवार ने इसे पढने या फिर देखने में एक सेकंड से भी कम वक्त लगाया। फिर उसे अपने टेबल पर रख दिया। न मुझ से हाल चाल पुछा और न मुझे वीआइपी ट्रीटमेंट दिया। बग़ैर किसी देरी के मुझसे चैम्बर से बहार जाने के लिए कहा। बाद में मुझे और मेरे भाई को दिल्ली के अस्पतालों में क्या क्या दिक्कत सहनी पड़ी, क्या क्या मुसीबत सहनी पड़ी, उसके लिए हजारों पेज कम पड़ जायेंगे।
यह बात आज से तकरीबन पन्द्रह साल पुरानी है। इसलिए मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि पब्लिक हेल्थ से सम्बंधित सारी मुसीबत आज ही पैदा हुई है। मगर, मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि आज सुरत-ए-हाल पहले के मुकाबले हजार गुना ज्यादा खराब हो चुकी है। कल के हुक्मरां ईंट से बने हुए दिल रखते थे, आज का शासक वर्ग पत्थर का बना हुआ हृदय रखता है। शायद यह एक मशीन बन चुका है, जिसके पास अब दिल विल नाम का कोई अंग नहीं है, और न उसे उसकी ज़रुरत है। उसका हृदय संवेदनहीन मशीन है, जो मुनाफा और माल बनाने के फ़िक्र से चलता है। यह मशीन बे-हिस है। यह मशीन ऑक्सीजन के बगैर मर रहे लोगों की चीख पुकार सुनकर अपने टारगेट से ज़रा भी इधर उधर नहीं होता।
जेएनयू का दलित सफाई कर्मचारी आज चीख रहा है। मगर संवेदनहीन सिस्टम को कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है। उसका चीख आसमान में लगे हेल्पलाइन तक भी नहीं पहुँचती। इस बीमार सफाई मजदूर को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ। हाल के दिनों तक वह स्वस्थ था। उसे मैं जेएनयू लाइब्रेरी के आस-पास देखा करता था।
मगर उससे मेरी जान-पहचान कुछ दिनों पहले ज्यादा बढ़ गयी थी। आपने सुना होगा कि जेएनयू लाइब्रेरी में काम करने वाले दो दर्जन सफाई कर्मचारीयों को पिछले पांच महीनों से वेतन नहीं मिला था। जिस के खिलाफ वे हड़ताल पर बैठे थे।
कोरोना काल के दौरान वेतन बहुत लोगों को नहीं मिल रहा है। दूसरों की क्या कहूँ मुझे भी मेरी मजदूरी साल भर से नहीं मिली है। मेरे जैसे सैकड़ों और शिक्षक हैं, जो अपनी तनख्वाह के लिए रोज़ इंतज़ार कर रहे हैं। संक्षेप में बात यह है की हमलोग दिल्ली यूनिवर्सिटी के तहत चल रहे ‘एन.सी.वेब’ में पढ़ाते हैं। जिस दिन कॉलेज में छुट्टी रहती है, उस दिन एन.सी.वेब की क्लास लगती है। समझ लीजिये यह एक तरह का रेगुलर और ओपन स्कूल के बीच का सिस्टम है।
यहां पढ़ने वाली सारी महिलाएं हैं। नंबर कम होने की वजह से इनको डीयू के रेगुलर कोर्स में जगह नहीं मिल पाती है। आखिर में इनको एन.सी.वेब में दाखिला लेना पड़ता है। याद रखिए कोर्स का ‘सिलेबस’ रेगुलर कोर्स की तरह ही होता है। पिछले सेमेस्टर में, मैंने तुलनात्मक राजनीति पढ़ाई और इस सेमेस्टर अंतराष्ट्रीय राजीनिति। कोर्स में लगे सारे मटेरियल वही पढाये जो कोई हिन्दू या मिरांडा कॉलेज में पढ़ता है। यह सब करने के बावजूद भी हमें हमारी मजदूरी साल भर से नहीं मिली है। दो सेमेस्टर गुजर जाने के बाद भी हमें एक पैसा नहीं मिला है। हमारे दिल में कई बार यह सवाल उठता है कि “क्या हम इंसान नहीं है?” “जब छात्रों को कोरोना के दौरान भी फीस देना होता है, और इसमें एक कौड़ी भी कम नहीं किया गया है, तो मुझ जैसे टीचर को साल भर से पैसा क्यों नहीं मिलता?”
फिर गुस्सा भी आता है। “कोई है इस नाइंसाफी के खिलाफ बोलने वाला?” “क्या भारत का सिस्टम मुर्दा नहीं हो चुका है?” “क्या आसमान को हमारी परेशानी नहीं दिखती?” सोचिये ज़रा इस देश में कैसे जालीम लोग है जो नीति बनाते हैं?
तजाद देखिये कि सरकार के पास हमें साल भर से मजदूरी देने के लिए वक्त और पैसा नहीं है, मगर करोड़ों की नई पार्लियामेंट इमारत, जिसकी कोई जरूरत नहीं है, इस कोरोना काल में भी बन रही है।
मगर आप की मज़बूरी से मकान मालिक को कुछ नहीं लेना देना। महीना नया शुरू हो गया, उसे तो सिर्फ किराया चाहिए। मकान मालिक किराया लेने के लिए किसी भी वक़्त दरवाजे को पीट सकता है।
जेएनयू से पीएचडी करने के बाद भी मेरी हालत और ऊपर ज़िक्र किये गए सफाई कर्मचारी की हालत में बहुत समानता है। मगर सफाई कर्मचारी की दिक्कत इस वजह से ज्यादा बढ़ जाती है कि ज़ात पात पर आधारित समाज में उनकी हैसियत एक दलित की है। जात पर आधारित समाज के दिलों में जानवरों के लिए हमदर्दी होती है, मगर दलितों के लिए नहीं।सफाई कर्मचारी ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं और उनकी जान पहचान भी सीमित है। बेशक, ‘सोशल कैपिटल’ न होने की वजह से उनकी हालत मेरे से बहुत ज्यादा कमज़ोर हो जाती है।
कुछ हफ्ते पहले, जब मुझे मालूम हुआ कि पांच महीनों से सैलरी न मिलने के विरोध में, सफाई कर्मचारी जेएनयू लाइब्रेरी के पास हड़ताल पर बैठे हुए हैं, तो मैं वहां पहुंचा। उनसे बात की। इजाज़त मिलने पर, उनकी बातों को रिकॉर्ड किया उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। बहुत सारे इंसाफ-पसंद लोगों ने उनके हक में आवाज़ उठाई। बिहार के मेरे एक जेएनयू के बहुत ही सीनियर और अंबेडकरवादी लेखक, विद्वान और कार्यकर्ता ने खुल कर इस ज़ुल्म के खिलाफ बात की और इसे भी रिकॉर्ड कर अपलोड किया गया।
मगर पत्थर-दिल जेएनयू प्रशासन और उनके चमचे टीचर कुछ भी न बोले। बार-बार गार्ड का सहारा लेकर, सफाई कर्मचारी को धमकी दी गई। उनसे मिलने वालों को रोका जा रहा था। मगर हड़ताल तीन हफ्ते से ज्यादा चली। धूप में चालीस डिग्री के आसपास के तापमान में, जब प्रशासन के लोग ए.सी. में ठंडी काट रहे थे, तब सफाई कर्मचारी लाइब्रेरी के बाहर एहतेजाज करते रहे। वे भूखे भी रहे, मगर हार न मानी। कभी-कभी मैं उनसे बड़ी गुजारिश करता कि “खाना कंटीन से ऑर्डर कर दूं?”। हर बार उनका यही जवाब होता था “सर रहने दो…खाना खा लिया है।” बहुत जिद करने पर वे एक दो बार समोसा और नींबू पानी के लिए राजी हुए।
सफाई कर्मचारी की यह हड़ताल कोरोना के दौर में हुई थी। उनकी सैलरी भी कोरोना के दौर में भी रोकी गई थी। अब आप ही बताइए इतना सड़ा हुआ सिस्टम है कहीं दुनिया में? मगर सफाई कर्मचारी फौलाद की तरह डटे रहे। आखिर में उनको एक महीना की सैलरी रिलीज की गई और उनसे काम पर लौटने को कहा गया। वक्त की मजबूरी को देखते हुए, उन्होंने हड़ताल खत्म कर काम ज्वाइन किया।
इस हड़ताल को कामयाब बनाने में सब कर्मचारियों का योगदान रहा। मगर जो सफाई कर्मचारी अभी कोरोना से बीमार हैं, उन्होंने बड़ी मेहनत की। हमेशा वह धरने पर रहे और अपने साथियों का हौसला बढ़ाया। यह सफाई कर्मचारी जेएनयू के पास कुसुमपुर पहाड़ी झुग्गी में रहता है। पिछले कई महीनों से वह खाने और रहने के लिए संघर्ष कर रहा था। अब कोरोना ने भी उसपर हमला कर दिया है। राहत की बात यह है कि जेएनयू के कुछ साथियों ने एक बड़ी रकम जमा की और सफाई कर्मचारी की मदद की।
अब सफाई कर्मचारी खतरे से बाहर है। मगर अभी भी वह अस्पताल से घर नहीं लौटा है। उसकी नौ साल की बिटिया और मां अभी भी उसके घर आने का इंतजार कर रही हैं, वहीं उसकी बीवी अपनी जान की परवाह किए बगैर उसकी देखभाल हॉस्पिटल में कर रही है।
अब आप ही बताइए, क्या इस देश में गरीब, दलित और मजदूर का कोई सुनने वाला है? क्या आम आदमी को बुनियादी सुविधा कभी मिल पायेगी? बग़ैर सेंसिटिव हुए और पब्लिक हेल्थ को दुरुस्त किए, क्या किरोना को हराया जा सकता है?
इन्सान तो इन्सान दलित के लिए तो आसमान भी बेहिस है। क्यूँ आसमान कभी रहमत के फूल किसी सफाई कर्मचारी की झुग्गी पर नहीं बरसाता? अगर आसमान के पास करूणा और प्रेम होता, तो अब तक वह पिघल कर मोम न बन जाता?
– अभय कुमार
जेएनयू
4 मई, 2021